एक साथ आगे बढ़ते गहरे विभाजन और मजबूत संबंध की कहानी है फिल्म ‘शंकर्स फेरीज’

यह फिल्म मजूमदार की मां नीता कुमार की बचपन की स्मृतियों पर आधारित है। इतिहास और एन्थ्रोपोलोजी की प्रोफेसर नीता कुमार इस फिल्म की निर्माता भी हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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नम्रता जोशी

बच्चे की मासूम निगाहें कई बार किसी बात को शब्दों से बेहतर कह सकती हैं। फिल्मकार और रंगमंच निर्देशक इरफाना मजूमदार की सरल-सहज लेकिन जबरदस्त फिल्म ‘शंकर्स फेरीज’ उन बहुत सारी जटिलताओं और अस्पष्टताओं के बारे में बात करती है जो व्यक्तिगत रूप से हमसे संबंधित हैं और हमारे परिवारों, रिश्तों और साथही-साथ समाज में बहुत गहरे तक फैली हुई हैं। फिल्म में इन्हें हम एक नौ वर्षीय प्रमुख पात्र की नजरों से देखते हैं। ‘शंकर्स फेरीज’ इरफाना मजूमदार की पहली फिल्म है।

मजूमदार अपने कैमरे के जरिये हमारी दुनिया के उन आंतरिक विभाजनों को सामने लाती है जो मर्यादा और शालीनता की आड़ में में छिपी रहती हैं और अक्सर आदेश, तरीके और पदानुक्रम के साथ हमारी अन्यमनस्कता बन जाती हैं। जाति, वर्ग और धर्म के विभाजन एक चुस्त धागे से आपस में बंधे हुए हैं; एक नाजुक कपड़ा जिसके फटने का खतरा तो है, फिर भी वह यथावत अपनी जगह पर बना हुआ है। हमारे 74 वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर ये बातें विचारणीय हैं। इस फिल्म का वर्ल्ड प्रीमियर लोकार्नो फिल्म फेस्टिवल में 13 अगस्त को हुआ।

यह फिल्म मजूमदार की मां नीता कुमार की बचपन की स्मृतियों पर आधारित है। इतिहास और एन्थ्रोपोलोजी की प्रोफेसर नीता कुमार इस फिल्म की निर्माता भी हैं। यह फिल्म हमें 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय में लखनऊ में ले जाती है। जब नेहरू के नेतृत्व में राष्ट्र एकजुट होकर दुश्मन से लड़ रहा था तो एक विभाजित घर भी उसके भीतर से झांक रहा था। फिल्म का विषय मुख्य रूप से वर्गीय संबंध है। फिल्म में ये वर्गीय संबंध लखनऊ में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की नौ वर्षीय बेटी के अपने डोमेस्टिक हेल्प शंकर के साथ रिश्ते के जरिये सामने आते हैं। क्या यह थोड़ा-बहुत ‘1942 अर्थ’ फिल्म में लेनी का अपनी नैनी शांता के साथ रिश्ते की तरह है? हालांकि, मेरे लिए यह काबुलीवाला रहमत का मिनी के लिए स्नेह की याद दिलाता है। रबिंद्रनाथ टैगोर की लघुकथा ‘काबुलीवाला’ में रहमत मिनी को देखकर अफगानिस्तान में अपने बेटी के लिए तरसता है और उसके बारे में सोचता रहता है।


लेकिन भावनाओं और स्नेह से ज्यादा यहां संबंध असमानताओं, भेदभावों और शोषण के बारे में हैं जो बच्ची के सामने धीरे-धीरे खुलते हैं, यहां तक कि शंकर के साथ उसका अपना जुड़ाव सभी विभाजनों को पार कर जाता है। मजूमदार पूरा माहौल फिल्म की शुरुआत में ही बना देती हैं। जैसे ही फिल्म शुरू होती है तो हम देखते हैं कि एक तथाकथित डाकू पुलिस मुठभेड़ में मारा जाता है। पुलिसवाला पूरी दृढ़ता के साथ कहता है कि पुलिस को दंड देना ही पड़ता है- वह चाहे शारीरिक दंड हो या फिर मृत्युदंड। वह कहता है कि किसी भी व्यवस्था में सभी लोग बराबर नहीं हो सकते।

पाखंड आगे और भी तीक्ष्ण रूप में उभरकर सामने आता है। एक पुलिस अधिकारी अपने मातहतों को शिया और सुन्नी के बीच अनावश्यक विभाजन के ऊपर भाषण सुना तो सकता है लेकिन बहुत ही विनम्र निर्ममता के साथ अपने स्टाफ के एक सदस्य के परिवार में होने वाले शादी के समारोह में इसलिए नहीं जाने का फैसला करता है क्योंकि वह उसके समान वर्ग का नहीं है: “नौकर के घर कोई जाता है क्या?”

यह दोमुंही शालीनता का एक चेहरा है जो रूखा और साथ-ही-साथ निष्ठुरता से इतना भरा हुआ है कि पूरे क्षण को हमारे सामने बहुत सघनता से रख देता है। इसी तरह से उसकी पत्नी इस बात के सख्त खिलाफ है कि शंकर उसकी बीमार बेटी को कभी भी देखने आए। वह अंततः इसकी अनुमति तो दे देती हैं लेकिन साथ ही बहुत सारी शर्तें जोड़ देती है। ये सारे वाकये फिल्म में इतने चुपचाप होते हैं कि अंततः हमें और भी ज्यादा भयावहता का एहसास कराते हैं और देखने पर इनकी जो शालीनता प्रतीत होती है वह हम पर और भी जोरदार प्रहार करती है। यह सौम्य अत्याचार का एक शक्तिशाली चित्र है।

मजूमदार का फिल्म निर्माण किसी तरह की नाटकीय ऊंचाइयों और शैली-संबंधी उत्कर्ष के बारे में नहीं है। यह फिल्म दर्शकों को जिंदगी का एक छोटा-सा टुकड़ा पेश करती है जो आपस में गूंथे हुए रोजमर्रा के छोटे-छोटे क्षणों से सजा है। ऐसे क्षण जो अपने आप में शायद नजर में न आएं लेकिन जब वे एक साथ होते हैं तो वे अपने आप में गहरी सच्चाई और अर्थ समेटे हुए होते हैं। मजूमदार चीजों को एकदम उघाड़ कर नहीं रखती हैं। उनकी अप्रोच अवलोकनात्मक है, वह चाहे दूर से पात्रों का देखना हो या फिर उनके करीब जाना हो। यह एक ऐसी फिल्म है जो लोगों को जितना एक व्यापक पटल पर रखती है, उतना ही उन्हें निकट से भी आंकती है।


छोटी-छोटी चीजें गहरा अर्थ समेटे हुए होती हैं। बच्ची देखती है कि जब सभी लोग खाना खा चुके होते हैं तो शंकर किचन में नितांत अकेले खाना खाता है। यह बात उसे अचानक दुनिया में मौजूद अन्याय के प्रति जागरूक करती है। शंकर सारा दिन एक बहुत बड़े घर में लहराता रहता है। वह हर समय काम में व्यस्त रहता है- चाहे वह सारे स्टाफ को दिशा-निर्देश दे रहा हो, खाना पका रहा हो, चादरें बदल रहा हो, चीनी मिट्टी के बर्तनों को साफ कर रहो हो या फिर स्वयं भोजन के लिए मेज सजा रहा हो। और ठीक इसके विपरीत वह जहां रहता है वह एक छोटी सी कोठरी है। ये जो तय जगहें हैं ये हमारे विभाजन की पुनःस्थापना करते हैं।

इन असमानताओं के परे फिल्म प्रॉक्सी पैरेन्टिंग के बारे में भी है। इसमें मां का किरदार ऐसी महिला का है जिसके पास अपने ऐशो-आराम के लिए इतना समय है कि वह प्यानो बजाती है, चित्रकारी करती है और पार्टियां देती है। जबकि शंकर बच्ची के लिए एक तरह से गार्जियन बन जाता है। वह उसे परियों, चुड़ैलों, साधुओं, भगवान और जिन्नों की कहानियां सुनाता है जो बच्ची की कल्पनाशक्ति को पोषित करते हैं। ये कहानियां जितनी काल्पनिक होती हैं, उतनी ही सच्ची भी होती हैं। शंकर बच्ची के लिए वह निर्माणात्मक प्रभाव और दार्शनिक तथा गाइड बन जाता है जिसके माध्यम से बच्ची दुनिया के बारे जानती है। वह शंकर से पूछती है, “कायस्थ कौन होते हैं और बामन कौन होते हैं?” इस फिल्म में जो धार्मिक विभाजन हैं, उनको एक कहानी के जरिये बताया गया है जहां कुछ धार्मिक लोग इस बात पर लड़ रहे थे कि कौन-सा भगवान बड़ा है। समाज में लोगों का स्थान बताने के लिए फूल को एक रूपक के रूप में इस्तेमाल किया गया है – कुछ फूल पूजा में भगवान को चढ़ाए जाते हैं, कुछ फूलदान में सजाए जाते हैं और कुछ का गुलदस्ता बनाकर अध्यापक को दिया जाता है – हर फूल का अपना धर्म (ड्यूटी) है और तय जगह है।


‘शंकर्स फेरीज’ का अधिकांश भाग राष्ट्र के जीवन के बारे में है। यह हमें बाध्य करती है कि हम कुछ क्षण थम जाएं और चिंतन करें कि आजादी के बाद हम कितनी दूर आ गए हैं। ये विभाजन हमारे भीतर कितने और गहरे हो गए हैं और असमानताएं कितनी और निर्मम हो गई हैं। हम आजाद तो शायद हो गए हैं लेकिन वास्तव में हम अपने आपको मुक्त कर पाए हैं क्या? या फिर हमने अपने को और भी अधिक जंजीरों में जकड़ लिया है? मजूमदार की यह फिल्म जितनी छोटी बच्ची के बड़े होने तक की कहानी है, उतनी है यह “भारत के हृदय में हमारी व्यक्तिगत यात्रा है।”

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