अपने समय से काफी आगे की फिल्म थी 'साधना', 50 के दशक में इतनी बोल्ड और प्रगतिशील फिल्म बनाना नहीं था आसान

'साधना' के बारे में वैजयंती माला कहती हैं, "जब में 'साधना' के बारे में पीछे मुड़कर देखती हूं तो मुझे लगता है कि यह फिल्म अपने समय से बहुत आगे थी। यह महिलाओं के रिफॉर्म के मसले पर बहुत ही मजबूती और निडरता से बात करती है, यह कोई सामान्य बात नहीं थी।

फोटो: सोशल मीडिया
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सुभाष के झा

'औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया/जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया/मर्दों ने बनाई जो रस्में, उनको हक का फरमान कहा/ औरत के जिंदा जलने को, कुर्बानी और बलिदान कहा/इस्मत के बदले रोटी दी, उसको भी एहसान कहा/औरत ने जन्म दिया मर्दों को...।' ('साधना',1958)

हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति पर साहिर लुधियानवी के ये अल्फाज आज भी उतने ही सच हैं। सुधारवादी फिल्मकार के रूप में बी.आर.चोपड़ा की प्रतिष्ठा उनके बेहतरीन काम से जुड़ी हुई है। उनकी फिल्म 'साधना' एक सेक्स वर्कर के पुनर्वास की जबरदस्त थीम पर आधारित थी जबकि इसके एक साल बाद आई उनकी फिल्म 'धूल का फूल' में चोपड़ा साहब ने एक बिन ब्याही मां के संवेदनशील मसले को बहुत ही असरदार तरीके से सामने रखा। बहुत बाद में उन्होंने 'निकाह' फिल्म बनाई जिसमें इस्लामिक कानूनों और उससे महिला की वैवाहिक स्थिति पर पड़ने वाले प्रभाव को केंद्र में रखा गया।

सुधारवादी प्रगतिशील सिनेमा के प्रति बी.आर. चोपड़ा की प्रतिबद्धता को याद करते हुए मशहूर अभिनेत्री वैजयंती माला ने कहा, "मैंने 'साधना' और 'नया दौर' के दरम्यान बहुत कुछ सीखा। दोनों ही फिल्मों के विषय प्रगतिशील और सामाजिक रूप से प्रासंगिक थे। उनके सिनेमा में कुछ अतिरंजित नहीं था। मैंने 'नया दौर' में गांव की लड़की भूमिका निभाई थी। लेकिन कोई अंग-प्रदर्शन नहीं था। आज जब हीरोइनें गांव की लड़कियों की भूमिका निभाती हैं तो निर्देशक वेशभूषा और हावभाव का लाभ उठाते हैं। जब मैंने चोपड़ा साहब के साथ अपनी दो बेहतरीन फिल्में की तो हम एक परिवार की तरह थे। वह न केवल महान फिल्मकार थे बल्कि एक बेहतरीन इंसान भी थे। मुझे उनकी दो बेहरतीन और सफल फिल्मों का हिस्सा बनने का सौभाग्य मिला।"

अभिनेत्रियों को शायद कभी-कभार ही 'साधना' जैसी फिल्मों में भूमिकाएं मिलती हैं और उचित ही है कि वैजयंती माला को इस फिल्म पर गर्व है। इस फिल्म ने उनको अपने बहुमुखी व्यक्तित्व के कई रंगों को प्रदर्शित करने का मंच प्रदान किया। वह 'साधना' के निर्माण के तीन साल पहले बिमल रॉय की 'देवदास' में चंद्रमुखी की भूमिका निभा चुकी थीं। 'देवदास' में अपेक्षाकृत एक आसान भूमिका थी। 'साधना' में वैजयंती माला को शुरू में सोने के आभूषण की चाह वाली एक स्कीमर के रूप में चित्रित किया गया जो मरणा सन्न महिला की मरने से पहले अपनी बहू को देखने की इच्छा का फायदा उठाती है।

मृत्यु शय्या पर लेटी महिला लीला चिटणीस का बेटा जो कॉलेज का लेक्चरर है, मोहन (सुनील दत्त) अपने लालची लेकिन सीधे-साधे मित्रजीवन (राधा कृष्ण) से 'किराये पर' एक 'बहू' लाने के लिए मदद लेता है। जीवन एक सेक्स वर्कर को घर लाता है जिसके बारे में मोहन कुछ नहीं जानता। यह सेक्स वर्कर मुजरे वाली के अपने नाज-नखरे छोड़कर बेचारी मरणासन्न मां की आंखों में धूल झोंकने के लिए एक सामान्य-सी साड़ी पहनकर आती है। आश्चर्यजनक रूप से वह बूढ़ी महिला ठीक हो जाती है। और जब मोहन जो अपनी सोच में प्रगतिशील है, को यह सच्चाई पता चलती है कि एक सेक्स वर्कर उसकी पत्नी की भूमिका निभा रही है तो वह अपने कदम पीछे खींच लेता है और यहीं से जटिलताएं शुरू होती हैं। महिलाओं और पिछड़े समाजों में उनकी स्थितियों पर वैजयंती माला के उग्र भाषण कहानी में शानदार तरीके से सामने आते हैं।

एक नाचने वाली लड़की चंपाबाई का एक घरेलू बहू रजनी में रूपांतरण को संगीत और ड्रामा के बेहतरीन संयोजन के जरिये पेश किया गया। फिल्म में शुरुआती गाने (संगीतकार एन.दत्ता) सम्मोहक मुजरे हैं, बाद के जो गाने हैं उनमें आध्यात्मिक भजनों के साथ निःसंदेह रूप से सामाजिक संदेश वाला गीत- औरत ने जन्म दिया मर्दों को, भी शामिल है। इस पूरी कहानी में वैजयंती माला का किरदार सबसे अधिक संघर्ष के केंद्र में बना रहता है। फिल्म की थीम जितनी प्रगतिशील है, उतना ही अभिनेत्री का अभिनय भी। अपने लुभावने आकर्षक नृत्यों से लेकर मुख्यधारा के समाज का हिस्सा बनने की इच्छा तक वैजयंती माला ने फिल्म में अपने किरदार के द्वारा इस बड़ी यात्रा को ऐसे आत्मविश्वास से निभाया जो चंपाबाई की इस यात्रा को सामाजिक पूर्वाग्रह और दमनकारी तत्वों के विरुद्ध एक रूपक में बदल देती है जिसमें पक्षपात को नहीं कहने का साहस होता है।

सुनील दत्त ने इससे पहले बिमल रॉय की फिल्म 'सुजाता' में एक ब्राह्मण पुरुष का किरदार निभाया था जो एक हरिजन महिला (नूतन) से शादी करने को राजी है, 'साधना' में वह एक बार फिर सुधारवादी की भूमिका में नजर आते हैं। जब जीवनसाथी चुनने की बात आती है तो संत और शहीद होना आसान नहीं होता है। फिल्म में एक पत्नी के रूप में तवायफ को बिना शर्त स्वीकार करने की सुनील दत्त की यात्रा को बी.आर. चोपड़ा एक आसान टास्क नहीं बनाते हैं। इसमें दलाल हैं जो दंपति को अलग करने की कोशिश करते हैं। और फिर एक 'गिरी हुई महिला' के साथ जुड़ने पर समाज से बहिष्कृत होने का एक मध्यवर्गीय डर भी है। केवल अकेले शादी की बात ही नहीं बल्कि शिक्षित मध्यवर्ग वेश्यालय के आसपास देखे जाने की बात सोचने पर भी डरेगा।

हिंदी सिनेमा में सामाजिक सुधार का विषय बहुत पहले से रहा है। सन 1936 में फ्रांज ऑस्टेन की 'अछूत कन्या' फिल्म आई थी जिसमें हरिजन लड़की देविका रानी को ब्राह्मण लड़का अशोक कुमार 'मुक्ति' दिलाता है। तब से हमारे समाज में बहुत ज्यादा नहीं बदला है। कितनी दलित लड़कियों की ब्राह्मण लड़कों से शादी होती है? और आखिरी बार आपने यह कब सुना था कि एक कामकाजी वर्ग का पुरुष एक सेक्स वर्कर से शादी करता है? साहित्यिक पटकथा लेखक पंडित मुखराम शर्मा ने 'साधना' फिल्म में इस विषय को बहुत ही संवेदनशीलता और कुछ हास्य के साथ पेश किया।

चंपाबाई के कोठे में कला के कदर दानों के छद्म वेश में मसखरे व्यभिचारियों का समूह आता है, दो आकर्षक मुजरों के बाद उसे एहसास होता है कि इन लोगों को उसकी भावनाओं की रत्तीभर भी कद्र नहीं है। फिल्म के एक अहम मोड़पर चंपा उन गहनों को पहनती है जो मोहन की मासूम मां ने उसे उपहार में दिए हैं। जब चंपा उसके कोठे में आने वालों के सामने दुल्हन के कपड़ों में आती है तो वे लोग उसकी इस नई भूमिका का मजाक उड़ाते हैं। इस तंज से मानसिक रूप से घायल और दुखी चंपा तुरंत वहां से चली जाती है और उसे अपने पीछे कव्वाली- आज क्यों हम से परदा है, की आवाज सुनाई देती है। जो अक्सर रेड-लाइट एरिया में जाते हैं, वे महिला को एक भोग की वस्तु समझते हैं। 'साधना' वास्तव में एक प्रगतिशील फिल्म है। फिल्म में 'सभ्य' और ईश्वर से डरने वाला तथा अपनी मां का दुलारा अकादमिशियन एक सेक्स वर्कर चंपा को अपनी पत्नी के रूप में बिना शर्त अपनाता है। आश्चर्यजनक रूप से मोहन की मां भी उनके साथ खड़ी होती है।

'साधना' के बारे में वैजयंती माला कहती हैं, "जब में 'साधना' के बारे में पीछे मुड़कर देखती हूं तो मुझे लगता है कि यह फिल्म अपने समय से बहुत आगे थी। यह महिलाओं के रिफॉर्म के मसले पर बहुत ही मजबूती और निडरता से बात करती है, यह कोई सामान्य बात नहीं थी। चोपड़ा साहब ने फिल्म में बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा कि यहां तक कि एक लड़की जो इस तरह के पेशे में है उसे एक सामान्य जिंदगी जीने का हक है, और उसे एक पत्नी बनने का भी हक है। साधना में मैंने जिस महिला का किरदार निभाया, उसके कई अंधेरे कोने भी थे। लेकिन एक मासूम महिला जो उसे अपनी बहू के रूप में स्वीकार करती है, के प्रेम और विश्वास के कारण उसका रूपांतरण होता है। यह बहुत ही कठिन भूमिका थी क्योंकि मुझे इसमें अभिनय के कई स्तरों को जिना था।...'साधना' बहुत ही प्रगतिशील फिल्म थी। औरत की दुर्दशा को बहुत ही गरिमापूर्ण तरीके से दर्शाया गया। एक नाचने वाली लड़की के मेरे किरदार को फिल्माते हुए कोई सस्तापन नहीं दर्शाया गया। यह इसलिए था क्योंकि बी.आर. चोपड़ा साहब संचालन में थे। और एक कलाकार के बतौर मैं लगातार अपनी गरिमा के प्रतिसचेत थी। इसलिए मैंने और चोपड़ा जी ने यह सुनिश्चित किया कि यह यादगार फिल्म हो।

'साधना' में निभाई अपनी भूमिका को मैं अपने सबसे बेहतरीन अभिनय प्रदर्शनों में से एक मानती हूं। क्या आप जानते हैं कि बी. आर. चोपड़ा जी मेरे साथ 'साधना' का सीक्वल बनाने वाले थे? वह इसे 'दरिटर्नऑफ साधना' कहना चाहते थे और वह चाहते थे कि इस फिल्म के जरिए मेरी फिल्मी दुनिया में वापसी हो। मैंने 1968 में शादी के बाद इंडस्ट्री छोड़ दी थी। लेकिन अफसोस, यह नहीं होना था। एक बार जब मैंने इंडस्ट्री छोड़ दी थी तो उसके बाद कुछ भी मुझे आकर्षित नहीं कर सका।...चोपड़ा साहब बहुत विनोदी स्वभाव वाले, हंसमुख और ईमानदार इंसान थे। सेट पर वह बहुत ही अनुशासित इंसान थे। वह जानते थे कि उन्हें क्या चाहिए। स्क्रिप्ट में किसी तरह के भी बदलाव की इजाजत नहीं थी। बी. आर. चोपड़ा जैसे निर्देशकों ने अभिनेत्रियों की गरिमा को हमेशा बनाए रखा।

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