बागी 2 की समीक्षा: अर्थहीन एक्शन, कमजोर कहानी, लेकिन टाइगर की धूम

बागी 2 में लव स्टोरी जोड़ दी जाए तो फिल्म एक दिलचस्प ड्रामा बन सकती थी। लेकिन फिल्म में ऐसा नहीं है। फिल्म की रफ्तार जब धीमी पड़ती है तो दीपक डोबरियाल और मनोज बाजपेयी दर्शकों का मनोरंजन करते हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

अब वक्त आ गया है कि हिंदी फिल्म निर्माताओं को कुछ बातों का एहसास हो जाना चाहिए कि सेना ईश्वर नहीं है, सारी पुलिस हमेशा भ्रष्ट नहीं होती और ईश्वर के लिए देश के झंडे को अकेला छोड़ दें।

बागी 2 एक थ्रिलर फिल्म है। शुरुआत में ही नायक रॉनी के जरूरत से ज्यादा ‘झंडा प्रेम’ से चिडचिड़ाहट होने लगती है।

इस तथाकथित ‘थ्रिलर’ का असली रोमांच पुलिस बनाम सेना की नोकझोंक में गुम हो जाता है। यह नोकझोंक इतनी बढ़ जाती है कि डीआईजी को दखल देना पड़ता है और वह गंभीर स्वर में कहता है ‘पुलिस का काम है न्याय करना’। अब अगर पुलिस का काम न्याय करना है तो न्यायपालिका क्या करती है?

तीन पटकथा लेखक होने के बावजूद फिल्म में इस तरह के संवाद हैं (इससे पहले अगर फिल्म में तीन संवाद लेखक होते थे तो ‘मुगल-ए-आजम’ जैसी क्लासिक फिल्में बनती थीं)। इस फिल्म के संवादों में ‘स्वच्छता अभियान’ और ‘विकास’ का भी जिक्र है (यह संवाद शायद सरकार को खुश करने के लिए फिल्म में डाले गए हैं)।

फिल्म के कथानक में हॉलीवुड के थ्रिलर्स और एक दक्षिण भारतीय फिल्म के कथानक की भी झलक है। एक अपराध हुआ है, पीड़िता बार-बार यह कह रही है, लेकिन सबूत ठीक इसके उलट हैं। इसमें एक लव स्टोरी जोड़ दी जाती तो एक फिल्म एक दिलचस्प ड्रामा बन सकती थी, लेकिन बदकिस्मती से फिल्म में ऐसा नहीं है। हालांकि, फिल्म की रफ्तार जब भी धीमी पड़ने लगती है तो दीपक डोबरियाल, रणदीप हूडा और मनोज बाजपेयी के किरदार इसमें मसाला मारने की कोशिश करते हैं। रणदीप हूडा अपने छोटे से किरदार एलएसडी में बहुत प्रभावित करते हैं। मनोज बाजपेयी भी निराश नहीं करते।

फिल्म के लगभग हर फ्रेम में टाइगर हैं और जब वे परदे पर होते हैं तो सिर्फ उनका मजबूत शरीर और एक्शन देखने की ही उम्मीद की जाती है। अब तक वे कई फिल्में कर चुके हैं, इसलिए अब वक्त है कि वे भी कुछ अदाकारी सीख लें और अपने भाव-विहीन चेहरे पर कुछ भाव लाने की कोशिश करें। टाइगर श्रॉफ को अपने अदाकारी में वाकई बहुत मेहनत करने की जरुरत है।

अपनी बच्ची की तलाश में बदहवास मां के रोल में दिशा पाटनी निराश नहीं करतीं। लेकिन यह अफसोसजनक है कि आजकल के अदाकार उर्दू के लफ़्ज़ों में नुक्ते का उच्चारण नहीं कर पाते। वैसे भी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अब उर्दू की जगह अंग्रेजी ने हथिया ली है। चूंकि हिंदी पर उर्दू के असर को नज़र अंदाज़ करना मुमकिन नहीं है, इसलिए हिंदी के अदाकारों से उम्मीद की जाती है कि वे कम से कम शब्दों का उच्चारण तो ठीक से करें।

आप कह सकते हैं कि फिल्म के एक्शन सीन अच्छे हैं। लेकिन टाइगर श्रॉफ को ऐसा बेमतलब एक्शन इतनी गंभीरता से करते हुए देख कर मेरे जेहन में यही सवाल कौंधता रहा कि क्या डायरेक्टर अहमद खान को इस पर पर इतना भरोसा है या फिर वे टाइगर श्रॉफ की प्रभावशाली देह पर इतने मुग्ध हो गए कि एक्शन उन्हें बेमतलब नहीं लगा?

फिल्म में जैकलिन फर्नांडीज का आइटम नंबर ‘एक, दो, तीन...’ भी है। इस डांस पर जो भी विवाद हुआ उसे दरकिनार करके देखें तो भी जैकलिन ने बहुत खराब डांस किया है, यह बात इसलिए भी चुभती है कि इस गाने पर माधुरी दीक्षित ने बेहतरीन डांस किया था।

लेकिन इस सबके बावजूद यह मानना पड़ेगा कि टाइगर युवा पीढ़ी में काफी लोकप्रिय हैं। फिल्म की धीमी गति से ऊबे हुए दर्शक भी टाइगर के लिए तालियां बजा रहे थे। इसलिए यह भी जरुरी हो जाता है कि वे एक्टिंग सीख लें ताकि अपनी लोकप्रियता को बढ़ा सकें और बरकरार रख सकें।

आज के दौर में जब हिंदी सिनेमा में तमाम विषयों को लेकर दिलचस्प प्रयोग हो रहे हैं, यह फिल्म एक कमर्शियल थ्रिलर के तौर पर भी निराश ही करती है।

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