पाकिस्तानी कलाकारों को ऑस्कर-ग्रैमी सम्मान ताजा हवा के झोंके की तरह, मंजिल तक पहुंचने में अभी लंबा सफर बाकी

बीते कुछ हफ्ते पाकिस्तानी कलाकारों के लिए ताजा हवा के झोंकों की तरह रहे। इसका श्रेय पाक-ब्रिटिश अभिनेता रिज अहमद को ऑस्कर मिलने, पाक-अमेरिकी गायिका अरोज आफताब के ग्रैमी जीतने और पाक-ब्रिटिश फिल्म निर्माता सैम सादिक की फिल्म के कांस में प्रदर्शन को जाता है।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

पाकिस्तानी होने के नाते जिसने अपने जीवन का अधिकांश अपने देश में ही बिताया हो, याद नहीं पड़ता कि मैंने पाकिस्तानी फिल्में ज्यादा देखी हों। जब मैं छोटी थी, बॉलीवुड और हॉलीवुड ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मेरे मीडिया विकल्पों पर असर डाला। अब चाहे वे शादी के डान्स रहे हों या प्रेम प्रसंग, हमारी भावनाओं की निर्तिमि में बॉलीवुड बड़ा आधार रहा।

अब करण जौहर की फिल्में देखती हुई मेरी पीढ़ी की ज्यादातर लड़कियों की असल जिंदगी ‘कभी खुशी-कभी गम’ की पू से बहुत ज्यादा अलग तो हो नहीं सकती। इसलिए, एक तरफ तो हमें शाहरुख खान जैसा चॉकलेटी रोमांटिक प्रेमी अच्छा लगता है जो चांद पर होने का अहसास कराए। और यह भी कि हम यश चोपड़ा की मनीष मल्होत्रा की डिजाइन वाली साड़ी में लिपटी फिल्मी दुल्हनों से कम भी नहीं दिखना चाहते।

हालांकि सच यही है कि कई घरों में नाच-गाना अब भी आमतौर पर सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं है, खासतौर से लड़कियों के लिए। उनके लिए यह उतना ही मायने रखता है कि जब माता-पिता घर से निकलते हैं तो कोई भी लड़की सबसे पहले यही करना चाहती है। सच यही है कि कोई भी पाकिस्तानी शादी तब भी (और आज भी) बॉलीवुड से बहुत ज्यादा प्रभावित रहती और हैसियत साथ दे तो आज भी वह करण जौहर के किसी शादी वाले सेट से कम नहीं दिखना चाहेगी।

उत्तर-औपनिवेशिक देश होने के नाते, यह भी सच है कि अपने औपनिवेशिक आकाओं की जबुान और उनका कल्चर पाकिस्तानियों को खूब भाता रहा और लोग हॉलीवुड की फिल्में देखने की अपनी ‘आदत’ पर इठलाने से बाज नहीं आते थे। अंग्रेजी भाषा की नई फिल्मों की बढ़िया जानकारी होना किसी की परिष्कृत रुचि और संस्कार का प्रतीक माना जाता था।


दीवानगी की हद तक बॉलीवुड फिल्मों की शौकीन होने के नाते अंग्रेजी फिल्मों में मेरी ज्यादा या कह लें, बिलकुल भी दिलचस्पी नहीं थी। हालांकि माहौल में फिट होने और मौके-बेमौके अपनी ‘समझदारी’ का प्रमाण देने लिए ही सही, मैंने हॉलीवुड की कुछ प्रसिद्ध फिल्मों के नाम जरूर याद कर लिए थे। जब भी कोई मेरी पसंदीदा फिल्म के बारे में पूछता- मैं हमेशा कुछ नया बोल जाती। बड़ी आसानी से!

इसके उलट, हमें अपने पाकिस्तानी कलाकारों के बारे में ज्यादा पता नहीं रहता था। नब्बे के दशक में पश्चिम से प्रभावित पॉप संगीत यहां आसमान छू रहा था। पाकिस्तानी नाटक जनता के बीच हमेशा लोकप्रिय रहे और और इसे पाकिस्तानियों के लिए सबसे आसानी से उपलब्ध मनोरंजन विकल्पों में से एक माना जाता था।

पॉप संगीत और नाटक कुछ हद तक स्वीकार्य थे लेकिन पाकिस्तानी फिल्में हमेशा कमतर मानी गईं। किसी ताजा हवा के झोंके की तरह आई सैयद नूर, जावेद शेख और शमीम आरा जैसे मानीखेज निर्देशकों की कुछ अच्छी फिल्मों के बावजूद, पाकिस्तानी कलाकार-अभिनेता शायद ही कभी अंतरराष्ट्रीय पहचान या किसी ऐसे प्रोजेक्ट का हिस्सा बने हों।

इतना ही नहीं, फिल्मों को पेशे के तौर पर भी आमलोगों के लिए सम्मानजनक नहीं माना जाता था। आम धारणा यही थी कि फिल्में कुछ खास पृष्ठभूमि से आने वालों के लिए ही होती हैं। इसलिए आज भी मुझे ऐसा कोई याद नहीं आता जो गायक या अभिनेता बनना चाहता रहा हो। दरअसल, पाकिस्तानी सिनेमा को बर्बाद करने में यहां के सामाजिक ताने-बाने की बड़ी भूमिका रही है।


बीते कुछ सप्ताह पाकिस्तानी अभिनेताओं और फिल्म निर्माताओं के लिए उम्मीद की रोशनी और ताजा हवा के झोंकों की तरह रहे। अचानक कुछ हुआ कि एक नई ऊर्जा का संचार दिखाई दिया है जिसने पाकिस्तानी कलाकारों में बेहतर करने के प्रति एक नया जोश भर दिया है। इसका श्रेय पाकिस्तानी-ब्रिटिश अभिनेता रिज अहमद को ऑस्कर मिलने, पाकिस्तानी-अमेरिकी गायिका अरोज आफताब के ग्रैमी जीतने और पाकिस्तानी-ब्रिटिश फिल्म निर्माता सैम सादिक की फिल्म के कांस में सफल प्रदर्शन को जाता है। अंतरराष्ट्रीय मंच पर देश का नाम रोशन करने के लिए पाकिस्तान में इन दिनों हर कोई इन कलाकारों को लेकर इतराता फिर रहा है।

हालांकि मेरी पूरी कोशिश है कि दूसरों की मुस्कराहट, उनकी खुशी में खलल न डालूं लेकिन माफी चाहूंगी। मनोरंजन जगत में गहरी दिलचस्पी रखने वाली पत्रकार होने के नाते मैं उतना इतरा नहीं सकती। लेकिन मैं वे सवाल भी नहीं उठा पा रही जो जहन में उमड़-घुमड़ रहे हैं और मुझे गहराई से परेशान करते हैं।

रिज अहमद और सैम सादिक ने अपना पूरा जीवन ब्रिटेन में बिताया। अरोज आफताब की शुरुआती तालीम और पालन-पोषण मध्यपूर्व में हुआ और वह महज उन्हीं कुछ सालों तक पाकिस्तान में रहीं जब तक कि हायर एजुकेशन के लिए अमेरिका नहीं चली गईं। यह सही है कि इन कलाकारों के काम में पाकिस्तान और उसकी विरासत की गहरी मौजूदगी है लेकिन क्या वे वास्तव में पाकिस्तान में रहने वाले कलाकारों का प्रतिनिधित्व भी करते हैं जो तमाम दुश्वारियों के बावजूद अपनी कला को यहीं रहकर तराश रहे हैं।

शोबिज को वैसे भी पाकिस्तान में उद्योग के तौर पर मान्यता नहीं है। यह न सिर्फ कलाकारों को उनके काम से मिलने वाली पहचान से वंचित करता है बल्कि आर्थिक रूप से भी कोई सुरक्षा न देकर उनके भविष्य को अनिश्चय के दलदल में धकेलता है। पाकिस्तान में तो बैंक खाता खोलना भी आसान नहीं है। खाता खोलने के लिए पेशा लिखने की जरूरत होती है और उनके काम को उद्योग के तौर पर मान्यता ही नहीं है। उसकी कोई कटेगरी नहीं। ऐसे में नई मुश्किल आती है। एक ऐसे देश जहां कला को आज भी दोयम दर्जे पर रखा जाता हो, कलाकारों को टकसाली और उनकी कला को अनैतिक माना जाता हो, कोई यह उम्मीद भी कैसे कर सकता है कि कलाकार उस देश में रहकर काम करते रहने के लिए प्रेरित होंगे।


आज जब पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहचान मिल रही है, सरकार और उसके वाजिब मंचों को यह हकीकत स्वीकारनी होगी कि इन कलाकारों को मिले ऑस्कर, गैमी और कांस में उनकी कोई भूमिका नहीं है। अब समय आ गया है कि हम अपनी प्राथमिकताएं तय करें और पाकिस्तानी कलाकारों को वैश्विक मंचों पर पहुंचने में मदद करें, उन्हें सशक्त बनाएं। यात्रा शुरू जरूर हो चुकी है लेकिन मंजिल तक पहुंचने में अभी लंबा सफर तय करना है।

मुझे सबसे ज्यादा खुशी तब होगी जब एक दिन पाकिस्तान में रहकर काम करने वाले कलाकारों की पाकिस्तान में बनाई गई फिल्म ऑस्कर, ग्रैमी या कांस के मंच तक पहुंचेगी। और यह तभी संभव होगा जब हमें अपनी कला और कलाकारों पर गर्व होगा। तब तक हम ‘पाकिस्तानी’ रिज अहमद, अरोज आफताब और सैम सादिक की शोहरत का आनंद लें जो वैश्विक कला आकाश पर सफलता हासिल करते हुए अपनी पाकिस्तानी जड़ों का प्रदर्शन कर रहे हैं।

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