पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण में तो सब ‘फेक’  है

अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों में वायु प्रदूषण से जब लोगों के मरने की बात होती है तब पर्यावरण मंत्री डॉ हर्षवर्धन बताते हैं कि प्रदूषण से लोग बीमार हो सकते हैं, पर मरते नहीं हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

स्मृति ईरानी को जो ‘फेक’ है वह फेक लगता नहीं, और जो फेक नहीं है उसपर पत्रकारों को दंडित करना चाह रही थीं। खैर, अभी तो मोदी जी के हस्तक्षेप से सारा मामला दब गया, पर फेक क्या है इस पर जरूर चर्चा शुरू हो गई। फेक पर दंडित करना है तो केवल न्यूज़ पर ही क्यों, आप फेक वक्तव्यों पर भी दंडित कीजिये। यकीन मानिए, जिस दिन ऐसा हो जाएगा वर्त्तमान के सारे मंत्री और बड़े नेता इसके दायरे में एक सप्ताह के भीतर ही आ जायेंगे। अर्थव्यवस्था, सामाजिक ताना-बाना, इतिहास और भूगोल पर तो सब फेक बताया ही जाता है, पर पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण का मुद्दा तो ऐसा है जहां बहुत खोजने पर भी कोई सच नहीं मिलेगा।

गंगा की सफाई का सच तो सब देख ही रहे हैं। निर्मल और अविरल गंगा का दावा करनेवाले शांत हो गए हैं। नमामि गंगे के अंतर्गत बनारस में घाट बना दिए गए, विदेशी मेहमानों को भव्य आरती दिखाई जाने लगी, पर गंगाजल में प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा है। मंत्री बदल गए पर गंगा नहीं बदली। वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा नहाने लायक भी नहीं बची। उत्तर प्रदेश में गंगा का 67 प्रतिशत हिस्सा और बिहार में 78 प्रतिशत हिस्सा प्रदूषित था। इलाहाबाद के संगम पर फीकल कॉलिफोर्म की संख्या निर्धारित सीमा से 5 से 13 गुना अधिक पाई गयी। फीकल कॉलिफोर्म बैक्टीरिया का समूह होता है और इसकी पानी में उपस्थिति बताती है कि पानी में गन्दा घरेलू मलजल और शौच का पानी मिल रहा है। इस बैक्टीरिया समूह के साथ ही अनेक हानिकारक बैक्टीरिया भी सम्मिलित रहते हैं। कानपुर के जाजमऊ में फीकल कॉलिफोर्म की संख्या सामान्य से 10 से 13 गुना और बनारस के मालवीय ब्रिज के नीचे 9 से 20 गुना अधिक पाया गया। कानपुर, बनारस और इलाहाबाद में गंगा बेहद प्रदूषित है। नमामि गंगे से इतना जरूर फायदा है कि देश की बाकी नदियों की अब कोई चर्चा भी नहीं करता।

वायु प्रदूषण के सन्दर्भ में भी दिल्ली और एनसीआर के प्रदूषण के आगे कोई देखने को तैयार नहीं है। इस पर भी सर्दियों का मौसम बीतते ही चर्चा बंद हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के और अनेक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों में वायु प्रदूषण से जब लोगों के मरने की बात होती है तब पर्यावरण मंत्री डॉ हर्षवर्धन बताते हैं कि प्रदूषण से लोग बीमार हो सकते हैं, पर मरते नहीं हैं। हमारे देश में सही तथ्य वही है, जिसका वर्णन वेदों या प्राचीन ग्रंथों में हो। संभव है कि वायु प्रदूषण का और इसके प्रभावों का जिक्र वेदों में नहीं हो, पर रामायण में लंका दहन और महाभारत में लाक्षागृह दहन में तो इसका वर्णन है। वायु प्रदूषण से लोगों के मरने की बातें तो आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज के निदेशक भी करते हैं, पर डॉ हर्षवर्धन के अपने तर्क हैं कि अब तक किसी पोस्टमार्टम रिपोर्ट में नहीं लिखा गया है कि प्रदूषण से मौत हुई है।

पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण में तो सब ‘फेक’  है

डॉ हर्षवर्धन दिल्ली में आयोजित क्लीन एयर कैंपेन के बाद भी दावा करते हैं कि दिल्ली की हवा कैंपेन से साफ़ हो गयी। अतिउत्साह में इस कैंपेन को 100 और शहरों में ले जाने की बात भी करते हैं। वास्तविकता यह है कि जिन दिनों में डॉ हर्षवर्धन वायु प्रदूषण कम करने की बात कर रहे थे, उन दिनों ओजोन की सांद्रता सामान्य से अधिक थी और इस ओजोन का प्रभाव पार्टिकुलेट मैटर से अधिक घातक है। विशेषज्ञों के अनुसार हवा में ओजोन की अधिक सांद्रता के कारण सर्वाधिक मृत्यु एशिया में होती है और एशिया में भी सर्वाधिक मौतें भारत में होती हैं। हमारे देश में लगभग 4 लाख व्यक्तियों की असामयिक मृत्यु ओजोन के कारण सांस-संबंधी समस्यायों की देन है। पर, हमारे देश में वायु प्रदूषण का मतलब पार्टिकुलेट मैटर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

अभी कुछ दिनों पहले प्रकाशित हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और नासा के एक संयुक्त अध्ययन के अनुसार, अक्टूबर और नवम्बर के महीने में दिल्ली में कुल वायु प्रदूषण में से 78 प्रतिशत तक योगदान पड़ोसी राज्यों में कृषि अपशिष्ट को जलाने से उत्पन्न गैसों का है। इस तरह के निष्कर्ष वाली यह कोई पहली रिपोर्ट नहीं है, अनेक अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट यह पहले भी बताया जा चुक है। पर, इस सन्दर्भ में भी पर्यावरण मंत्री की अलग राय है। पर्यावरण मंत्री ने दिसम्बर के अंत में राज्यसभा को सूचित किया था कि अक्टूबर-नवम्बर के दौरान दिल्ली में प्रदूषण का सबसे बड़ा स्त्रोत अरब देशों के रेगिस्तान से आयी रेत है।

पर्यावरण मंत्रालय लगातार यह कहता रहा है कि जितने भी नियम-क़ानून हैं उनमे कोई बदलाव नहीं किया जा रहा है। वास्तविकता तो यह है कि शायद ही ऐसा कोई पर्यावरण से सम्बंधित कानून है जिसे उद्योगों के लिहाज से नरम न किया गया होगा। आज हालत यह है कि पर्यावरण को पूरी तरह से तहस-नहस करने वाले उद्योग सबसे पहले पर्यावरण स्वीकृति से लैस हो जाते हैं। जब सरकार वनवासियों के अधिकार की बात करती है, तब इन्हें अपने जमीन से दखल करने की कोशिश शुरू कर दी जाती है। पर्यावरण मंत्री को शायद नहीं मालूम हो पर वर्त्तमान में भी उद्योगों के खिलाफ कई जगह आन्दोलन किया जा रहे हैं। ये सभी उद्योग पर्यावरण स्वीकृति के बाद भी वर्षों से प्रदूषण फैला रहे हैं, भू-जल प्रदूषित कर रहे हैं और प्राकृतिक संसाधनों का नाश कर रहे हैं।

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