विदेश नीति चुनाव का मुद्दा नहीं थी, लेकिन नई सरकार को इन चार मोर्चों पर जूझना होगा

आर्थिक विकास भी काफी हद तक विदेश नीति से जुड़ा होता है। वर्तमान में देश के सामने दो लक्ष्यों को एक साथ साधने की चुनौती है। तेज आर्थिक विकास और उसके सहारे गरीबी का उन्मूलन, जो काम चीन ने किया। इसमें आर्थिक नीतियों के साथ विदेश-नीति की भूमिका भी है।

फोटोः सोशल मीडिया
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प्रमोद जोशी

इस बार के लोकसभा चुनाव में पुलवामा से लेकर मसूद अजहर का नाम कई बार लिया गया, लेकिन विदेश नीति चुनाव का मुद्दा नहीं थी। इसकी बड़ी वजह यह है कि विदेश नीति का आयाम हम राष्ट्रीय सुरक्षा के आगे नहीं देखते हैं। आर्थिक विकास भी काफी हद तक विदेश नीति से जुड़ा है। गोकि हमारी अर्थव्यवस्था चीन की तरह निर्यातोन्मुखी नहीं है, फिर भी बेरोजगारी, सार्वजनिक स्वास्थ्य, परिवहन, आवास, विज्ञान और तकनीक जैसे तमाम मसलों का विदेश-नीति से रिश्ता है।

भारत जैसे देशों के सामने सवाल है कि आर्थिक विकास, व्यक्तिगत उपभोग और गरीबी उन्मूलन के बीच क्या कोई सूत्र है? पिछले डेढ़-दो सौ साल में दुनिया की समृद्धि बढ़ी, पर असमानता कम नहीं हुई, बल्कि और बढ़ गई। ऐसा क्यों हुआ और रास्ता क्या है?

2015 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार प्रिंसटन विश्वविद्यालय के माइक्रो-इकोनॉमिस्ट प्रोफेसर एंगस डीटन को देने की घोषणा की गई थी। भारत उनकी प्रयोगशाला रहा है। उनकी धारणा है कि आर्थिक विकास की परिणति आर्थिक विषमता भी है, पर यदि यह काफी बड़े तबके को गरीबी के फंदे से बाहर निकाल रहा है, तो उसे रोका नहीं जा सकता। इसके लिए जनता और शासन के बीच सहमति होनी चाहिए। देश के सामने दो लक्ष्यों को एक साथ साधने की चुनौती है। तेज आर्थिक विकास और उसके सहारे गरीबी का उन्मूलन, जो काम चीन ने किया। इसमें आर्थिक नीतियों के साथ विदेश-नीति की भूमिका भी है। नई सरकार की विदेश नीति को चार शीर्षकों में रखकर परखना होगा।

वैश्विक अंतर्विरोध

अमेरिका-चीन टकराव, ईरान-सऊदी अरब के बीच युद्ध का खतरा, दक्षिण चीन सागर में चीन के साथ पड़ोसी देशों का विवाद, यूक्रेन या सीरिया को लेकर रूस-अमेरिका विवाद और वेनेजुएला में गृहयुद्ध का अंदेशा, ऐसी तमाम घटनाएं हैं, जिनसे हम चाहकर भी बच नहीं सकते। अमेरिका ने ईरान और रूस पर कुछ पाबंदियां लगाई हैं। इन पाबंदियों का रिश्ता भारत और अमेरिका के बीच बढ़ते रिश्तों के साथ है। इस अंतर्विरोध को हम किस तरह संभालेंगे? यह नई सरकार की पहली चुनौती होगी। फिलहाल सरकार का दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं है।

14 मई को विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने ईरानी विदेश मंत्री के साथ एक भेंट के दौरान कहा कि भारत सरकार इस समय कोई फैसला करने की स्थिति में नहीं है। उन्होंने पाबंदियों के बाबत एक शब्द भी नहीं बोला। पर खबरें यह भी हैं कि भारतीय कंपनियों ने ईरान से तेल खरीदना बंद कर दिया है। लगता यही है कि भारत अमेरिकी पाबंदियों का पालन करेगा। इसकी औपचारिकता का भार नई सरकार के कंधों पर है ।


इन पाबंदियों का भारतीय हितों से लेना-देना नहीं है। भारत करीब 12 लाख टन तेल हर महीने ईरान से खरीदता है। यह हमारे सकल तेल आयात का करीब 10 फीसदी है। भारत जिन देशों से तेल खरीदता है उनमें ईरान तीसरा सबसे बड़ा सप्लायर है। ईरानी तेल सस्ता भी होता है और उसके साथ अदायगी की अवधि कुछ ज्यादा लंबी होती है। ज्यादातर कीमत भारत यूरो या रुपयों में अदा करता है। इससे डॉलर का आश्रय नहीं लेना पड़ता। कई बार रुपयों की जगह भारत चावल, औषधियों और अन्य सामग्री के रूप में भी कीमत अदा कर देता है।

अमेरिका के दबाव में ईरान ही नहीं वेनेजुएला से भी तेल की खरीद बंद होने वाली है। ईरान के साथ पैदा हो रहे इस गतिरोध के कारण चाबहार और फरजाद बी गैस फील्ड में भी भारत की भूमिका पर असर पड़ेगा। ईरान से होकर यूरोप तक जाने वाली सड़क परियोजना उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर में भी भारत की हिस्सेदारी है। यह भी प्रभावित होगी। अमेरिका के इस दबाव को स्वीकार करने के बदले भारत को क्या मिलेगा?

बताते हैं कि अमेरिका के चीन के साथ चल रहे व्यापार युद्ध का फायदा भारत को मिलेगा। यह फायदा रक्षा के क्षेत्र में और हथियारों की खरीद के रूप में ही हो सकता है। उधर रूस से भारत ने एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम खरीदने का समझौता किया है। अमेरिका इसे भी रोकना चाहता है। क्या हम ऐसा कर पाएंगे? इस सवाल का जवाब हमें नई सरकार की शुरुआती नीतियों से पता लगेगा।

दक्षिण एशिया में सहयोग

दक्षिण एशिया दुनिया के सबसे अविकसित इलाकों की श्रेणी में आ गया है। सबसे बड़ी वजह है भारत और पाकिस्तान के खराब रिश्ते। लोकसभा चुनाव इस खटास की पृष्ठभूमि में हुए। नई सरकार की जिम्मेदारी इन रिश्तों को रास्ते पर लाने की है। यह जटिल काम है। हिंसा-आतंकवाद और दोस्ती साथ-साथ नहीं चलेंगे। पर रास्ता भी होगा। इन दिनों अमेरिकी प्रशासन अफगानिस्तान में शांति समझौता कराने का प्रयास कर रहा है। रूस और चीन भी इसमें सहयोग कर रहे हैं। यह प्रयास तब तक विफल रहेगा, जब तक भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सामान्य नहीं होंगे।

दक्षिण एशिया में अविश्वास और प्रतिगामी तौर-तरीकों का बेहतर उदाहरण है सार्क की विफलता। इस साल जनवरी में दिल्ली में हुए दो दिन के रायसीना संवाद में भी यह सवाल उठा था। इस सम्मेलन में नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप कुमार ग्यावली ने कहा, “अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप और उत्तर कोरिया के नेता किम के बीच मुलाकात हो सकती है, तो अन्य देशों के नेताओं के बीच यह क्यों नहीं हो सकती।” उनका इशारा भारत और पाकिस्तान पर था।

उन्होंने कहा कि दक्षिण एशिया सहयोग संगठन (सार्क) को पुष्ट किया जाना चाहिए। उन्होंने साथ में दो और संगठनों बिमस्टेक और बीबीआईएन के नाम लिए। 2016 में पठानकोट और उड़ी की घटनाओं के बाद से भारत ने दक्षेस से हाथ पूरी तरह खींच लिया है और क्षेत्रीय सहयोग के बिमस्टेक और बीबीआईएन जैसे संगठनों में दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी है, जिनमें पाकिस्तान की भूमिका नहीं है। यह सायास है और भारत ‘माइनस पाकिस्तान नीति’ पर चल रहा है। क्या यह नीति बदलेगी?

दोनों देशों के रिश्तों में कई प्रकार के अवरोध हैं, पर उन्हें हटाने की कुछ जिम्मेदारी भारत पर भी है। इसके लिए वैश्विक सहयोग की जरूरत है, जो विदेश-नीति का काम है। कुछ साल पहले श्रीलंका में हुए सार्क चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज की बैठक में कहा गया कि दक्षिण एशिया में कनेक्टिविटी न होने के कारण व्यापार संभावनाओं के 72 फीसदी मौके गंवा दिए जाते हैं। अनुमान है कि इस इलाके के देशों के बीच 65 अरब डॉलर का व्यापार हो सकता है। ये देश परंपरा से एक-दूसरे के साथ जुड़े रहे हैं।


उभरती शक्ति की राष्ट्रीय सुरक्षा

राष्ट्रीय रक्षा-नीति भी विदेश-नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू है। उभरती आर्थिक शक्ति को न केवल अपनी सीमा की रक्षा करनी होती है, बल्किअपने व्यापार मार्गों को भी सुरक्षित बनाना होता है। यह बात चीन के उभार के साथ देखी जा सकती है। भारत के बदलते रक्षा-राजनय की भूमिका 14 साल पहले 2005 में हुए भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग समझौते से बन गई थी, जिसे अब दस साल के लिए और बढ़ा दिया गया है। पर भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग की शुरुआत1992 से हो गई थी, जब दोनों देशों की नौसेनाओं ने ‘मालाबार युद्धाभ्यास’ शुरू किया था। सोवियत संघ के विघटन और शीत युद्ध की समाप्ति के एक साल बाद।

लेकिन 1998 में भारत के एटमी परीक्षण से रिश्ते बिगड़े। मालाबार युद्धाभ्यास भी बंद हो गया, पर 11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क के ट्विन टावर पर हुए हमले के बाद दोनों देशों की विश्व-दृष्टि में बदलाव आया। 2002 से यह युद्धअभ्यास फिर शुरू हुआ और भारत धीरे-धीरे अमेरिका के महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में उभर रहा है। 2002 के बाद से भारत, जापान और अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय सामरिक संवाद चल रहा है।

साल 2007 में शिंजो एबे की पहल पर अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच ‘क्वाड्रिलेटरल डायलॉग’ शुरू हुआ है। यह संवाद अभी परिभाषा के दौर में है। भारत इसमें शामिल तो होना चाहता है, पर चीन पर दबाव बनाने के लिए नहीं। दूसरी तरफ चीनी नौसेना की उपस्थिति हिंद महासागर में बढ़ने से भारतीय नौसेना के विस्तार की जरूरत भी बढ़ रही है। चीन ने जिबूती में अपना सैनिक अड्डा बना लिया है। श्रीलंका और मालदीव में उसने अपनी गतिविधियां बढ़ाई हैं।

यह एक दूसरा अंतर्विरोध है, जो भारतीय विदेश-नीति को प्रभावित करेगा। भारत और चीन के रिश्ते सहयोगी और प्रतिस्पर्धी दोनों तरह के हैं। प्रतिस्पर्धा केवल सीमा विवाद तक सीमित नहीं है। चीन हमारा सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी है, पर इस कारोबार में भारी असंतुलन है। अमेरिका के साथ कारोबारी युद्ध के बाद चीन का रुख हमारे प्रति कुछ नरम हुआ है। वुहान वार्ता के बाद चीन ने भारतीय औषधियों और दूसरे माल के लिए अपने दरवाजे खोले हैं। चीनी उभार को लेकर अमेरिका और जापान चिंतित हैं।

एशिया-प्रशांत क्षेत्र (जिसे अब हिंद-प्रशांतक्षेत्र कहा जा रहा है) आने वाले समय में शीतयुद्ध का केंद्र बने, तो आश्चर्य नहीं होगा। सागर मार्गों की सुरक्षा एक पहलू है। दूसरा पहलू है भविष्य की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करना। दक्षिण चीन सागर में पेट्रोलियम की प्रचुर संभावनाएं हैं। पर चीन और उसके पड़ोसी देशों के बीच सीमा को लेकर विवाद हैं। वियतनाम ने भारत को इस इलाके में तेल खोज का काम सौंपा है। इस इलाके में वियतनाम भी हमारे महत्वपूर्ण मित्र देश के रूप में उभरा है।

अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भागीदारी

भारत जी-20 का सदस्य है। ‘ग्रुप ऑफ ट्वेंटी’ 19 देशों और यूरोपीय यूनियन का अंतरराष्ट्रीय फोरम है, जिसका उद्देश्य वैश्विक वित्तीय स्थिरता को बनाए रखना है। जी-20 देशों की अर्थव्यवस्था दुनिया की जीडीपी की 90 फीसदी के बराबर है और दुनिया का 80 फीसदी व्यापार इन्हीं देशों के बीच होता है। एक समय तक जी-8 समूह वैश्विक अर्थव्यवस्था के संचालक माने जाते थे, पर अब जी-20 यह काम कर रहा है।


बहरहाल भारत की इस संगठन में महत्वपूर्ण भूमिका है, जो अब और बढ़ेगी। साल 2022 में भारत जी-20 शिखर सम्मेलन की मेजबानी भी करने जा रहा है। नवंबर 2010 में बराक ओबामा ने भारत यात्रा के दौरान कहा था कि अमेरिका कोशिश करेगा कि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने के लिए समर्थन जुटाया जाए। एक अरसे से भारत की दावेदारी इसके लिए चल रही है। भारत संयुक्त राष्ट्र के सबसे सक्रिय देशों में है। क्या हम अगले कुछ वर्षों में संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सीट हासिल कर सकते हैं?

यह काम आसान नहीं है। अलबत्ता अगर हम सार्क को सक्रिय कर सकें तो यह दावेदारी बढ़ सकती है। सार्क में चीन को भी शामिल करने की कोशिश कुछ देश कर रहे हैं। भारत इसका समर्थक नहीं है, क्योंकि इससे हमारा महत्व कम हो जाएगा। पर हाल में हम पाकिस्तान के साथ शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य बने हैं। चीन के साथ हम ब्रिक्स में शामिल हैं। लंबे अरसे तक भारत पूर्व एशिया के देशों से कटा रहा।

आसियान की स्थापना 1967 में हुई थी, तब हम रूसी प्रभाव में थे और इसे हमने अमेरिकी प्रभाव का संगठन माना था। इसे 42 साल हो गए हैं। बहरहाल पीवी नरसिंहराव के समय में भारत की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ की बुनियाद पड़ी और 1992 में भारत इसका डायलॉग पार्टनर बना। दिसंबर 2012 में भारत ने जब आसियान के साथ सहयोग के बीस साल पूरे होने पर समारोह मनाया तब तक हम ईस्ट एशिया समिट में शामिल हो चुके थे और हर साल आसियान-भारत शिखर सम्मेलन में भी शामिल होते हैं। भारत की लुक ईस्ट पॉलिसी का प्रस्थान बिंदु आसियान है।

अक्टूबर 2014 में चीन की पहल पर एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) के गठन की घोषणा की गई थी। भारत भी इसके संस्थापक सदस्यों में से एक है। वस्तुतः विश्वबैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और एशियाई विकास बैंक के समांतर यह बैंक एक नई संस्था के रूप में सामने आया है। भारत को अपने आधार ढांचे के विकास के लिए तकरीबन एक लाख करोड़ डॉलर (एक ट्रिलियन) की जरूरत है, जिसे विश्वबैंक और एडीबी पूरा नहीं कर सकते हैं। इस बैंक से भारत के लिए नए विकल्प खुलेंगे।

चीनी पूंजी के निवेश के लिए दूसरे देशों के मुकाबले भारतीय अर्थव्यवस्था सुरक्षित और स्थिर साबित होगी। इन सब बातों के बावजूद भारत अपनी भावी रक्षा रणनीति के मद्देनज़र अमेरिका- जापान और ऑस्ट्रेलिया के संपर्क में बना रहेगा। अमेरिका ने भारत को नाभिकीय ऊर्जा से जुड़े चार अंतरराष्ट्रीय समूहों में प्रवेश दिलाने का आश्वासन दिया था। ये न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप, मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम, 41 देशों का वासेनार अरेंजमेंट और चौथा ऑस्ट्रेलिया ग्रुप है। ये चारों समूह सामरिक तकनीकी विशेषज्ञता के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं।

एनएसजी की सदस्यता चीनी प्रतिरोध के कारण अभी तक नहीं मिल पाई है। सारे मसले सामरिक नहीं हैं। हमारी समस्या पूंजी निवेश की भी है और तकनीकी महारत की भी। देश में खुशहाली होनी चाहिए। इस लिहाज से विदेश-नीति के लक्ष्य उससे कहीं ज्यादा बड़े हैं, जितने समझे जा रहे हैं।

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