फिल्म समीक्षा: सिनेमैटिक और विषय के ट्रीटमेंट की दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय स्तर की फिल्म है ‘उमेर्ता’
राजकुमार राव एक काबिल अभिनेता हैं और एक संवेदनशील युवक के आतंकवादी में तब्दील हो जाने की पूरी प्रक्रिया को असरदार तरीके से परदे पर उतार पाए हैं। वे उमर के दोनों पहलुओं को गहराई से चित्रित करते हैं।
![फोटो: सोशल मीडिया](https://media.assettype.com/navjivanindia%2F2018-05%2Fa8b8638b-b9f5-4d8e-a651-a4690a4a4628%2FOmerta.jpg?rect=0%2C0%2C706%2C397&auto=format%2Ccompress&fmt=webp)
फिल्म का नाम अजीब है। बाद में एहसास हुआ कि यह बहुत सोच समझ कर रखा गया नाम है। ओमेर्ता इटालियन शब्द है जिसका अर्थ है माफिया के बीच एक ऐसी चुप्पी जो अपराधिक गतिविधियों के लिए रखी जाती है, इसे पुलिस को सुबूत देने के लिए मदद न करना भी समझा जाता है। जैसा कि फिल्म पब्लिसिटी के दौरान प्रचारित किया गया था, इसका विषय जटिल है। कहानी कुख्यात आतंकवादी उमर सईद शेख के चारों ओर घूमती है। फिल्म देखने से पहले मन में यही ख्याल था कि ओमेर्ता भी आम हिंदी कमर्शियल फिल्मों की तरह होगी जिसमें ‘भारत माता की जय!’ के कानों को चुभने वाले नारे और शोर होगा। सिर्फ ’शाहिद’ के निर्देशक हंसल मेहता का नाम ही कुछ उम्मीद लिए था।
लेकिन ‘उमेर्ता’ बिलकुल अलग निकली और यह एक खुशनुमा एहसास था। यह फिल्म आम हिंदी फिल्मों की तरह कतई नहीं, इसमें कोई हीरोइन नहीं है, न ही हीरोइन की कोई ज़रूरत है। जिस तरह से उमर सईद शेख के किरदार को हैंडल किया गया है वो अपने आप में एक कुशल निर्देशक के शिल्प को दर्शाता है। यह बात भी अपील करती है कि जो फिल्म एक ‘कोड ऑफ़ साइलेंस’ की बात कर रही है उसकी शुरुआत चीखों से होती है।
लगातार वर्तमान और अतीत के बीच कट्स के साथ कहानी आगे बढ़ती है जिसके बीच में उन आतंकी हमलों की न्यूज़ क्लिपिंग्स भी जुड़ी है जिनके लिए उमर ज़िम्मेदार था। वह उन तीन आतंकियों में से था जिसे इंडियन एयरलाइन्स 814 के अपह्रत यात्रियों के बदले में 1999 में छोड़ा गया था। इसके बाद उमर को 2002 में वाल स्ट्रीट जर्नल के पत्रकार डेनियल पर्ल के अपहरण और हत्या के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया और बाद में पकिस्तान के आतंकवाद विरोधी विशेष अदालत ने इसके लिए उसे मौत की सज़ा दी। वह आज भी जेल में बंद अपनी याचिका पर सुनवाई का इंतज़ार कर रहा है। उमर एक पहेलीनुमा किरदार लगता है जिसके बारे में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ ने अपने संस्मरण ‘इन द लाइन ऑफ़ फायर’ में लिखा है कि वह दरअसल ब्रिटेन के ख़ुफ़िया विभाग एमआई 6 का हिस्सा था जिसे उन्होंने अपने काम के लिए बाल्कन क्षेत्र में भेजा और वह बाद में उनके विरोधी गुट से जुड़ गया।
बहरहाल, उमर का जन्म पाकिस्तान में हुआ था और उसका लालन पालन ब्रिटेन में, जहां वह प्रतिष्ठित लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स का छात्र था लेकिन बाद में वह एक कुख्यात आतंकवादी में तब्दील हो गया। यह फिल्म एक युवा और संवेदनशील उमर की कहानी दर्शाती है जो बोस्निया में मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों से बहुत बेचैन हो उठता है, अपने समुदाय की मदद करना चाहता है लेकिन उसे प्रशिक्षण के लिए अफगानिस्तान भेज दिया जाता है और वह वहीं से आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देना शुरू करता है।
राजकुमार राव एक काबिल अभिनेता हैं और एक संवेदनशील युवक के आतंकवादी में तब्दील हो जाने की पूरी प्रक्रिया को बहुत असरदार तरीके से परदे पर उतार पाए हैं। वे उमर के दो पहलुओं को बहुत गहराई से चित्रित करते हैं - एक तरफ तो वह एक पढ़ा लिखा नफीस मुस्लिम युवा है जो अच्छे ब्रिटिश लहजे में अंग्रेजी बोलता है, दूसरी तरफ वह एक भावशून्य और क्रूर आतंकवादी है जिसका सिर्फ एक मकसद है, अपने समुदाय पर दुनिया भर में हो रहे ‘अन्याय और अत्याचारों’ का बदला लेना।
हंसल मेहता ने एक कुशल निर्देशक के तौर पर अपनी पहचान बनायी है। वे संवेदनशील विषयों और मुद्दों पर फिल्म बनाते रहे हैं, जिनके किरदार लीक से हटकर अपनी ख़ास पहचान लिए होते हैं, उनमे ग्रे शेड्स हैं और बहुआयामी शख्सियत भी। लेकिन उमर के किरदार को दिखलाना बहुत जटिल और चुनौतीपूर्ण काम था क्योंकि आतंकवाद जैसे नाज़ुक विषय पर कुछ भी रचने की प्रक्रिया में हम किसी एक पक्ष में झुकने के आकर्षण का शिकार हो ही जाते हैं।
और यही बात है जिसमे वे सफल रहे हैं। अपने मुख्य किरदार को वे लगभग एक गहरी और तीव्र निष्पक्षता से सामने रखते हैं। उनके स्थिर मिड शॉट्स लगभग डरावने लगते हैं, मानो परदे पर कुछ बेहद अप्रिय घटित होने वाला हो। और जैसे ही वो शॉट ख़त्म होता है तो आप लगभग राहत महसूस करते हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। खासकर उमर का एक अंधेरे से कमरे में अपहृत डेनियल से संवाद बेहद असरदार है। कमरे का अंधेरा, और उमर और डेनियल के क्लोज शॉट बगैर किसी बैकग्राउंड संगीत के, बहुत प्रभावशाली ढंग से उमर की क्रूरता और डेनियल के यथार्थवादी साहस को दर्शाते हैं।
जब उमर डेनियल के शव को काटता है - सिर्फ टॉर्च की लाइटिंग का इस्तेमाल कर वह दृश्य हिंसा और हिंसा से वितृष्णा दोनों भावों को जीवंत तौर पर ज़ाहिर करता है, हिंदी कमर्शियल सिनेमा में टनों खून बहा कर भी वैसा असर पैदा नहीं किया गया।
यह फिल्म अंतर्राष्ट्रीय स्तर की फिल्म है; सिनेमैटिक दृष्टि से और विषय के ट्रीटमेंट की दृष्टि से भी। इसे ज़रूर देखें।
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