जुमले तो खूब उछले हैं, पर मैली ही रहेगी गंगा

गंगा वैसे ही प्रदूषित रहने वाली है जैसी अभी है। वर्तमान सरकार ने शुरू से ही गंगा सफाई के काम को एक दिखावे की तरह किया है।

फोटो: महेन्द्र पाण्डेय
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महेन्द्र पांडे

गंगा नदी फिर सुर्खियों में है। उमा भारती के हाथ से गंगा सफाई का काम नितिन गडकरी के पास आ गया। उमा भारती लगातार यह बताती रही थीं कि 2016 तक गंगा इतनी साफ होगी, 2017 तक गंगा और साफ होगी, 2018 तक तो पूरी ही साफ हो जायेगी। उमा भारती यह सब कहती रहीं, पर गंगा और प्रदूषित होती चली गई। अंत में उन्होंने गंगा के साफ न होने का सारा दोष राष्ट्रीय हरित न्यायालय पर डाल दिया। अब नितिन गडकरी जी आये हैं, आते ही उन्होंने बताया गंगा एक साल में साफ हो जायेगी। फिर तीन दिनों बाद बताया, गंगा की सफाई का परिणाम तीन महीनों में आ जायेगा।

लेकिन लगता है गंगा वैसे ही प्रदूषित रहने वाली है जैसी अभी है। वर्तमान सरकार ने शुरू से ही गंगा सफाई के काम को एक दिखावे की तरह किया है। गंगा सफाई अभियान का नाम ‘नमामि गंगे‘ हो गया और मोदी जी को बनारस में गंगा ने बार-बार बुलाया। गंगा सफाई का केन्द्र बनारस तो वैसे भी नहीं होना चाहिए क्योंकि न तो बनारस गंगा के उद्गम का शहर है और न ही यहां की गंगा सबसे प्रदूषित है। बनारस में भी जो काम शुरू किये गये वे नदी को साफ करने से कोसों दूर थे। बड़े और सुंदर घाट बनाये गये, इन पर आरती का पैमाना बड़ा होता गया - इन सबसे नदी और उपेक्षित होती गई। घाट बनाने के क्रम में गंगा और प्रदूषित होती गई क्योंकि मशीनों के उपयोग से जो मिट्टी के टीले हटाये गये, उसका एक बड़ा भाग नदी में मिल गया।



फोटो: महेन्द्र पाण्डेय
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सुबह और शाम की आरती के पहले घाटों को धोया जाता है। इसके लिए मोटर लगाकर मोटी पाइप से सीधा पानी नदी से निकाला जाता है। यह प्रक्रिया ही गैर-कानूनी है, मोटर लगाकर नदी से सीधा पानी निकालना वर्जित है। इसके बाद जब घाटों को धोया जाता है तब जाहिर है सारा पानी गंदगी समेटे हुए गंगा में ही जायेगा, पर इस पर किसी का ध्यान नहीं है।

नितिन गडकरी ने यह भी बताया था कि अधिकतर मल-जल उपचारण संयंत्र का काम शुरू हो गया है और जल्दी ही पूरा भी हो जायेगा। यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि गंगा जैसी नदी को साफ करना एक सामाजिक विषय है, पर आप यदि सारा तकनीकी ओर अभियांत्रिक ज्ञान लगा भी दें तब भी सामाजिक समस्याओं को दूर किये बिना नदियों को साफ नहीं किया जा सकता। बनारस में बहुत बड़ी संख्या में लोग आकर गंगा में नहाते हैं। ऐसा नहीं है कि सारे नहाने वाले लोग श्रद्धा और भक्ति के कारण गंगा में डुबकी लगाते हैं। बनारस के बड़े हिस्से में जल आपूर्ति का पर्याप्त तंत्र नहीं है, इसलिए बड़ी आबादी का गंगा में नहाना, गंगा में कपड़े साफ करना और गंगा में भैसों को नहलाना एक मजबूरी है।

शहरों के घरों में पानी का उपयोग होता है, वही पानी अपने साथ सारी गंदगी समेटे बाहर नालियों में आता है। कई जगह नालियां नहीं भी होती हैं, तब गंदा पानी आसपास की जमीन या तालाबों में फैलता है। नालियों और नालों के तंत्र को मल-जल तंत्र कहा जाता है। आदर्श व्यवस्था में शहर के हरेक घर, हरेक व्यावसायिक प्रतिष्ठान और औद्योगिक इकाईयां इस तंत्र से जुड़े होते हैं। इससे गंदा पानी एक जगह एकत्रित किया जा सकता है और फिर उसे उपचारित या साफ किया जा सकता है। गंदे पानी को साफ करने के बाद इसका सिंचाई में आसानी से उपयोग किया जा सकता हे।



फोटो: महेन्द्र पाण्डेय
फोटो: महेन्द्र पाण्डेय

बनारस समेत हरेक शहर में मल-जल तंत्र की हालत खराब रहती है। किसी भी शहर में पूरी आबादी इस तंत्र से नहीं जुड़ी है, इसलिए कुल गंदे पानी की मात्रा भी नहीं पता है। गंदे पानी का इधर-उधर खाली जमीन पर फैलना आम बात है। ऐसी अवस्था में मल-जल उपचारण संयंत्र एक खर्चीला दिखावा होकर रह जाता हैं। कई जगह ऐसे संयंत्र स्थापित कर दिये जाते हैं, पर गंदे पानी को उन तक पहुंचने में कई साल लग जाते हैं और दूसरी जगहों पर उपचारण संयंत्र की क्षमता से अधिक गंदा पानी आ जाता है। हमारे देश में जो उपचारण संयंत्र स्थापित किये जाते हैं उनमें बिजली की अत्यधिक खपत होती है और लगातार बिजली की जरूरत भी। इन कारणों से करोड़ों रूपये खर्च करने के बाद भी जल संसाधनों के प्रदूषण में कमी नहीं आती।

एनवायर्नमेंट रिसर्च लेटर्स नाम के जर्नल में प्रकाशित एक शोध-पत्र के अनुसार गंदे पानी की समस्या को अब तक जितना समझा गया है, वह उससे कहीं अधिक गंभीर है। इससे शहरी क्षेत्रों में लोगों के स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव पड़ रहे हैं। जियोग्राफिक इन्फॉर्मेशन सिस्टम आधारित इस अध्ययन में पूरे विश्व के शहरी क्षेत्रों से उत्पन्न गंदे पानी का सिंचाई में प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर उपयोग देखा गया है। विश्व में लगभग 3 करोड़ हेक्टेयर भूमि की सिंचाई गंदे पानी से की जा रही है जो पुराने अनुमानों से लगभग 50 प्रतिशत अधिक है। लगभग 65 प्रतिशत सिंचित भूमि शहरी क्षेत्रों से 40 किलोमीटर के दायरे में है जो पूरी तरह गंदे पानी पर निर्भर है। ऐसे ज्यादातर इलाके 70 देशों में स्थित है जहां गंदे पानी का उपचारण या तो किया ही नहीं जाता या फिर पर्याप्त उपचारण नहीं होता। इससे लगभग 88 करोड़ आबादी, किसान और इससे अन्य जुड़े लोगों का स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। चीन, भारत, पाकिस्तान, मेक्सिको और ईरान इस प्रकार की सिंचाई में पांच अग्रणी देश हैं।

इस अध्ययन से स्पष्ट होता है कि शहरों से उत्पन्न गंदे पानी का कितने व्यापक पैमाने पर सिंचाई में उपयोग किया जा रहा है और पर्यावरण सुरक्षा और जन स्वास्थ्य के लिये इसे साफ करने के लिए शीघ्र कदम उठाने की आवश्यकता है। इस अध्ययन के सह लेखक इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक पे ड्रेशल के अनुसार यह अध्ययन दूसरे अध्ययनों से इसलिए अलग है क्योंकि इसमें गंदे पानी से सीधी सिंचाई के बाद उस पानी को भी देखा गया है जो नदियों में जाकर उसे प्रदूषित करता है और फिर उससे सिंचाई की जाती है। लोगों के स्वास्थ्य के खतरों को सुरक्षित सिंचाई और बाजार में बेहतर साफ-सफाई से कम किया जा सकता है। ड्रेशेल के अनुसार गंदे पानी को साफ करने के बाद इसके तमाम उपयोग किये जा सकते है पर ऐसा होता नही है। सही नीतियों, प्रौद्योगिकी और आर्थिक प्रोत्साहन की मदद से गंदे पानी को एक संसाधन बनाया जा सकता है। इस दिशा में सघन जागरूकता कार्यक्रमों की आवश्यकता भी है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण के जल संसाधन विशेषज्ञ बिर्गि लाभिजान के अनुसार गंदे पानी को पर्याप्त साफ कर जन स्वास्थ्य पर निवेश और साफ पानी के संसाधनों के बोझ को कम किया जा सकता है। गंदे पानी का असर आबादी के साथ ही जल संसाधनों पर भी पड़ता है। विकासशील देशों की लगभग एक तिहाई नदियां गंदे पानी में पनपने वाले रोग कारक जन्तु और जीवाणुओं से प्रभावित हैं।

जुमले तो खूब उछले हैं, पर मैली ही रहेगी गंगा

निर्बाध शहरीकरण ने जल संसाधनों पर दोगुना बोझ डाला है। शहरों में साफ पानी की खपत बढ़ रही है और उत्पन्न गंदे पानी की मात्रा भी बढ़ रही है। इस गंदे पानी को साफ किये बिना नालों, जमीन और नदियों में बहा दिया जाता है। इससे प्रदूषण का स्तर बढ़ने के साथ ही तमाम रोगों के पनपने की संभावना बढ़ती है। इस दिशा में हमारे देश को ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि हम भी कम जल उपलब्धता वाले क्षेत्र की तरफ बढ़ रहे हैं।

गंगा या किसी अन्य नदी के प्रदूषण के मसले पर हम शुरू से ही लापरवाह रहे हैं और नमामि गंगे के बाद भी सब कुछ वैसा ही है। हम अपनी नदियों को समझते नहीं और दूसरे देशों से नदियों की सफाई में मदद मांगने लगते हैं।

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Published: 20 Sep 2017, 5:56 PM