मोदी सरकार के 4 साल के कार्यकाल में बढ़ा भ्रष्टाचार, शोध रिपोर्ट का दावा

एक अध्ययन में पता चला है कि लोक सेवाओं में भ्रष्टाचार कम करने की केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता के पक्ष में लोगों की धारणा 2017 में 41 फीसदी थी, जो 2018 में घटकर 31 फीसदी रह गई है।

फोटोः सोशल मीडिया
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विश्वदीपक

प्रधानमंत्री बनने के बाद खुद को देश की संपदा का चौकीदार बताते हुए पीएम मोदी ने बड़े जोर शोर से अपने भाषणों में कहा था कि “ना खाऊंगा, ना खाने दूंगा”। लेकिन भ्रष्टाचार खत्म करने के उनके इस चर्चित दावे का भंडाफोड़ तब हो गया जब हाल ही में किए गए एक शोध की रिपोर्ट से पता चला कि उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार न सिर्फ बढ़ा है बल्कि देश के लोगों को अब लगता है कि वह इस खतरे से लड़ने को लेकर गंभीर भी नहीं है।

13 राज्यों (जिनमें से 6 राज्य बीजेपी शासित हैं) में 11 लोक सेवाओं पर किए गए इस अध्ययन में पता चला कि देश के 75 फीसदी परिवारों का मानना है कि लोक सेवाओं में भ्रष्टाचार का स्तर या तो बढ़ा है या फिर पिछले 12 महीने के बराबर ही है।

अध्ययन में दावा किया गया है कि देश भर के 38 फीसदी परिवारों का मानना है कि देश में भ्रष्टाचार का स्तर बढ़ा है, जबकि अन्य 37 प्रतिशत परिवारों का मानना है कि लोक सेवाओं में भ्रष्टाचार पहले के बराबर ही है।

‘सीएमएस-इंडिया करप्शन स्टडी 2018’ शीर्षक से सीएमएस शोध संस्थान द्वारा किये गये अध्ययन में बताया गया है कि सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए मोदी की प्रतिबद्धता को लेकर संदेह करने वाले लोगों की संख्या 2018 में बढ़ी है।

महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे बीजेपी शासित राज्यों में भ्रष्टाचार को कम करने की मोदी सरकार की प्रतिबद्धता को लेकर लोगों में गंभीर संदेह का दावा करते हुए अध्ययन में बताया गया है कि लोक सेवाओं में भ्रष्टाचार कम करने की केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता को लेकर लोगों की धारणा 2017 के 41 प्रतिशत से घटकर 2018 में 31 प्रतिशत हो गई है।"

52 प्रतिशत के साथ महाराष्ट्र उन राज्यों की सूची में सबसे ऊपर है जहां लोगों को भ्रष्टाचार कम करने के लिए मोदी सरकार की प्रतिबद्धता पर संदेह है। इस सूची में 50 प्रतिशत के साथ मध्य प्रदेश दूसरे स्थान पर है। गुजरात, जहां बीजेपी 20 साल से भी ज्यादा समय से शासन कर रही है, वहां, 46 प्रतिशत लोगों का मानना है कि भ्रष्टाचार को रोकने के लिए मोदी सरकार अधिक प्रतिबद्ध नहीं है।

गैर-बीजेपी शासित राज्यों की बात करें तो आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के लोग महसूस करते हैं कि मोदी सरकार भ्रष्टाचार को कम करने के लिए जरा सा भी प्रतिबद्ध नहीं है। आंध्र प्रदेश में 67 प्रतिशत और तमिलनाडु में 52 प्रतिशत लोग मानते हैं कि केंद्र की बीजेपी सरकार भ्रष्टाचार को खत्म करने/घटाने को लेकर जरा भी प्रतिबद्ध नहीं है।

हैरानी की बात है कि बिहार, जहां बीजेपी ने जेडी (यू) की मदद से सरकार का गठन किया है, उसने व्यवस्था से भ्रष्टाचार को खत्म करने के मोदी के वादे पर अपना विश्वास दिखाया है। अध्ययन के अनुसार, बिहार में 50 प्रतिशत लोग मानते हैं कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए मोदी सरकार गंभीरता से प्रतिबद्ध है।

केंद्र सरकार द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न "डिजिटल समावेशी" योजनाओं की सफलता के बारे में संदेह जताते हुए, अध्ययन में दावा किया गया है कि प्रतिक्रिया देने वालों में 7 फीसदी लोगों को आधार बनवाने के लिए रिश्वत देनी पड़ी, जबकि 3 फीसदी को अपना मतदाता पहचान पत्र हासिल करने के लिए रिश्वत देना पड़ा।

हालांकि, अध्ययन से पता चलता है कि 2005 की तुलना में, जब यूपीए सरकार थी, सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार को लेकर धारणा में उल्लेखनीय गिरावट देखी गई है। अध्ययन में दावा किया गया है कि सार्वजनिक सेवाओं का लाभ हासिल करने से लेकर भ्रष्टाचार के कुल सभी मामलों में 50 प्रतिशत की गिरावट आई है।

मोदी सरकार की लोकायुक्त (लोकपाल) के रिक्त पदों को भरने में असमर्थता और बैंकिंग क्षेत्र में सामने आए हालिया भ्रष्टाचार को अध्ययन में "नकारात्मक धारणा" के निर्माण के कारकों के रूप में दर्शाया गया है।

जहां तक राज्यों की बात है, तो सार्वजनिक सेवाओं का लाभ लेने में भ्रष्टाचार को रोकने में तेलंगाना देश का दूसरा सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला राज्य रहा है जबकि आंध्र प्रदेश को चौथे नंबर पर स्थान दिया गया है।

अध्ययन में पाया गया कि परिवहन, पुलिस, आवास, भूमि अभिलेख, स्वास्थ्य और अस्पताल सेवाओं को सार्वजनिक सेवाओं का सबसे भ्रष्ट अंग माना जाता है। अध्ययन के निष्कर्षों के मुताबिक महाराष्ट्र, दिल्ली, गुजरात, बिहार और तेलंगाना जैसे राज्यों में भ्रष्टाचार के खिलाफ नागरिक समूहों की सक्रियता देखी गई, जबकि आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले नागरिक समूहों की सक्रियता काफी कम है।

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