'एक क्षेत्र में 12 जीवित लोगों को मृत दिखाया गया', बिहार SIR पर कपिल सिब्बल की सुप्रीम कोर्ट दलील

कपिल सिब्बल ने कहा कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम स्पष्ट कहता है कि मतदाता सूची से किसी का नाम हटाने के लिए सबूत देने का दायित्व उसी व्यक्ति पर है जो आपत्ति उठा रहा है।

बिहार एसआईआर पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
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नवजीवन डेस्क

उच्चतम न्यायालय ने बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के निर्वाचन आयोग के फैसले को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर मंगलवार को सुनवाई शुरू की।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जे. बागची की पीठ ने राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) नेता मनोज झा की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल को सुना जिन्होंने दलील दी कि एक निर्वाचन क्षेत्र में आयोग ने 12 लोगों के मृत होने का दावा किया है जबकि वे जीवित पाए गए हैं, वहीं एक अन्य घटना में भी जीवित व्यक्ति को मृत घोषित कर दिया गया है।

कपिल सिब्बल ने कहा कि मृतक को जीवित दिखाने की जानकारी चुनाव आयोग को दी गई थी, पत्नी ने बताया और इसका वीडियो भी है। उन्होंने तर्क दिया कि मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण में नियमों के अनुसार सूची दोबारा तैयार होनी चाहिए, लेकिन मसौदा जारी करने से पहले न तो फॉर्म 4 घर-घर भेजा गया, न दस्तावेज लिए गए। इससे नियम 10 और नियम 12 का उल्लंघन हुआ। उन्होंने यह भी कहा कि नियम 13 के तहत दी गई आपत्तियों में भी खामियां हैं।

कपिल सिब्बल ने कहा कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम स्पष्ट कहता है कि मतदाता सूची से किसी का नाम हटाने के लिए सबूत देने का दायित्व उसी व्यक्ति पर है जो आपत्ति उठा रहा है। उसे मृत्यु, पता बदलने, नागरिक न होने आदि का प्रमाण देना होगा। आप मुझसे मेरे दस्तावेज नहीं मांग सकते, क्योंकि सबूत देने की जिम्मेदारी आपत्ति करने वाले की है।

निर्वाचन आयोग की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने कहा कि इस तरह की प्रक्रिया में ‘‘कहीं कहीं कुछ त्रुटियां होना स्वाभाविक है’’ और यह दावा कि मृत व्यक्तियों को जीवित और जीवित को मृत घोषित कर दिया गया, हमेशा सही किया जा सकता है क्योंकि यह केवल एक मसौदा सूची है।

पीठ ने निर्वाचन आयोग से कहा कि वह तथ्यों और आंकड़ों के साथ ‘‘तैयार’’ रहे क्योंकि प्रक्रिया शुरू होने से पहले की मतदाताओं की संख्या, पहले के मृतकों की संख्या और अब की संख्या तथा अन्य प्रासंगिक विवरणों पर सवाल उठेंगे।

निर्वाचन आयोग को एक संवैधानिक प्राधिकरण करार देते हुए 29 जुलाई को शीर्ष अदालत ने कहा था कि अगर बिहार में मतदाता सूची की एसआईआर में ‘‘बड़े पैमाने पर मतदाताओं को हटाया गया है’’ तो वह तुरंत हस्तक्षेप करेगी।


मसौदा मतदाता सूची एक अगस्त को प्रकाशित की गई थी और अंतिम मतदाता सूची 30 सितंबर को प्रकाशित होने वाली है, जबकि विपक्ष का दावा है कि यह प्रक्रिया करोड़ों पात्र नागरिकों को उनके मताधिकार से वंचित कर देगी।

शीर्ष अदालत ने 10 जुलाई को निर्वाचन आयोग से आधार, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड को वैध दस्तावेज मानने को कहा था और निर्वाचन आयोग को बिहार में अपनी प्रक्रिया जारी रखने की अनुमति दी थी।

निर्वाचन आयोग के हलफनामे में बिहार में मतदाता सूचियों की जारी एसआईआर को यह कहते हुए उचित ठहराया गया है कि यह मतदाता सूची से ‘‘अयोग्य व्यक्तियों को हटाकर’’ चुनाव की शुचिता को बढ़ाता है।

आरजेडी सांसद झा और तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा के अलावा, कांग्रेस के के. सी. वेणुगोपाल, शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी-एसपी) से सुप्रिया सुले, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से डी. राजा, समाजवादी पार्टी (सपा) से हरेंद्र सिंह मलिक, शिवसेना (उद्धव बालासाहब ठाकरे) से अरविंद सावंत, झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) से सरफराज अहमद और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) के दीपांकर भट्टाचार्य ने संयुक्त रूप से निर्वाचन आयोग के 24 जून के फैसले को चुनौती देते हुए शीर्ष अदालत का रुख किया है।

पीयूसीएल, एनजीओ एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स जैसी कई अन्य नागरिक संस्थाओं और योगेंद्र यादव जैसे कार्यकर्ताओं ने निर्वाचन आयोग के आदेश के खिलाफ शीर्ष अदालत का रुख किया है।

पीटीआई के इनपुट के साथ