लॉकडाउन में ‘मजबूरी’ का दूसरा नाम बना दूरदर्शन, इसलिए लोकप्रिय लग रहे हैं पुराने धारावाहिक

पुराने धारावाहिकों के चयन में दूरदर्शन ने स्पष्ट रूप से उन धारावाहिकों को नहीं रखा है जो कहीं से भी वर्तमान सरकार की राजनीति और विचारधारा से अलग दृष्टिकोण रखते हैं। जैसे, ‘भारत एक खोज’, ‘तमस’, ‘गुल गुलशन गुलफाम’ और ‘गालिब’। जबकि ये भी बेहद लोकप्रिय रहे हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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अजय ब्रह्मात्मज

कहते हैं पब्लिक डिमांड की वजह से दूरदर्शन ने ‘रामायण’ के प्रसारण की घोषणा की। खुद सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने यह सूचना दी और प्रसारित होने पर ‘रामायण’ देखते हुए अपनी तस्वीर शेयर की। इस घोषणा के बाद ही आम दर्शकों की मांग आने लगी और उन्होंने पिछली सदी के नौवें और आखिरी दशक में प्रसारित अन्य चर्चित धारावाहिकों के प्रसारण का आग्रह किया।

हम सभी जानते हैं कि वर्तमान सरकार के बहरे कानों में जनता की कोई मांग सुनाई नहीं पड़ती। इसके बावजूद पहले ‘रामायण’ और फिर ‘महाभारत’ और उसके बाद एक दर्जन से अधिक धारावाहिकों के प्रसारण की सूची जारी की गई। अभी एक हफ्ता भी नहीं गुजरा था कि सुर्खियां नजर आईं कि दूरदर्शन की दर्शकता (टीआरपी) सभी मनोरंजन चैनलों में सबसे आगे हो गई है।

गौर करेंगे तो पता चलेगा कि सरकारी संकेत से यह खबर चलाई गई कि दर्शक पुराने धारावाहिकों को मनोयोग से देख रहे हैं, इसलिए दर्शकों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। दर्शकों में आई बढ़ोतरी से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन लॉकडाउन की यह दर्शकता वास्तव में विकल्पहीनता का परिणाम है। सोचें, अगर दूसरे मनोरंजन चैनल पहले की तरह चल रहे होते तो भी क्या दूरदर्शन के पुराने धारावाहिकों को ऐसी दर्शकता मिलती? सामान्य विवेक से कहा जा सकता है- हरगिज नहीं।

दूरदर्शन के जमाने से भारत में पौराणिक और मिथकों पर आधारित धारावाहिकों के प्रचुर दर्शक रहे हैं। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के प्रभाव में सैटेलाइट चैनलों ने शुरुआत से ही पौराणिक धारावाहिकों के निर्माण और प्रसारण पर जोर दिया। हर चैनल ने उपलब्ध प्रतिभाओं और कार्यक्रम अधिशासी की रुचि से धारावाहिकों का निर्माण और प्रसारण किया। कोई भी चैनल अछूता नहीं रहा। ‘संतोषी माता’ से लेकर ‘शनिदेव’ तक पर कहानियां जुटाई गईं और दर्शकों के लिए मनगढ़ंत मनोरंजन पेश किया गया।

इस पृष्ठभूमि में अभी प्रसारित हो रहे ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ को दर्शक मिलने पर अचंभित हो रहे मीडिया विश्लेषकों पर हंसी आती है। एक उदाहरण से समझें। लॉकडाउन के दौर में हरी सब्जियां नहीं मिल पा रही हैं तो आलू की बिक्री बढ़ गई है। कोई विश्लेषक कह सकता है कि लॉकडाउन के दिनों में भारत के नागरिक आलू अधिक पसंद कर रहे थे। दूरदर्शन के पुराने धारावाहिकों की लोकप्रियता का रेखांकन आलू की तात्कालिक उपयोगिता के समान ही है।

दूसरा, बहुसंख्यक हिंदू समाज के भारत में हिंदू धर्म और दर्शन से संबंधित कथाएं, काव्य और महाकाव्य चाहे-अनचाहे हर कोई सुनता और देखता रहता है। पर्व-त्यौहार और पूरे साल की व्रत-पूजा की वजह से भी इन कहानियों से परिचय का नवीनीकरण चलता रहता है। रामलीला के वार्षिक आयोजन से लेकर जीवन के विभिन्न प्रसंगों में ‘महाभारत’ के चरित्रों के साक्ष्य और उदाहरण दिए जाते हैं।

जाहिर सी बात है कि इन कथाओं की पुनरावृत्ति हमारी सामूहिक स्मृति रचती हैं। हम दैनिक जीवन में धार्मिक रहें या न रहें, लेकिन हिंदू परिवारों में जन्म लेने या हिंदू पड़ोसियों के साथ रहने से हम इन कथाओं से भलीभांति परिचित हैं। तात्पर्य यह है कि देश के गैर हिंदू परिवार और समुदाय भी इन पौराणिक कथाओं के बारे में जानते हैे। जाहिर सी बात है कि इन धारावाहिकों में दर्शकों की आम रुचि हो जाती है। यह हमारी सामूहिक स्मृति का ही प्रदर्शन है।

इस बार के प्रसारण के साथ स्मृतिगंध (नॉस्टेल्जिया) भी जुड़ा है। 1987 और बाद के वर्षों में प्रसारित इन धारावाहिकों को लगभग सभी ने देखा है। कहते हैं कि प्रसारण के समय उन दिनों सड़कें सूनी हो जाती थीं। देश में टीवी का चलन आरंभ ही हुआ था। जिन घरों में टीवी नहीं था, उन घरों में पड़ोसी बेधड़क आ सकते थे। कहीं-कहीं सामुदायिक दर्शन की व्यवस्था की जाती थी। दरी- जाजिम बिछा दी जाती थी। कुछ घरों में प्रसारण के समय शंख बजाकर अगरबत्ती और दीया जलाकर आरती भी की जाती थी।

साल 1970 से 1980 के बीच पैदा हुए लोगों के बचपन में इन धारावाहिकों को देखने के किस्से हैं। अब वे सभी अपने परिवारों के प्रौढ़ और अभिभावक हो चुके हैं। लॉकडाउन में जबरन घर बैठे अनगिनत परिवारों के लिए ये धारावाहिक पारिवारिक दिनचर्या का हिस्सा बन गए हैं। महानगरों में अकेले-दुकेले रह रहे युवा भी इन्हें देख रहे हैं। गांव-कस्बों में बुजुर्गों के लिए समय काटने और बतियाने का यह प्रमुख विषय हो गया है। कहीं न कहीं ये धारावाहिक थोड़ी देर के लिए ही सही ‘कोरोना’ चिंता से आजाद करते हैं।

मुंबई के एक आस्थावान युवा मित्र का ऑब्जर्वेशन गौरतलब है। उनके अनुसार ये धारावाहिक ऑनलाइन उपलब्ध हैं या इनके वीडियो भी मिल सकते हैं, लेकिन जीवन की आपाधापी में इन्हें खोजना और देखना व्यर्थ व्यायाम लगता था। अभी फुर्सत है तो इन्हें देखना अपनी संस्कृति और पौराणिक थाती से परिचित होना है। वह आगे बताते हैं कि इन धारावाहिकों में आज की तरह के तामझाम या स्पेशल इफेक्ट की चकाचौंध नहीं रहती। और न ही इन्हें जबरदस्ती खींचने की कोशिश रहती है। सरल और सीधे तरीके से एपिसोड में बातें की जाती हैं। संवादों में संदेश और आदर्श निहित रहता है। मुझे तो बहुत कुछ सीखने और समझने का मौका मिल रहा है। वह कहते हैं, ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के साथ ही मैं ‘चाणक्य’ और ‘श्रीमान श्रीमती’ भी देख रहा हूं।

फिलहाल ‘रामायण’, ‘महाभारत’, ‘सर्कस’, ‘ब्योमकेश बख्शी’, ‘श्रीमान श्रीमती’, ‘चाणक्य’, ‘उपनिषद गंगा, ‘सुराज्य संहिता’, ‘शक्तिमान’, ‘कृष्णकली’ और ‘देख भाई देख’ आदि धारावाहिकों का प्रसारण चल रहा है। प्रसारित हो रहे धारावाहिकों के चयन में दूरदर्शन अधिकारियों ने स्पष्ट रूप से उन धारावाहिकों को नहीं रखा है, जो कहीं से भी वर्तमान सरकार की राजनीति और विचारधारा से अलग दृष्टिकोण रखते हैं। जाहिर सी बात है कि ऐसा ही निर्देश मिला होगा।

देखें कि श्याम बेनेगल के ‘भारत एक खोज’, गोविंद निहलानी के ‘तमस’, वेद राही के ‘गुल गुलशन गुलफाम’ और गुलजार के ‘गालिब’ को प्रसारित धारावाहिकों की सूची में शामिल नहीं किया गया है। ‘भारत एक खोज’ भारत के इतिहास और दर्शन का कैप्सूल वर्णन और चित्रण करता है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि जवाहरलाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पर आधारित होने की वजह से वर्तमान सरकार के शासनकाल में यह धारावाहिक कभी प्रसारित नहीं हो सकता।

इस प्रसंग में एक और तथ्य गौरतलब है कि पिछले छह सालों में दूरदर्शन ने किसी भी उल्लेखनीय धारावाहिक का निर्माण नहीं किया है। ‘उपनिषद गंगा’ और ‘सुराज्य संहिता’ को छोड़ दें तो भारतीय इतिहास और संस्कृति पर आधारित किसी अन्य धारावाहिक का उदाहरण नहीं मिलता। दरअसल, बीजेपी की सरकार आने के पहले से सैटेलाइट चैनलों की बाढ़ में दूरदर्शन आम भारतीय घरों से गायब ही हो गया। सेटेलाइट चैनलों के कार्यक्रम रोचक और चमकदार थे। अगर केबल और डिश वितरकों के लिए दूरदर्शन के प्रसारण की अनिवार्यता नहीं होती तो दूरदर्शन के चैनल दिखाई ही नहीं देते।

सैटेलाइट चैनलों की मनोरंजक प्रोग्रामिंग के सामने दूरदर्शन अधिकारियों की सोच और सृजनात्मकता भी लड़खड़ा गई। दूसरे नौकरशाही के कुचक्र और जवाबदेही के तनाव से अधिकारियों ने खुद को अलग ही रखा। उन्होंने दूरदर्शन पर ऊबाऊ धारावाहिकों की झड़ी लगा दी। पर्याप्त लागत और स्पॉन्सरशिप के अभाव में सैटेलाइट चैनलों की बराबरी के धारावाहिक दूरदर्शन पर नहीं आ सके। यह बड़ी वजह है कि दूरदर्शन को पिछली सदी के नौवें और आखिरी दशक के धारावाहिकों का सहारा लेना पड़ रहा है। उनके पास हाल-फिलहाल का कोई धारावाहिक नहीं है।

फिलहाल लॉकडाउन की वजह से टीवी शो और फिल्म निर्माण की सारी गतिविधियां बंद हैं। हर चैनल पर रिपीट और रीरन ही जारी है। लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी धारावाहिकों और फिल्मों के निर्माण को सुचारू होने में वक्त लगेगा। तब तक देश के अधिकांश दर्शक इन पुराने धारावाहिकों का आनंद लेते रहेंगे।

हां, शहरी दर्शकों का एक हिस्सा ओटीटी प्लेटफॉर्म और ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म से वेब सीरीज और देसी-विदेशी फिल्मों से मुग्ध हो रहा है। इस बीच इन प्लेटफार्म के सब्सक्रिप्शन में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। अब तो यह भी विचार किया जा रहा है कि फिल्मों को सीधे इन प्लेटफार्म से प्रसारित कर दिया जाए। सही कह रहे हैं कि लॉकडाउन के बाद देश में बहुत कुछ बदल जाएगा। इस बदलाव में मनोरंजन का हमारा तौर-तरीका भी इसमें शामिल होगा।

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