रानी की ‘हिचकी’ से प्रेरित होकर ही लौटेंगे दर्शक

फिल्म की कहानी बेशक प्रेरित करने वाली है और सारे अदाकार भी प्रभावशाली हैं। लेकिन, निर्देशक सिद्धार्थ मल्होत्रा इस बेहतरीन कथानक के साथ बहुत ही अच्छी फिल्म बना सकते थे, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है।

फोटोः सोशल मीडिया
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प्रगति सक्सेना

रानी मुखर्जी फिल्म ‘हिचकी’ के साथ परदे पर वापस लौटी हैं। इससे पहले भी उन्होंने कोई गंभीर अदाकारी का प्रदर्शन नहीं किया था। हालांकि, ‘मर्दानी’ में उनके काम को थोड़ा बहुत सराहा गया था, लेकिन वे कुल मिला कर ऐसी अदाकारा रही हैं, जिनकी काबिलियत का पूरा इस्तेमाल अभी तक नहीं हुआ है। कभी-कभार उनकी अदाकारी में एक मंजे हुए अभिनेता की छवि दिखती रही है।

‘हिचकी’ का विषय आम हिंदी फिल्मों से अलग है, इसलिए जाहिर सी बात थी कि नायिका के तौर पर रानी अच्छा काम करतीं और उन्होंने अच्छा काम किया है। लेकिन फिल्म में असली कमाल किया है, उन किशोर अदाकारों ने, जो छात्रों की भूमिका में हैं। फिल्म में कई युवा अभिनेता हैं, जिनमें से एक भी निराश नहीं करता। खासतौर से ‘आतिश’ के किरदार निभाने वाले हर्ष मायर।

कहानी बिल्कुल सीधी और सरल है। जिन्होंने ई आर ब्रेथवेट की किताब ‘टू सर विथ लव’ पढ़ी है या इस पर आधारित फिल्म देखी है, उनके लिए फिल्म की खास बात महज ‘टूरेट सिंड्रोम’ है। एक नौजवान लड़की, जो ‘टूरेट सिंड्रोम’ से पीड़ित है, अध्यापिका बनना चाहती है। लेकिन, चूंकि वह टूरेट सिंड्रोम के चलते हकलाती है और अचानक कुछ अजीबोगरीब आवाजें निकालती है, इसलिए उसे पांच साल तक हर इंटरव्यू में रिजेक्ट कर दिया जाता है। आखिरकार उसे अपने ही पुराने स्कूल में टीचर की नौकरी मिलती है और उसका सामना होता है 14 बेलगाम और बदतमीज बच्चों की क्लास से। किस तरह यह नौजवान टीचर इन बदतमीज और धृष्ट बच्चों को कामयाब और इंटेलिजेंट छात्रों में बदल देती है- कहानी का मुख्य कथानक यही है।

यह फिल्म अपने ही पूर्वाग्रहों को तोड़ने की भी बात करती है। जैसे, जो शख्स हकलाता है वो अध्यापक नहीं बन सकता, या फिर सिर्फ अमीर और मध्यम वर्गीय छात्र ही पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं, या पढ़ाई सिर्फ एक क्लास रूम में ही हो सकती है, आदि। संक्षेप में, फिल्म यह कहने की कोशिश करती है कि हमें बने बनाए ढर्रे और विचारों से निकल कर नए और गैर मामूली ख्यालात और लोगों के प्रति भी खुला और सकारात्मक नजरिया अपनाना चाहिए। बीच-बीच में नायिका के अपने पिता के साथ उलझे हुए रिश्ते की झलक भी मिलती है जो जाहिर तौर पर अपनी पत्नी और बच्चों को इसलिए छोड़ कर चला गया था क्योंकि वह अपनी बेटी के ‘टूरेट सिंड्रोम’ को कभी स्वीकार नहीं कर पाया और लोगों के बीच वह उसकी हकलाहट और अजीब आवाजों के लिए शर्मिंदा हो जाता था।

फिल्म की कहानी बेशक प्रेरित करने वाली है और अभिनेता भी प्रभावशाली हैं। लेकिन, निर्देशक सिद्धार्थ मल्होत्रा इतने अच्छे अदाकारों और बेहतरीन कथानक के साथ एक बहुत अच्छी फिल्म बना सकते थे लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है।

फिल्म कहीं-कहीं उबाऊ और ढीली पड़ जाती है। संवाद बेहद कमजोर हैं। अगर संवाद कुछ सधे और चटकीले होते तो फिल्म की इस मंदगति से छुटकारा पाया जा सकता था। कई बार ऐसा लगता है कि संवाद लेखक को हिंदी का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है। जैसे हिंदी में नेल पॉलिश ‘पहनी’ नहीं जाती, ‘लगाई’ जाती है। शायद यही वजह है कि फिल्म ‘हिचकी’ उतना प्रभावित नहीं कर पाती जितना ‘तारे जमीन पर’, ‘थ्री इडियट्स’ या ‘चक दे! इंडिया’ ने किया था।

लेकिन ये निश्चित तौर एक अच्छा प्रयास है। खास तौर पर युवा अदाकारों का। एक लम्बे अरसे के बाद फिल्म में रानी मुखर्जी को भी देखना एक अच्छा एहसास है। फिल्म एक बार तो देखी ही जा सकती है। अगर कुछ नहीं तो आप हॉल से कुछ प्रेरित और उत्साहित होकर ही लौटेंगे।

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