सिनेमा के जुनून की कहानी, डॉक्युमेन्ट्री फिल्म ‘टेक मी टु द सिनेमा’

सऊदी अरब के जेद्दा में आयोजित रेड सी इंटरनेशनल फिल्म समारोह में कुछ बहुत ही खूबसूरत फिल्मों की झलकियां और साथ ही लोगों में सिनेमा को देखने और महसूस करने के लिए उत्सुकता देखने को मिली। अल बकर जफर की डॉक्युमेन्ट्री फिल्म ‘टेक मी टु द सिनेमा’ दिल को द्रवित करने वाला एक यात्रा-वृत्तांत है।

फोटो: सोशल मीडिया
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नम्रता जोशी

यूद्ध में चूर किसी सैनिक में एक सिनेमा प्रेमी की भावना को ढूंढना काफी अजीब है। और अल बकर जफर की डॉक्युमेन्ट्री फिल्म ‘टेक मी टु द सिनेमा’ को देखते हुए मुझे ठीक ऐसा ही महसूस हुआ। इस डॉक्युमेन्ट्री फिल्म को रेड सी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में अरब स्पेकटेक्युलर सेक्शन में दिखाया गया। इसका नायक एक पूर्व इराकी सैनिक नसीफ है। इस डॉक्युमेन्ट्री में सामान्य रूप से नसीफ के जुननू की चलती-फिरती छवियां एवं ह़ॉलीवुड की फिल्म ‘पैपिलोन’ (1973) और विशेषकर उसके सितारे स्टीव मैक्वीन की छवियों को आसानी से आपस में जोड़ा जा सकता है। लेकिन इस डॉक्युमेन्ट्री में केवल एक फिल्म का मुरीद होने के अलावा और भी बहुत कुछ अनुभव करने के लिए है। मनोरंजन, कला और सौंदर्यशास्त्र के एक महत्वपूर्ण माध्यम के लिए यह एक शोक गीत की तरह है जो युद्धों के दौरान खंडहरों को हमारे सामने लाकर खड़ा कर देता है। यह एक ऐसी स्थिति है जो हिंसा और संघर्ष में फंसे कश्मीर और उन अन्य स्थानों, जैसे कि बगदाद के ‘टेक मी टु द सिनेमा’, के समान है जहां कभी पहले सिनेमा घर हुआ करते थे लेकिन अब वे गायब हो चुके हैं।

‘पैपिलोन’ की मार्गदर्शक शक्ति के साथ यह डॉक्युमेन्ट्री फिल्म दिल को द्रवित करने वाला यात्रा-वृत्तांत है। जब नसीफ एक फिल्म की खो चुकी कॉपी की तलाश में निकलता है, तो यह डॉक्युमेन्ट्री फिल्म हमें बगदाद की यात्रा पर ले जाती है। इस प्रक्रिया में वह हमें अब तक न देखे गए बगदाद को हमारे सामने जीवंत कर देता है जहां गैंड सिनेमा जैसे थियेटर खंडहर में तब्दील हो चुके हैं जो हमें अतीत में सिनेमा के वैभव की हौले से याद दिलाते हैं। एक अतीत जिसे स्वयं नसीफ ने साक्षात जिया है। एक ऐसा व्यक्ति जो तेजी से बदलते समकालीन परिदृश्य में सहज नहीं हो पाता है। वह वही इंसान है जो युद्ध और सिनेमा के विपरीत किनारों को एक साथ लाया है। यह इतना सहज भी नहीं था। नसीफ सिनेमा में शरण लेने के लिए अनिवार्य सैन्य सेवा से भाग जाता है और वह इस दुस्साहसी कार्य का वर्णन एक फिल्मी साहसिक यात्रा की तरह करता है। लेकिन सिनेमा स्ट्रीट जो कभी नफीस का घर और ठिकाना हुआ करता था, अब भीड़भाड़ और हलचल भरा बाजार है जहां सेना की वर्दियां और अन्य सामान बेचे जाते हैं। नफीस कहता है, “हमारे जैसे खूबसूरत देश के साथ ऐसा कैसे हो सकता है। हम बर्बाद हो गए हैं।” उसकी आंखों में उस दिन की उम्मीद करते हुए जब “बकर और नसीफ का सिनेमा” इराक के जीवन में फिल्मों को वापस ले आएगा, दर्द साफ दिखता है।


जहां ‘टेक मी टु द सिनेमा’ आपको एक गहरे अहसास के साथ छोड़ देता है, वहीं पनाह पनाही की पहली फीचर फिल्म ‘हिट द रोड’ स्क्रीन पर प्रतीत होने वाली अराजकता के भीतर अपनी कलात्मक सूक्ष्मता के साथ आपको चकाचौंध कर देती है। एक बेकार परिवार की उधार की गाड़ी में की गई यात्रा एक ऐसा रहस्य है जो पूरी तरह से सुलझाया नहीं गया है। मोबाइल दफन किए जाते हैं और छुपाए जाते हैं, दर्शकों को ऐसे संकेत दिए जाते हैं कि कोई उनका पीछा कर रहा है, छोटे बेटे को बड़े बेटे के भाग जाने के बारे में बताया जाता है, बैटमैन का आह्वान किया जाता है और उबड़-खाबड़ परिदृश्य में खुले आसमान में तारे दिखते हैं। दर्शक एक यात्रा पर निकल पड़ते हैं और यह सब वे करीब-करीब स्वयं भी उनके साथ-साथ अनुभव करने लगते हैं। बिना किसी खासियत को बताए आप जानते हैं कि यह यात्रा एकाधिकारवाद से भागने की यात्रा है और इसकी कीमत चुकाई जाती है– घर और कार, दोनों ही चले जाते हैं लेकिन इससे उस हास्य की मृत्यु नहीं होती जो आत्मचिंतन से निकलता है और परिवार को बांधे रहता है। पिता (हसन मदजूनी) अपने जख्मी पैर के बारे में कहते हैं, “ मैं गिर गया... अपने सम्मान से।” और आप कुछ नहीं कर सकते लेकिन ठहाके लगा सकते हैं।

इस पागल-से परिवार का हर सदस्य बड़े प्यार से व्यक्तिगत हो जाता है, चाहे मूक बड़ा बेटा हो या फिर वह पिता हो जो अपने टूटे पैर के प्लास्टर में फोन छिपा देता है या वह मां (पन्तिया पनाहिहा) हो जो अपने बड़े बेटे की उन तस्वीरों को सहेज कर रखती है जिनमें वह अपने बालपन में बिस्तरे में पेशाब कर रहा होता है। हर क्लोज-अप एक चेहरा नहीं बल्कि एक पूरा व्यक्तित्व दिखाता है और यह केवल मानव सदस्यों के बारे में ही नहीं है बल्कि बीमार कुत्ता भी अपना एक व्यक्तित्व झलकाता है। सबसे अराजक ऊर्जा छोटे बेटे में अतिसक्रिय होती है जिसका किरदार रायन सरलाक ने बहुत ही आश्चर्यजनक रूप से निभाया है। वह बड़ी सहजता से स्वयं को ही सामने रख देते हैं और वह बंदूक की उस गोली जैसे प्रतीत होते हैं जो अचानक ही कहीं से आती है और सीधा आपके दिल में उतर जाती है। और ठीक ऐसे ही इसका फिनाले भी बहुत हास्यास्पद होने के साथ-साथ बेहद गहनता के साथ दुख से भरा भी होता है।


ईरान के उस्ताद कलाकार जफर पनाही के बेटे पनाही हमसे एक ऐसी सिनेमाई भाषा के साथ मुखातिब होते हैं जो विशिष्ट रूप से उनकी खुद की है; जिसकी जड़ें ईरानी फिल्मों में ही हैं लेकिन फिर भी यह पिछले कुछ वर्षों में देखे जाने वाले सिनेमा से हटकर है।

'हिट द रोड’ में पनाहिहा ने मां की जो भूमिका निभाई है, वह उन सबसे हटकर है जो हमें जेद्दा में पहली बार आयोजित फिल्म समारोह में देखने को मिली। मैगी गिलेनहाल की फिल्म ‘द लॉस्ट डॉटर’ में ओलिविया कोलमैन द्वारा निभाया गया किरदार भी अपने आप में विशिष्ट है। इस फिल्म में कोलमैन ने अंग्रेजी प्रोफेसर लिडा का किरदार निभाया है जो समुद्र कि नारे छुट्टिय़ां बिताने आती है और वहां उसकी मुलाकात एक युवा मां (डकोटा जॉनसन) से होती है जिसकी बेटी गायब हो जाती है। एलेना फेरेंट के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म में इच्छा, आत्मतृप्ति, विकल्प, धोखे, पछतावे, ग्लानि और सुलह के भाव आपस में मिलकर भावनाओं का जबरदस्त कॉकटेल बनाते हैं।

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