राजस्थान: वसुंधरा राजे के राज में खतरे में सदियों पुरानी मांगणियारों की कला, सरकार से नहीं मिल रही मदद

राजस्थान में मांगणियारों के संरक्षक राजपूत राजा, रजवाड़े नहीं रहे। इसलिए इन्हें अपनी आजीविका चलाने और अपनी कला को संजोए रखने के लिए मशक्कत करनी पड़ रही है। इनका कहना है कि राज्य सरकार की ओर से उन्हें कोई मदद नहीं मिल रही है।

फोटो: सोशल मीडिया
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आईएएनएस

राजस्थान में लोकसंगीत को संजो कर रखने वाले मंगनियार की दिन ब दिन खराब होती जा रही है। ये मुसलमान हैं, लेकिन हिंदू लोकगाथाओं में चर्चित भगवान कृष्ण के भजन गाते हैं। इन्होंने हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के रीति-रिवाजों और जीवन-पद्धतियों के मिश्रण से बनी समेकित संस्कृति को अपना ली है। इसलिए इनमें से कइयों के नाम, मसलन, शंकर खान और कृष्ण खान भी दोनों धर्मो के बीच समन्वय का परिचायक है।

ये मांगणियार हैं जो पश्चिमी राजस्थान से आते हैं। इनके पंथनिरपेक्ष संगीत के भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में कद्रदान हैं। इनके संगीत के तराने दुनियाभर में सुने जाते हैं। लेकिन अपने ही देश में आज इन्हें अपनी विरासत को संजोने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

शानदार पगड़ी सिर पर बांधे लोक संगीत गायक मंजूर खान कहते हैं कि राजपूत काल में उनकी कला पल्लवित और पुष्पित हुई। उन्होंने कहा, "राजपूत राजाओं ने हमारी कला को संरक्षण दिया और हम वर्षों से अपने आश्रयदाताओं के लिए ही गाते रहे हैं।"

उन्होंने कहा, "पर्सिया और पंजाब से निकली राग लहरियों को ग्रहण कर हमारे पूर्वजों ने सदियों तक इसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया। कालक्रम में हमारे संगीत के तराने सरहदों को पार कर दुनियाभर में गूंजने लगे और हर जगह इसके कद्रदान हैं।"

पश्चिमी राजस्थान की धरती सही मायने में भारत की बहुलवादी संस्कृति का परिचय देती है, जहां गंगा जमुनी तहजीब देखने को मिलती है। यहां रहने वाले मुसलमानों की जीवन पद्धति और वेशभूषा हिंदुओं जैसी है, क्योंकि सदियों से दोनों समुदायों के आचार-विचार में घालमेल का एक लंबा दौर रहा है।

मांगणियारों का संगीत हिंदुस्तानी और सूफी संगीत परंपरा का मिश्रण है। मुस्लिम और हिंदू परिवार यहां कई पीढ़ियों से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। मंगनियार अपने आश्रयदाता यानी यजमानों के लिए गीत रचते और गाते हैं।

मांगणियारों की कहानी लंगा का जिक्र किए बिना अधूरी है। लंगा बाड़मेर के कवि, गायक और संगीतज्ञ हैं और संगीत में मंगनियार से इसका रिश्ता चचेरे भाई-बहन जैसा है। मगर इनके संरक्षक मुसलमान रहे हैं। ये भी अपने आश्रयदाता के घर बच्चों के जन्म के मौके पर और शादी समारोहों में गाते हैं। मांगणियारों के आश्रयदाता भाटी और राठौड़ वंश के राजपूत रहे हैं, जबकि लंगा के संरक्षक सिंधी मुसलमान। मंगनियार हिंदुओं के देवता भगवान कृष्ण के भजन गाकर उनकी कृपा की याजना करते हैं तो लंगा सूफी संगीत गाते हैं।

अब इनके संरक्षक राजपूत राजा रजवाड़े नहीं रहे, इसलिए इन्हें अपनी आजीविका चलाने और अपनी कला को संजोए रखने में मशक्कत करनी पड़ रही है। इनकी कला दुनियाभर में मशहूर हो चुकी है मगर घर में ही इन्हें उसके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

आस्ट्रेलिया, यूके, स्वीडन, नार्वे, जर्मनी और रूस में अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके भुंगर खान मंगनियार को दुख है कि सदियों पुरानी कला को आगे बढ़ाने में उन्हें कोई सरकारी मदद नहीं मिल रही है। खान ने कहा, " मेरे साथी असिन लंगा जैसे कुछ कलाकार ही नई प्रतिभा को तराशकर इस संगीत को आगे बढ़ा रहे हैं। हमें उचित ढंग के स्कूल और संगीत के शिक्षकों की जरूरत है, जो नई पीढ़ी के कलाकार पैदा कर सकें। मगर यह दूर का सपना प्रतीत हो रहा है।"

असिन लंगा ने भी अपना दर्द बयां किया। उन्होंने कहा, "मैं एक छोटा सा स्कूल चलाता हूं जिसमें 15 बच्चे पढ़ते हें। वर्ष 2011 में हमें दिल्ली अकादमी से एक बाल कलाकार के लिए 2,500 रुपये और एक शिक्षक के लिए 7,500 रुपये की सहायता राशि मिली, जोकि मेरे पिता के नाम पर मिली थी। पिताजी अब नहीं रहे, मगर मुझे बच्चों को संगीत सिखाने का काम उनसे विरासत में मिला है। अक्सर मुझे वित्तीय संकट के दौर से गुजरना पड़ता है।"

मंजूर खान भी बाड़मेर में एक स्कूल चलाते हैं, जिसमें 40 बच्चे पढ़ते हैं। उन्हें मुंबई की एक निजी कंपनी जेएसडब्ल्यू से आर्थिक मदद मिलती है। मंजूर ने कहा, "हमें निजी कंपनी से आर्थिक मदद मिल रही है, लेकिन सरकार की ओर से कुछ भी मदद नहीं मिल रही है।"

आरंभ में इनकी कला पश्चिमी राजस्थान तक ही सीमित थी मगर अब इसकी धमक बॉलीवुड में भी सुनाई देने लगी है। हाल ही में दो बाल कलाकारों ने बॉलीवुड में अपना जलवा दिखाया है। सरवर खान और सरताज खान ने अभिनेता आमिर खान की फिल्म 'दंगल' में 'बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक है' गाने में अपनी आवाज दी। इससे पहले 2014 में फिल्म पीके में स्वरूप खान मंगनियार ने 'ठरकी चोकरो' गाना गाकर लाखों लोगों का दिल जीत लिया था। हालांकि, इनके संगीत को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का श्रेय कोमल कोठारी को जाता है।

पद्मश्री और पद्म विभूषण अलंकरण से विभूषित कोमल कोठारी ने सबसे पहले इनके संगीत को एक रेडियो कार्यक्रम के लिए रिकार्ड किया था। जोधपुर के रहने वाले कोठारी भारतीय लोकगाथा के अध्येता और संगीत के वैज्ञानिक थे।

वर्ष 1960 में कोमल कोठारी को अंतार खान मांगणियार सड़क पर मिला था। वह उसको अपने दफ्तर ले गए और उसकी आवाज को रिकार्ड करने की तैयारी करने लगे कि इतने में वह भाग गया। उन्होंने खदेड़कर उसे पकड़ा तो उसने कहा कि उसे डर है कि मशीन के सामने गाने पर वह उसकी आवाज को निगल जाएगी। इसके बाद कोठारी ने जैसलमेर के कई दौरे किए और मंगनियारों से रोजी-रोटी कमाने का नया जरिया बनाने की बात की।

कोठारी 1967 में लंगा मंडल को साथ लेकर स्वीडन गए जहां कलाकारों ने देश के बाहर अपनी पहली प्रस्तुति दी। इसके तुरंत बाद भारतीय सांस्कृतिक अनुसंधान परिषद (आईसीसीआर) ने इसे संज्ञान में लिया। 80 के दशक के मध्य तक मंगनियारों और लंगाओं ने दुनियाभर में भारतीय समारोहों के दौरान अपनी कई प्रस्तुतियां दीं और विदेशों में इनकी कला मशहूर हो गई।

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