बदलते नायकत्व के दौर में अल्लू अर्जुन की फिल्म पुष्पा, गढ़ रही सफलता की नई कहानी

पुष्पा सिर्फ करोड़ों की कमाई कर हंगामा नहीं मचा रही, उसने उस दौर की याद भी दिला दी है जहां दर्शक हीरो के हर किए की नकल करते दिखते थे।

फोटो: सोशल मीडिया
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नम्रता जोशी

बीते दिनों जेन कैंपियन की ‘द पावर ऑफ द डॉग’ के बहाने मर्दानगी और इसे लेकर पुरुषों का भ्रम चर्चा में रहा। कोंकना सेन शर्मा की ‘ए डेथ इन द गंज’ भी पितृसत्ता के इर्दगिर्द घूमती है और इसके खतरों को खोलती है। सुकुमार की ब्लॉकबस्टर तेलुगू फिल्म ‘पुष्पा: द राइज’ देखते हुए इन दो फिल्मों की याद स्वाभाविक थी। जमीन एक है लेकिन संवेदना के स्तर पर तीनों अलग हैं। पुष्पा का नायक तो अकड़ के चरम तक पहुंच जाता है और अपनी मुसीबतें बढ़ा लेता है। कई बार इतना हिंसक और खूंखार दिखता है, गोया इंसान नहीं मशीन हो। पुष्पा कुछ ऐसे अविश्वसनीय अजूबों में शामिल दिखी जो न सिर्फ बीते साल की सबसे बड़ी हिट ‘83’ को पीछे छोड़ गई बल्कि 2021 की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर बनकर सबको चौंकाती है।

पुष्पा सिर्फ करोड़ों की कमाई कर हंगामा नहीं मचा रही, उसने उस दौर की याद भी दिला दी है जहां दर्शक हीरो के हर किए की नकल करते दिखते थे। याद कीजिए अनिल कपूर का वह खास अंदाज में झुका एक कंधा। अल्लू अर्जुन के किरदार के तौर तरीकों, डांस स्टेप्स की भी जिस तरह नकल देखने को मिली, वह अद्भुत है।

अच्छी बात है कि भारतीय सिनेमा की बात आने पर हम न सिर्फ इसकी विविधता स्वीकारते हैं बल्कि एक स्वर से तारीफ भी करते हैं। यह सच है और हालिया अनुभव भी कि बॉलीवुड की बादशाहत अब टूट रही है। पुष्पा में वह सब है जो अपने क्रूर नायकत्व के जरिये फिल्म की शुरुआत में ही यह साबित भी करता है। टार्चर के दौरान तेलुगू होने के सवाल पर वह पुलिस को जिस तरह पॉज लेकर जवाब देता है ‘पक्का तेलुगू’, बॉलीवुड के खूंखार नायकत्व वाले दौर की याद दिला देता है। हालांकि यह भी सही है कि मलयालम सिनेमा में हो रहे प्रयोगों या तमिल सिनेमा में दिखे सबाल्टर्न सोच के बरअक्स पुष्पा नई जमीन तोड़ती नहीं दिखती। यह फिल्म निर्माण के सर्वाधिक प्रचलित और पारंपरिक फार्मूले पर चलती है और पहली बार है जब हिंदी दर्शक के बीच भी उतनी ही शिद्दत से स्वीकार की जाती है।


1980 के दशक में एक समय ऐसा था जब बॉलीवुड का एंग्री यंगमैन धीरे-धीरे बिगड़ा और लोकप्रिय एंग्री यंगमैन वाली छवि एक पतनशील चरित्र में बदलती दिखी। उसका एंग्री यंगमैन धीरे-धीरे क्रूर हुआ और जब वह अर्जुन रेड्डी/कबीर सिंह बनने लगा तो फिर ‘पुष्पा’ का जन्म होना ही था जो कल्पना से भी ज्यादा क्रूर है।

हां, फिल्म की अपील को लेकर बहस हो सकती है। मुट्ठीभर नाक-भौं सिकोड़ने वालों को छोड़ भी दें तो फिल्म ज्यादातर को रोमांचित ही करती है। आखिरकार जिस तरह नेताओं को बहुमत का वोट मिलता है, हमें उन नायकों के साथ भी रहना सीखना होगा जो जनता का मनोरंजन करते हैं और पैसों से खेलते हैं। यह तो मानना ही होगा न कि पैसे से ही दुनिया चलती है और फिल्मी दुनिया तो सिर्फ इसी पर घूमती है।

हालांकि मेरा काम तो सवाल उठाना है! फिल्म की शुरुआत में ही पुष्पा पर तारीफों की जो मुहर लगी, उस पर सवाल उठा सकती हूं जबकि उससे पहले ही वह एक अलग तरह की एंट्री लेकर नया मुहावरा गढ़ रहा होता है। वह जो सोना है, उस लाल चंदन की तरह दुर्लभ है जिसके तस्कर सिडिंकेट का वह अहम हिस्सा है।

पुष्पा के दंश गहरे हैं। यहां एक नाजायज बच्चा होने के अपमान, वह उपनाम (पारिवारिक पहचान) इस्तेमाल न कर सकने की पीड़ा जिसका वह हकदार है, परिवार होते हुए भी उसकी छाया न मिलना ऐसे दंश हैं जिन्हें वह भोगता आया है और जिसे फिल्म के अंत में एक अत्यंत नाटकीय दृश्य में खुद से लड़ते हुए बयान करता दिखता है। हालांकि यह यश चोपड़ा की ‘त्रिशूल’ नहीं है जहां विजय अपने दिमाग का इस्तेमाल कर अपनी लड़ाई लड़ता है और सब कुछ हासिल कर लेता है जो उसे चाहिए था। पुष्पा अपनी तनी हुई मुट्ठी के जोर पर सबकुछ करता है।


यहां लगातार कुली (मजदूर) कहकर बुलाए जाने का दंश भी है। हालांकि पुष्पा के वर्ग आधारित मुद्दे उतने गहरे नहीं हैं जैसा कि ‘कर्णन’ वाले धनुष के। वहां जातीय भेद और उत्पीड़न के जमीनी यथार्थ के साथ हाशिये के समाज और वंचितों के भीतर सुलगते गुस्से और आक्रोश की जैसी अभिव्यक्ति हुई है, वह बहुत स्वाभाविक है और प्रभावशाली भी। कर्णन का विद्रोह अपने लोगों का जीवन बदलने, अपने समाज के उत्थान के लिए था। पुष्पा की हर लड़ाई व्यक्तिगत प्रतिशोध और बदले की आग का नतीजा है। यहां दांव पर भी ऐसा कुछ बड़ा नहीं लगा है।

हां, सत्ता का प्रतिकार, मिल मालिकों को चुनौती देना और पलिु स से सीधे टकराव के दृश्य प्रभावशाली हैं। किसी स्तर पर उत्पीड़न झेल चुके इंसान को यह सब अपना सा, अपने करीब सा लगेगा। पुष्पा एक तरह से उन लोगों के कुछ अलग ढंग से जीने के अंदाज के बारे में है जिन्हें वक्त ने भले ही कमजोर कर दिया लेकिन जो प्रेशर कुकर की सीटी की तरह सबका ध्यान खींचना जानते हैं। हालांकि शक्ति संरचनाओं को ध्वस्त करने की इस प्रक्रिया में पुष्पा ऐसी जमात से घिर जाता है जो उसे भटकाने वाली है। पुष्पा खुद से प्यार करने वाला आदमी है। आश्चर्य नहीं कि उसके साथ आत्मछवि गढ़ने जैसा कोई मसला हो जैसा कि ऐसे मामलों में अक्सर हो जाया करता है।


यहां तक कि श्रीवल्ली (रश्मिका मंदाना) से उसका प्यार भी अलग तरह का है। मसलन अगर वह मुस्कुराती है या उसे किस करने को राजी होती है तो वह उसे पसंद करती है, वरना वह आगे बढ़ जाएगा। यहां महिला से रिश्ते में गर्माहट नहीं अपमान ज्यादा है। उसकी ओर नजर उठाने वाले से ही सही, जिस अंदाज में ‘वह मेरी है’ कहता है, उसमें वही भाव है, मानो वह उसकी निजी संपत्ति हो और उसका सबकुछ उसके द्वारा चिह्नित है। वह रोती है, छिपती है, सिहरती है और बालों से भरी उसकी छाती में अपना चेहरा छुपा लेती है। आश्चर्य है कि क्या अधिसंख्य भारतीय औरतें ऐसे ही मर्दाना किस्म में अपना पुरुष खोजती होंगी! मजे की बात है कि चाहे नायक में उसे अपने पास रखने की चाहत हो या खलनायक द्वारा उसके शोषण का मामला, उसके सामने प्रायः विकल्पहीनता की स्थिति ही रहती है। यह सब पुरुष अधिकार, पुरुष सत्ता के लिए है और ‘पुष्पा’ इस मामले में पुरुष सत्ता का एक बहु करोड़ी उत्सव बनकर आई है।

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