मनोरंजन जगत ने सिखाया- परिवार वहीं है जहां प्यार है

मलयालम फिल्म ‘भूतकालम’ मां-बेटे के बीच असहज होते रिश्तों की कहानी है जो लगभग हर मध्यवर्गीय परिवार की त्रासदी के आसपास लगती है जहां आत्मकेन्द्रित जीवन जी रहे रिश्तों का विघटन है।

फोटो: सोशल मीडिया
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नम्रता जोशी

पाब्लो लैरेन की फिल्म ‘स्न्सर’ पे में क्रिस्टीन स्टीवर्ट अगर डायना की मुख्य भूमिका इतने प्रभावशाली तरीके से निभा पाई हैं तो यह उनकी अभिनय क्षमता के साथ निर्देशक की अद्भुत कल्पनाशीलता का भी नतीजा है। बुक माय शो स्ट्रीम पर इसे देखते हुए प्रिंसेस ऑफ़ वेल्स डायना के जहन के इतने शेड्स इतनी कलात्मकता और नज़ाकत के साथ सामने आते हैं कि दर्शक इसमें डूब कर रह जाता है। क्रिस्टीन स्टीवर्ट अगर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के ऑस्कर की दौड़ में सबसे आगे दिखती हैं तो यह महज उनकी गर्दन हिलाने की नाजुक अदा या आंखों से निकले के उन अद्भुत अहसासों के लिए नहीं है जिसे वह बड़ी संजीदगी से व्यक्त करती हैं बल्कि इससे आगे बहुत कुछ है। यहां वह अहसास है जो क्रिसमस की छुट्टियां मनाने जा रही डायना के तमाम मूड्स को पकड़ता है। उसके मन में चल रहा छोटा से छोटा ब्योरा, देर से आने की आदत, मन में चल रही नफरत, परंपराओं का खंडन, मीडिया की चकाचौंध से छुपना- खेलना, आंतरिक क्षणों में भी कुछ अलग तरह से सोचना, स्टाफ के चंद लोगों खासकर ड्रेसर मैग्गी के अलावा किसी पर भरोसा न करना- ऐसे लमहे हैं जिन्हें बारीकी से पकड़ना आसान नहीं था। स्टीवर्ट इसे बहुत बेहतरीन तरीके से पर्दे पर उतार पाई हैं और यही उन्हें तमाम अभिनेत्रियों से अलग करता है। इसमें वेल्स की राजकुमारी बनने के एक दशक बाद भी पीछा करती अफवाहें हैं जो प्रिंस से डायना के अवसाद का बड़ा कारण थे। हालांकि जो बात सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है, वह है इस उलझी हुई कथा में परिवारों के बीच फंसी एक महिला के अंतरद्वंद्व की कहानी। एक वह परिवार है जिसमें वह पैदा हुई और जिसके प्रति अपनापा महससू करती है लेकिन उसे इसे छोड़ना पड़ता है। और दूसरा वह परिवार जहां उसकी शादी होती है और उसे अपनाना पड़ता है लेकिन फिर भी जहां वह खुद को अलग-थलग महससू करती है। यह किसी आम महिला के जीवन का द्वंद्व भी है जो यहा बखूबी उभरा है।

डायना अपने बचपन और युवावस्था की यादों से बाहर नहीं निकल पाती। उन छोटी-छोटी यादों में डूब जाना चाहती है। उनके लिए तरसती है। उसकी यादों में बिजूका की तरह अपने पिता का कोट पहनने से लेकर बचपन का घर है तो वह पार्क हाउस भी उसकी स्मृतियों से ओझल नहीं हो सका है जिसमें रॉयल गार्ड की सख्त पहरेदारी ने उसे कभी प्रवेश नहीं लेने दिया।

फिल्म बॉक्सिंग के उस इवेंट के साथ समाप्त होती है जब डायना बंधन बन चुके अपने मोतियों का हार तोड़ देती है और अपने बच्चों- विलियम और हेनरी के साथ निकल पड़ती है शाही शानो शौकत के तमझाम से दूर एक सामान्य जीवन जीने की चाहत में। एक ऐसा जीवन जहां फास्ट फूड के साथ लांग ड्राइव है और मन में चलता वह गाना- ‘मुझे बस एक चमत्कार की चाहत है। मुझे बस आपकी जरूरत है।’


संयोग से इस सप्ताह ऐसी कई फिल्मों और वेब सीरिज से गुजरना हुआ जो परिवार और ऐसे ही अहसासों के इर्दगिर्द चलती हैं। नेटफ्लिक्स पर स्टेफनी लैंड्स की ‘मेड: हार्ड वर्क, लो पे एंड ए मदर्स विल टु सर्वाइव’ से प्रेरित वेब सीरीज ‘मेड’ माओं और बेटियों के ऐसे ही संघर्षों की दास्तान है। तीन साल की बेटी के साथ एक सिंगल मदर के अंतहीन संघर्षों पर केन्द्रित यह कहानी कई अपमानजनक मोड़ लेती हुई वहां जाकर विराम लेती है जिसका शिकार सबसे ज्यादा महिलाओं को होना पड़ता है और भारी कीमत चुकानी पड़ती है। फिल्म में सरोगेसी का मुद्दा बड़े संवेदनशील तरीके से सामने आता है। जहां एक की कोख है, दसूरे के शुक्राणु और तीसरे का पैसा।

सोनी लिव पर राहुल सदाशिवन की मलयालम फिल्म ‘भूतकालम’ भी इसी जमीन पर है। एक मां-बेटे (रेवथी और शेन निगम) के बीच असहज होते रिश्तों की यह कहानी लगभग हर मध्यवर्गीय परिवार की त्रासदी के आसपास लगती है जहां आत्मकेन्द्रित जीवन जी रहे रिश्तों का विघटन है और है कर्ज, वित्तीय अस्थिरता, मानसिक स्वास्थ्य, शराबनोशी और बेरोजगारी की मार आगे टूटते जाने का दंश। यहां पत्रु की शिकायत है कि- ‘मेरे परिवार में तो हमेशा समस्या ही रहती है’ जबकि मां उस दुविधा को जी रही है जहां चिकित्सक ने उसे ज्यादा सोचकर खुद को नुकसान न पहुंचाने की सलाह दे रखी है। यहां वह विडंबना खुलकर सामने आती है जहां एक छोटेसे परिवार में भी सब अपने-अपने तरीके से जीते और असुरक्षा बोध के शिकार बनते हैं। हालांकि कई मोड़ों से गुजरकर कहानी लौटती है बताती है कि ‘घर भले ही पीछे छूट गया हो, परिवार फिर से एक हो जाता है’।

जैरेड बुश और बायरन हॉवर्डस का सांगीतिक एनिमेशन ‘एनकैटो’ (हॉटस्टार) पारिवारिक मूल्यों में फिर से झांकने और इनके पुनर्मूल्यांकन की ईमानदार कोशिश है। कोलंबियाई मैड्रिगल परिवार के सामने अपने उन चमत्कारिक बहुमूल्य उपहारों को खो देने का खतरा उत्पन्न हो गया है जो उन्होंने एनकैंटो समुदाय को संकट से उबारने के लिए मदद स्वरूप दिए थे। व्यक्तिगत जिम्मेदारी, नैतिकता, परस्पर समझदारी, एकजुटता और सामूहिकता की भावना के अर्थ खोलती यह फिल्म अपने विषय का इससे बेहतर निर्वाह नहीं कर सकती थी।


हालांकि नेटफ्लिक्स पर स्वीडिश श्रृंखला ‘ऐंक्सश पीपुल’ परिवार की धारणा को एकदम नए तरीके से परिभाषित करती है और बिलकुल नया प्रतिमान सामने आता है। कहानी कुछ यूं है कि बैंक लूट की एक साजिश नाकाम हो जाती है लेकिन लुटेरा एक ऐसे समूह को बंधक बना लेता है जो अपनी पसंद का फ्लैट देखने आए हैं जिसे वे खरीदना चाहते हैं। पुलिस की एक टीम जो इस मामले को देखती है, उसमें भी एक पिता-पत्रु हैं। फ्रेड्रिक बैकमैन की इसी नाम की किताब पर आधारित यह कहानी आगाथा क्रिस्टी की ‘मर्डर ऑन द ओरिएंट एक्सप्रेस’ की याद दिला देती है जहां हर व्यक्ति परेशान है, सारे रिश्ते मृत हैं या फिर खराब हो चुके हैं या खतरे में हैं। रिश्ते और भी उलझे हुए हैं। कई मोड़ों से गुजरती यह सिरीज परस्पर देखभाल, चिंता और सहानुभूति की जरूरत को रेखांकित करते हुए खत्म होती है। यह जीने के लिए एकजुटता और सामदुायिक भावना के महत्व को रेखांकित करती है। उस अंतर को रेखांकित करती है कि जरूरी नहीं कि परिवार वही हों, जहां आप जन्म लेते हैं या विरासत में मिले हों बल्कि वे भी परिवार हैं जिन्हें आप जीवन में आगे बढ़ने के लिए साथ-साथ बनते और पोषित करते हैं। परिवार जैविक नहीं होते। वे भावना की जमीन पर खड़े होते हैं।

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