अन्नदाता के साथ मोदी सरकार का अन्याय: आय दोगुनी होना तो दूर, लागत निकालना भी मुश्किल

मोदी सरकार का दावा है कि उसने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में ऐतिहासिक वृद्धि की है, लेकिन यह सरासर झूठ है। यह सरकार कुछ ही साल में किसानों की आय दोगुनी करने के हवा-हवाई दावे कर रही है। इस सरकार से ज्यादा तो यूपीए की दोनों सरकारों में एमएसपी बढ़ाया गया।

फोटोः सोशल मीडिया
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अटल तिवारी

बीजेपी ने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान किसानों से वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आई तो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाकर लागत का डेढ़ गुना करेगी। किसान झांसे में आ गए और इसका असर हुआ कि 2014 के चुनाव में उन्होंने बीजेपी को सत्ता सौंप दी। लेकिन सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने किसानों से आंखें फेर लीं। साल बीतते गए और किसानों की स्थिति खराब होती गई। फसल की उत्पादन लागत लगातार बढ़ती गई, लेकिन उस अनुपात में उसकी कीमत नहीं बढ़ी। इसी दौरान नोटबंदी से जो कमर टूटी सो अलग।

इसी वजह से अब पूरे देश में किसान सत्ताधारी दल बीजेपी से नाराज हैं। किसान संगठनों के दबाव में बढ़ाए गए एमएसपी को सरकार वादे के मुताबिक लागत से डेढ़ गुना करने की बात कह रही है। मोदी सहित पूरी बीजेपी इसे ऐतिहासिक बता रही है।

सरकार के अनुसार सामान्य किस्म की धान में 200 रुपये क्विंटल की रिकॉर्ड बढ़ोतरी और अन्य खरीफ फसलों के एमएसपी में 52 फीसदी तक वृद्धि की गई है। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) का अनुमान था कि धान की खेती की लागत 1,116 रुपये प्रति क्विंटल आती है। इसी आधार पर सरकार ने धान की सामान्य किस्म का मूल्य 200 रुपये बढ़ाकर 1750 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया। ए-ग्रेड के धान का मूल्य 180 रुपये बढ़ाकर 1770 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया। साथ ही ज्वार, बाजरा, रागी, मक्का, अरहर, मूंग, उड़द, मूंगफली, सूरजमुखी, सोयाबीन, तिल, काला तिल व कपास की दो किस्मों की कीमतों में भी बढ़ोतरी का सरकार बखान कर रही है।

आयोग एमएसपी तय करते समय मुख्य रूप से तीन आधारों पर विचार करता है। पहला ए-2 है। इसमें जुताई, बुवाई, बीज, खाद से लेकर सिंचाई, मजदूरी, मशीनरी और पट्टे पर ली जाने वाली जमीन आदि का खर्च होता है। दूसरा ए-2 प्लस एफएल है। इसमें ए-2 के साथ किसान परिवार का पारिश्रमिक जुड़ जाता है। तीसरा सी-2 है, जो लागत मूल्य के आकलन का सबसे व्यापक आधार है। इसमें खेती का वास्तविक खर्च, किसान परिवार के श्रम (ए-2 प्लस एफएल) के साथ जमीन का किराया और खेती के काम में लगी पूंजी पर ब्याज भी जोड़ा जाता है। इस तरह अगर सी-2 को आधार मानें तो एमएसपी में वृद्धि डेढ़ गुना से काफी कम बैठती है।


इसे इस तरह समझा जा सकता है कि ‘धान की आंशिक लागत यानी ए-2 प्लस एफएल 1,166 रुपये प्रति क्विंटल तय की गई, जबकि सी-2 लागत 1,560 रुपये में 50 फीसद जोड़ें तो लागत 2,350 रुपये हो जाती है। आंशिक और पूर्ण लागत पर आधारित एमएसपी में 590 रुपये का अंतर है जो किसानों के साथ धोखा है।’ स्वामीनाथन आयोग ने इसी तीसरे व्यापक आधार वाले सी-2 पर 50 फीसदी अधिक एमएसपी देने की सिफारिश की थी। किसान संगठन भी इसी आधार पर मूल्य तय करने की मांग कर रहे हैं, जबकि सरकार ने ए-2 प्लस एफएल को आधार बनाया है।

मोदी सरकार से पहले कांग्रेस की यूपीए- 2 की सरकार ने 2012-13 में धान के एमएसपी में 170 रुपये क्विंटल की बढ़ोतरी की थी तो यूपीए-1 सरकार ने 2008-09 में 155 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ाया था। लेकिन अगर अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए-1, डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-1 और 2 सरकार से लेकर वर्तमान मोदी सरकार पर गौर करें तो एनडीए-1 में सबसे कम 32.53 फीसदी बढ़ोतरी हुई थी। मोदी सरकार में उससे थोड़ा ज्यादा 33.58 फीसदी बढ़ी। इससे कहीं अधिक यूपीए-2 सरकार ने बढ़ाया, जो 45.50 फीसदी था। जबकि सबसे अधिक 63.63 फीसदी की बढ़ोतरी यूपीए-1 सरकार में हुई। ऐसे में मोदी सरकार की ऐतिहासिक बढ़ोतरी वाली बात झूठी है।

इसके अलावा जिस तरह मोदी सरकार कुछ ही साल में किसानों की आमदनी दोगुनी करने के दावे कर रही है, वह भी हवा-हवाई है। सरकार ने इस झूठ को साबित करने का असफल प्रयास करते हुए ये भी दावा किया उसके शासन में किसानों की आमदनी दोगुनी से भी अधिक होने लगी है। इसके लिए मोदी ने छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के तीन किसानों से 20 जून 2018 को कान्फ्रेंसिंग के माध्यम से बात कर देशवासियों को गुमराह करने का प्रयास किया। तीनों ने मनगढ़ंत कहानी बताई कि कैसे उनकी आमदनी दोगुनी से भी अधिक हो गई है, लेकिन बाद में पता चला कि वह सब फर्जी था।

देश के किसान मोदी की 2022 तक आय दोगुनी करने की घोषणा से चकित हैं कि आखिर उनकी मासिक या सालाना आय है ही कितनी जो 2022 में दोगुनी हो जाएगी। अभी तक किसानों की आय तय नहीं है, जिसकी किसान संगठन लगातार मांग कर रहे हैं। आम तौर पर सभी किसान संगठनों की इस मसले पर एक राय है कि न्यूनतम 22 हजार से लेकर 18 हजार रुपये महीना आय सुनिश्चित की जाए, जिसका नियमित भुगतान सरकारी खजाने से किया जाए।


अगर वह यह काम नहीं कर सकती तो उन्हें बाजार मूल्य और एमएसपी के अंतर की भरपाई करनी चाहिए, क्योंकि यह बात जगजाहिर है कि एमएसपी घोषित होने के बावजूद किसानों की फसलों की कुछ ही प्रतिशत खरीदारी होती है। उन्हें मजबूरी में कम दामों पर फसल बेचनी पड़ती है। कई बार दाम इतने कम मिलते हैं कि किसान को मंडी तक ले जाने का खर्च भी नहीं निकलता। ऐसे में किसान सीने पर पत्थर रखकर फसल को सड़कों पर फेंक देते हैं अथवा खेतों में ही नष्ट कर देते हैं। किसानों के लिए यह कदम एक तरह से आत्मघाती है। यह आत्महत्या से पहले उठाया गया उनका आखिरी कदम होता है।

इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि सरकारें एमएसपी पर किसानों की शत-प्रतिशत सभी फसलें नहीं खरीद सकतीं। वे एक निश्चित सीमा तक भंडारण स्तर बनाए रखने और जन वितरण प्रणाली आदि के लिए फसलों की खरीद करती हैं। शत-प्रतिशत खरीद न करने की बड़ी वजह भंडारण की समस्या भी है। देश में अनाज भंडारण की समस्या जटिल है। इसी वजह से मोदी सरकार के खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री ने पिछले दिनों गेहूं की खरीद के लिए हाथ खड़े कर दिए।

एमएसपी के मामले में सरकारें मानती हैं कि खेती-किसानी में आने वाली वास्तविक लागत को अगर आधार बनाया जाएगा तो फसलों की कीमत बहुत ज्यादा बढ़ानी पड़ेगी। इससे खाने-पीने की चीजों के और अधिक महंगा होने की आशंका है। लेकिन वे यह नहीं सोचतीं कि इस आधार पर खेती को घाटे का सौदा भी नहीं बनने दिया जा सकता। इसके लिए किसान को हो रहे नुकसान की भरपाई के लिए नए तरीके खोजने होंगे। केवल एमएसपी तय करने से यह भरपाई होने वाली नहीं है। इससे खेती की दशा में पूरी तरह सुधार भी नहीं होगा।

किसानों की नाराजगी और चुनाव को ध्यान में रखते हुए 12 सितंबर, 2018 को मोदी सरकार ने 15,053 करोड़ रुपये की फसल खरीद नीति की घोषणा की। दो वित्तीय वर्ष के लिए ‘प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम-आशा)’ के तहत तीन योजनाएं चलाई जाएंगी। जब बाजार में फसल की कीमत एमएसपी से कम होगी तो राज्य सरकारें इन योजनाओं में से किसी एक का चुनाव कर किसानों को भुगतान कर सकेंगी।

इस योजना से बेशक राज्यों को एमएसपी चुकाने में मदद मिलेगी, लेकिन इससे भी किसानों को कितना लाभ मिलेगा, यह आने वाला समय ही बताएगा। फिलहाल तो देश का किसान मोदी सरकारी की हवा-हवाई घोषणाओं और दावों की भूल-भुलैया में उलझकर रह गया है। सरकार कागजों में जो भी कह ले, किसान इतना जानते हैं कि उनका जीना मुहाल है, उनके लिए खेती-किसानी से पेट पालना उचककर आकाश छूने जैसा हो गया है। जाहिर है, नाराजगी तो होगी।

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