असम में एनआरसी पर बुरी तरह फंसी बीजेपी, लाख चाहकर भी ठंडे बस्ते में नहीं डाल सकती

जब असम में एनआरसी प्रक्रिया चल रही थी, तब बीजेपी बेहद उत्साहित थी लेकिन मनोवांछित नतीजे नहीं आने पर वह इसे खारिज कर पूरे देश के साथ असम में नए सिरे से शुरू करने की बात कर रही है। ऐसा करना सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के साथ असम समझौते का भी उल्लंघन होगा।

फोटोः सोशल मीडिया
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दिनकर कुमार

केंद्रीय गृह मंत्रीअमित शाह ने 20 नवंबर को राज्यसभा में दो बातें कहीं। एक, एनआरसी की प्रक्रिया पूरे देश में लागू की जाएगी और दो, स्वाभाविक रूप से असम में भी एनआरसी की प्रक्रिया नए सिरे से लागू की जाएगी। इसके तुरंत बाद पूर्वोत्तर में बीजेपी के सबसे बड़े नेता हिमंत बिस्वा सरमा ने मीडिया को बताया कि बीजेपी की प्रदेश इकाई और असम सरकार का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में एनआरसी के राज्य समन्वयक प्रतीक हाजेला के नेतृत्व में एनआरसी की जो प्रक्रिया पूरी की गई, वह असम के लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करने में असफल रही। हमारा मानना है कि वर्तमान एनआरसी प्रक्रिया को खारिज किया जाए और हम लोग राष्ट्रीय एनआरसी प्रक्रिया का हिस्सा बनना चाहते हैं।

यह अजीब बात है कि जब असम में एनआरसी प्रक्रिया चल रही थी, तब बीजेपी बेहद उत्साहित थी लेकिन मनोवांछित परिणाम सामने नहीं आने पर वह इसे खारिज कर पूरे देश के साथ असम में नए सिरे से शुरू करने की बात कर रही है। ऐसा करना सुप्रीम कोर्ट की अवमानना जैसा ही होगा; यह असम समझौते का भी उल्लंघन होगा और नए सिरे से मानवीय संकट पैदा होगा। वैसे भी, इसके दौरान काफी लोग जान दे चुके हैं और 1600 करोड़ से अधिक खर्च हो चुके हैं।

चूंकि एनआरसी की प्रक्रिया पूरे देश में लागू करने को नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने जिद बांध रखी है, इसलिए असम का अनुभव पूरे देश के काम का है। पिछले 5 सालों से असम के लोगों के जीवन पर एनआरसी हावी रही है। 3.29 करोड़ निवासियों ने राष्ट्रीयना गरिकता रजिस्टर में नाम दर्ज करवाने के लिए आवेदन किया था। राज्य सरकार के 55,000 कर्मचारी इस प्रक्रिया से जुड़े रहे और अनवरत काम करते रहे। इस पर जो खर्च हुए, उसका सरकारी आंकड़ा तो है लेकिन एनआरसी की प्रक्रिया के दौरान असम के लोगों ने कितने पैसे खर्च किए, इसका अलग से कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।

इस प्रक्रिया की वजह से समाज के एक तबके को भीषण आर्थिक, मानसिक तकलीफों का सामना करना पड़ा। लेकिन एनआरसी केवल संख्या का नाम नहीं है। इसके साथ लोगों कीआशा-आकांक्षा जुड़ी रही है कि दशकों पुरानी समस्या का समाधान हो जाएगा। इस प्रक्रिया के साथ लोगों के मन में नागरिकता खोने का ऐसा भय भी जुड़ा हुआ था जिसकी वजह से कुछ लोगों ने अपनी जान तक दे दी।


नागरिकता अधिनियम-1955 और नागरिकता (नागरिक पंजीयन एवं राष्ट्रीय पहचान पत्र) अधिनियम, 2003 के अधीन सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एनआरसी अद्यतन करने की प्रक्रिया संपन्न की गई। यह पूरी प्रक्रिया अत्यंत कठिन थी। दस्तावेजों की खोज और आवेदन पत्र को भरना आम लोगों के लिए आसान नहीं था। जांच-पड़ताल की प्रक्रिया और भी अधिक कठिन थी। आवेदकों को जांच-पड़ताल के लिए कई बार दूरदराज के स्थानों तक बुलाया गया। 31 दिसंबर, 2017 को एनआरसी का अंतिम मसौदा प्रकाशित हुआ जिसमें 40 लाख लोगों के नाम नहीं थे। उनके सामने विकल्प था कि एनआरसी की अंतिम सूची प्रकाशित होने से पहले कारण बताते हुए अपना दावा पेश कर सकते थे। इसके बाद फिर जांच-पड़ताल के कई चरण हुए। लोगों को पूरे परिवार के साथ विभिन्न जिलों की यात्रा करनी पड़ी।

सूची में नाम शामिल करने के दावे के अलावा अंतिम मसौदे में शामिल लोगों के नामों के खिलाफ आपत्ति दर्ज करने का प्रावधान भी रखा गया था। अंतिम दिन से पहले केवल 700 आपत्तियां दर्ज की गईं। लेकिन अंतिम दिन यानी 31 दिसंबर, 2018 को आपत्तियों की संख्या दो लाख हो गई। ऐसा माना जाता है कि आपत्तियों की संख्या उससे भी ज्यादा थी लेकिन उसको छिपाया गया। ऐसी आपत्तियां छात्र संगठन आसू की अगुवाई में 30 संगठनों की तरफ से दर्ज की गई और एक विशेष समुदाय के लोगों को निशाना बनाया गया। ऐसा करते हुए बच्चों, बूढ़ों, बीमार और स्वतंत्रता सेनानी की संतानों को भी नहीं बख्शा गया। ऐसे लोगों को सुनवाई के लिए रमजान के महीने में भी बुलाया गया। रोजा रखते हुए पूरे परिवार के साथ मुस्लिम परिवारों को दूरदराज की यात्रा करनी पड़ी।

खारिज करने का आधार कमजोर

एनआरसी का अंतिम मसौदा आने के बाद बीजेपी की प्रादेशिक इकाई, कुछ निहित स्वार्थी समूह और चंद व्यक्तियों ने एनआरसी की आलोचना करते हुए कहा कि केवल 40 लाख लोगों को ही सूची से निकाला गया है जो मूल संख्या से बेहद कम है। असल में वास्तविक संख्या दुष्प्रचार के साथ मेल नहीं खाती थी, इसलिए उन्होंने एनआरसी को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। एनआरसी की अंतिम सूची में अधिकतर लोगों के नाम शामिल हो गए जिन्होंने दावा किया था या जिनके खिलाफ आपत्ति दर्ज की गई थी। इसके साथ ही एनआरसी को खारिज करने की मांग तेज होती गई। जबकि मसौदा प्रकाशित होने से पहले अगर कोई इस दौरान होने वाली तकलीफ और भेदभाव की आलोचना करता था तो उसे एनआरसी विरोधी या असम विरोधी कहकर फटकारा जाता था। ऐसे ही लोगों ने एनआरसी की अंतिम सूची प्रकाशित होने के बाद एनआरसी को खारिज करने की मांग शुरू कर दी।

यह तब है जबकि 2 सितंबर, 2019 को विदेश मंत्रालय ने एनआरसी के बारे में एक बयान में कहाः एनआरसी की प्रक्रिया एक वैधानिक, पारदर्शी और कानूनी प्रक्रिया है जिसकी देखरेख सुप्रीम कोर्ट ने की है। यह विज्ञान सम्मत विधियों पर आधारित पारदर्शी प्रक्रिया है। इसमें किसी तरह के पूर्वाग्रह और अन्याय के लिए जगह नहीं है। 23 अगस्त, 2019 को संयुक्त राष्ट्र संघ में परमानेंट मिशन ऑफ इंडिया ने एक बयान में भी एनआरसी का बचाव करते हुए कहा कि पूरी प्रक्रिया स्पष्ट, पारदर्शी और भेदभाव से रहित है।


जब सरकार पूरी दुनिया को खुद बता चुकी है कि एनआरसी निष्पक्ष, विज्ञान सम्मत, न्यायपूर्ण और पारदर्शी प्रक्रिया है तो फिर इसे खारिज क्यों करना चाहती है? असल में एनआरसी की प्रक्रिया वास्तव में निष्पक्ष और पारदर्शितापूर्ण थी और यह विज्ञान सम्मत प्रक्रिया थी। यह प्रक्रिया किसी के खिलाफ भेदभावपूर्ण नहीं थी। लेकिन जांच-पड़ताल करने वाले अधिकारियों के पास जो शक्ति है उसके आधार पर भेदभाव की घटनाएं हुईं। जिन स्थानों पर अधिकारियों ने पूर्वाग्रह और भेदभाव अपनाया, वहां लोगों को सूची से बाहर होना पड़ा। साफ लगता है कि अंतिम क्षणों में सूची से वंचित होने वालों की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई। नाम और उम्र की मामूली गलतियों के लिए कई लोगों के नाम सूची से निकाले गए।

लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि प्रक्रिया अत्यंत कठिन और जांच-पड़ताल पर आधारित थी। अधिकारियों के पास जो भेदभाव करने की शक्ति है, उसकी वजह से वास्तविक नागरिकों की नागरिकता छीनने जैसी घटनाएं हुई हैं। नागरिकता से वंचित होने का खतरा होने के बावजूद समाज के सभी तबके के लोगों ने एनआरसी का समर्थन किया और उनमें ऐसे लोग भी शामिल थे जिनको हमेशा अवैध घुसपैठिया कहकर प्रताड़ित किया जाता है। ऐसे लोगों को अपने दस्तावेजों से शक्ति मिल रही थी और उनको लग रहा था कि जब सुप्रीम कोर्ट इसकी देखरेख कर रहा है तो उनके दस्तावेजों के आधार पर उनकी नागरिकता की जांच होगी और उनके साथ असम बॉर्डर पुलिस की तरफ से होने वाला भेदभाव पूर्ण रवैया नहीं अपनाया जाएगा। न ही चुनाव आयोग और विदेशी ट्रिब्यूनल की तरह पूर्वाग्रह ग्रस्त रवैया अपनाया जाएगा।

ऐसे लोग निष्पक्ष और पारदर्शिता पूर्ण एनआरसी का समर्थन कर रहे थे क्योंकि वे दशकों के भेद भाव से छुटकारा पाकर अपने ही देश में विदेशी के संबोधन से मुक्त होना चाहते थे। एनआरसी की प्रक्रिया नए सिरे से शुरू करने और प्रकाशित हो चुकी सूची को खारिज करने की खबर ने ऐसे लोगों के भरोसे को तोड़ा है, जिन लोगों ने सुप्रीम कोर्ट और देश के कानून पर भरोसा रखा था।

इस बीच केंद्र सरकार के इरादे को देखकर इसका विरोध भी शुरू हो गया है। असम के पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत का कहना है कि बीजेपी सरकार एनआरसी को खारिज नहीं कर सकती। यह पूरी प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में संपन्न हुई है। इस प्रक्रिया के दौरान बीजेपी का सारा ध्यान बराक घाटी और निचले असम की तरफ केंद्रित था। अंतिम सूची प्रकाशित होने पर जब बीजेपी की उम्मीद के मुताबिक इन इलाकों के लोगों के नाम सूची से बाहर नहीं हुए तो वह इसके खिलाफ हो गई। बीजेपी को समझना होगा कि हिंदू और मुसलमान की कसौटी को सामने रखकर त्रुटिमुक्त एनआरसी तैयार करना संभव नहीं है।


वहीं असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई का कहना है कि जब एनआरसी का अंतिम मसौदा प्रकाशित हुआ तब बीजेपी ने इसका सारा श्रेय लेते हुए मसौदे से बाहर हुए चालीस लाख लोगों को असम से बाहर निकालने का ऐलान किया था। वही बीजेपी अब इसे खारिज कर नए सिरे से प्रक्रिया शुरू करने की बात कर रही है। असल में वह बेरोजगारी, आर्थिक मंदी, राफेल सौदा, मंहगाई, भ्रष्टाचार, चुनावी बॉन्ड घोटाला- जैसे देश के ज्वलंत मुद्दों की तरफ से जनता का ध्यान हटाने के लिए ऐसा कर रही है। जो बीजेपी सरकार तीन करोड़ की आबादी वाले छोटे प्रदेश असम में त्रुटिमुक्त एनआरसी तैयार नहीं कर पाई, वह 130 करोड़ की आबादी वाले देश में किस तरह एनआरसी तैयार कर सकती है।

गुवाहाटी स्थित मानवाधिकार मामलों के अधिवक्ता अमन वदूद का भी कहना है कि 31 अगस्त को एनआरसी की अंतिम सूची प्रकाशित होने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि काफी वास्तविक नागरिकों के नाम इसमें छूट गए थे। माता-पिता के नाम शामिल थे तो बच्चों के नाम गायब थे। वास्तविक नागरिकों के नाम छूटने के साथ ही इस प्रक्रिया के दौरान लोगों को जितनी तकलीफ हुई, आत्महत्या की घटनाएं हुईं, उसके बावजूद अगर कुछ लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति एनआरसी की प्रक्रिया नहीं कर पाई तो आखिर उनकी आकांक्षाएं कैसे पूरी हो पाएंगी? कुछ प्रमुख संगठनों ने यह भी कहा कि जिस तरह कम तादाद में लोगों को सूची से वंचित रखा गया है, उससे वे संतुष्ट नहीं हैं। उनकी संतुष्टि के लिए क्या करना जरूरी है? क्या समाज के एक तबके के साथ और अधिक दुर्व्यवहार किया जाए? संवैधानिक लोकतंत्र में क्या सरकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन कर सकती है ताकि कुछ समूहों की इच्छाओं की पूर्ति की जा सके?

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Published: 29 Nov 2019, 8:45 PM