'राईटिंग विद फायर' से फिर जगी ऑस्कर में भारत की उम्मीद, तीन निडर पत्रकारों पर बनी डाक्यूमेंट्री रच सकती है इतिहास

अंतरराष्ट्रीय फीचर श्रेणी में ‘फ्ली’ के बारे में सिर्फ यह कहना सही नहीं होगा कि यह रूस-यूक्रेन युद्ध के दौर में शरणार्थी संकट को ताजा करती है बल्कि यह बेड़ियां तोड़ने, अपने भीतर तलाश करने, अपनी असली पहचान और उसके साथ खुशी और शांति पाने के बारे में भी है।

फोटोः सोशल मीडिया
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नम्रता जोशी

28 मार्च की सुबह जब अकादमी अवार्ड की घोषणा हो रही होगी, शायद हम सबकी नजरें रिंटू थामस और सुश्मित घोष की डाक्यूमेंट्री 'राईटिंग विद फायर’ पर लगी होंगी। जहन में सवाल या इच्छा का उठना स्वाभाविक है कि क्या बुंदेलखंड जैसे पिछड़े इलाके की आवाज बन गए एक बेबाक अखबार ‘खबर लहरिया’ के तीन निडर पत्रकारों पर बनी यह फिल्म ऑस्कर हमारे घर ला पाएगी। अपनी श्रेणी में भारत से यह इस तरह का पहला नामांकन है। अगर ऐसा होता है तो दुनिया भर में पत्रकारिता की प्रासंगिकता और परख के इस दौर में यह उपलब्धि मिलने का इससे बेहतर समय नहीं हो सकता है।

हालांकि इसकी टक्कर स्टैनली नेल्सन की डाक्यूमेंट्री ‘एटिका’ से है जो सितंबर, 1971 में न्यूयार्क के जेल विद्रोह के इर्दगिर्द बुनी गई है। मुकाबले में अमेरिका की अहमिर ‘कवेस्तलाव’ थोम्पसन की ‘समर ऑफ सोल’ (या जब क्रांति का टेलीविजन प्रसारण नहीं हो सका) की भी मजबूत दावेदारी है। यह 1969 के हार्लेम सांस्कृतिक महोत्सव पर केन्द्रित है। हालांकि इसी श्रेणी में इंडिया कनेक्ट के साथ वाली जोनास पोहर रासमुसेन की एनिमेटेड डाक्यूमेंट्री ‘फ्ली’ की भी चर्चा जरूरी है जिसके केन्द्र में समलैंगिक अमीन नवाबी है जिसे अफगानिस्तान से भागकर डेनमार्क में शरण लेनी पड़ी है। फिल्म के एक शुरुआती दृश्य में काबुल की दो लड़कियों को बॉलीवुड स्टार विवेक मुशरान और अनिल कपूर के फोटो वाले ताश खेलते हुए दिखाया गया है।


अंतरराष्ट्रीय फीचर श्रेणी में ‘द दानिश’ अंतिम पांच में से है जो अपनी विषयगत खासियत के साथ बहुत मजबूती से अपनी दावेदारी पेश कर रही है। इसकी सीधी टक्कर ‘फ्ली’ के साथ है जिसके बारे में सिर्फ यह कहना उचित नहीं होगा कि यह रूस-यूक्रेन युद्ध के दौर में सामने आए शरणार्थी संकट को ताजा कर देती है बल्कि यह बेड़ियां तोड़ने, अपने भीतर की तलाश करने, अपनी असली पहचान और उसके साथ खुशी और शांति पाने के बारे में भी है।

अपने अंतस की तलाश का यह रूपक ही है जो बाकी चार नामांकनों को भी कहीं-न-कहीं एक सूत्र में बांधता है। भूटान से पहली बार ऑस्कर नॉमिनी ‘लुआना: ए याक इन द क्लासरूम’ की टैगलाइन है ‘जो आप चाहते हैं उसे खोजें, ऐसी जगह जिसकी आपने कभी उम्मीद नहीं की थी।’ यह एक युवा शिक्षक की कहानी है जिसे पढ़ने के लिए सरकार ने दूरदराज के इलाके में भेज दिया है।

जोआचिम ट्रायर की नार्वेजियन फिल्म ‘द फर्स्ट पर्सन इन द वर्ल्ड’ में भी ऐसी ही एक बेचैन नायिका जूली (रेनेट रीन्सवे) है जिसे हम फिल्म में खुद पर और फिल्म के 12 अलग-अलग अध्यायों पर नियंत्रण पाने या दोनों के बीच तालमेल बनाने की कोशिश करते हुए पाते हैं जहां उसे कई स्तरों पर लड़ना या कह लें, खुद को तलाशना पड़ रहा है। उसकी यह लड़ाई घर के बाहर से तो है ही, अंदर से भी कम नहीं है। यह अपने नुकसान और दु:ख से निपटने के लिए सीखने के साथ ही जीवित रहने के बारे में भी है।

इतालवी प्रविष्टि पाओलो सोरेंटीनो की ‘द हैंड ऑफ गॉड’ के बारे में कहा जा रहा है कि यह फिल्म निर्माता की नेपल्स के दिनों की युवावस्था का आत्मकथात्मक ब्योरा है। यह एक ऐसे मस्तमौला इंसान फैबित्तो (फिलिपो स्कॉटी) की कहानी है जो संगीत और माराडोना के बीच जुनून की हद तक उलझा हुआ है और समझ ही नहीं पा रहा कि आखिर उसके जिंदा रहने का मकसद क्या है। वक्त के साथ हालात कुछ इस तरह बदलते हैं कि उसे भी पता नहीं चलता कि कब क्या हो गया।


हारूकी मुराकामी की कहानियों में से एक छोटी सी कहानी ‘मेन विदाउट वूमन’ पर आधारित जापानी फिल्म ‘ड्राइव माई कार’ उन लोगों की बात करती है जो न सिर्फ अपने होने की हकीकत के स्वीकार और अस्वीकार के बीच उलझे हैं बल्कि उन रिश्तों के साथ भी तालमेल बनाने को अभिशप्त हैं जिन्होंने इनके जीवन को मुश्किल बना दिया है। फिल्म थोड़ी लंबी जरूर है लेकिन जीवन और उसके अर्थ को रेशा-रेशा खोलती है।

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