गांधी जयंती विशेष : बुलेट ट्रेन के बदले भारत से गांधी दर्शन मांगा था जापानियों ने   

जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे जब भारत में बुलेट ट्रेन परियोजना का शिलान्यास करने आए थे, जापानी चाहते थे कि उनके प्रधानमंत्री बदले में वहां से केवल गांधीवादी मूल्य और दर्शन ले आएं।

फोटो : Getty Images
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ऋतुपर्ण दवे, IANS

किसी की कोई भी विचारधारा हो, लेकिन इस हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता कि 21वीं सदी में भी गांधीवाद वह करिश्माई दर्शन है, विचारधारा है, जिसके जरिए आज भी विदेशों में शांति, सद्भाव और एकात्मकता को ढ़ूंढ़ा जाता है।

एक वाकया, इसी 16 सितंबर का है। जापान की काओरी कुरिहारा नामक महिला ने भारत में करीब 8 साल गुजारे और उन्होंने इस दौरान गांधी दर्शन को पढ़ा-समझा और गांधी दर्शन से जुड़ने का सतत प्रयास किया। कुरिहारा अब अपना ज्ञान जापान में फैला रही हैं।

वह कहती हैं, "मेरे प्रधानमंत्री शिंजो आबे जब अहमदाबाद में बुलेट ट्रेन परियोजना का शिलान्यास करने और जापानी तकनीक देने भारत गए थे तो मेरी इच्छा थी कि वह जापानी नागरिकों के लाभ के लिए भारत से बदले में केवल गांधीवादी मूल्य और दर्शन ले आएं।" यानी बुलेट ट्रेन के बदले में गांधी को भारत से लाएं।

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जयंती विशेष : बुलेट ट्रेन के बदले भारत से गांधी दर्शन मांगा था जापानियों ने   

महात्मा गांधी अहिंसावादी थे और अन्याय के विरोध में अपनी आवाज उठाते थे। उनमें यह दोनों गुण शुरू में नहीं थे। अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का अस्त्र उन्हें कस्तूरबा गांधी से मिला। विवाह बचपन में हुआ तब, वह पत्नी को नियंत्रण में रखना चाहते थे। लेकिन कस्तूरबा खुले विचारों की थीं। हर सवाल का जवाब नहीं देती थीं। हां, कई बार तार्किक बहस जरूर कर बैठती थीं।

अन्याय का दृढ़ता से विरोध करने की प्रेरणा उनकी कस्तूरबा ही थीं। इसी तरह अहिंसा के गुण भी उनमें शुरु से नहीं थे। कहते हैं कि जब बैरिस्टर की पढ़ाई करने गांधी विदेश गए थे, तभी एक दिन तांगे में बैठने की जगह को लेकर एक अंग्रेज ने उनसे हाथापाई की। उन्होंने हाथ तो नहीं उठाया, लेकिन चुप रहकर विरोध प्रदर्शित किया। यहीं से नौजवान गांधी को 'मूक विरोध' करने या कहें कि अहिंसा का अस्त्र मिला।

उनके उपवास का भी रोचक प्रसंग है। विदेश में पढ़ाई के दौरान वह बीमार पड़े। चिकित्सक ने गोमांस का सूप पीने की सलाह दी। बीमारी और कड़ाके की ठंड के बावजूद उन्होंने सिर्फ दलिया खाया। उन्हें भरोसा हुआ कि भूख पर काबू रखा जा सकता है और गांधीजी को उपवास रूपी अस्त्र मिला। गांधीजी दोनों हाथों से लिखने में पारंगत थे। समुद्र में डगमगाते जहाज, तो चलती मोटर और रेलगाड़ी में भी फर्राटे से लिखते थे। एक हाथ थक जाता, तो दूसरे से उसी रफ्तार में लिखना गांधीजी की खूबी थी।

उन्होंने 'ग्रीन पैम्पलेट' और 'स्वराज' पुस्तक चलते जहाज में लिखी थीं। यकीनन, जहां लोग अपने काम को लोकार्पित करते हैं, वहीं गांधी ने अपना पूरा जीवन ही लोकार्पित कर रखा था। विलक्षण गांधी अपने पूर्ववर्ती क्रांतिकारियों से जुदा थे। शोषणवादियों के खिलाफ अहिंसात्मक तरीके अपनाकर स्वराज, सत्याग्रह और स्वदेशी के पक्ष को मजबूत कर वैचारिक क्रांति के पक्षधर गांधीजी साधन और साध्य को एक जैसा मानते थे। उनकी सोच थी कि सत्य और अहिंसा एक सिक्के के दो पहलू हैं। रचनात्मक संघर्ष में असीम विश्वास रखने वाले गांधीजी मानते थे कि जो जितना रचनात्मक होगा, स्वत: ही उसमें उतनी संघर्षशीलता के गुण आएंगे।

उनका मानना था कि स्वतंत्र राष्ट्र ही दूसरे स्वतंत्र राष्ट्रों के साथ मिलकर वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना फलीभूत कर सकेंगे। वह स्वराज के साथ अहिंसक वैश्वीकरण के पक्षधर थे, ताकि दुनिया में स्वस्थ, सुदृढ़ अर्थव्यवस्था हो। गांधीजी मानते थे कि पश्चिमी समाजवाद, अधिनायकतंत्र है, जो एक दर्शन से ज्यादा कुछ नहीं। जहां मार्क्‍स के अनुसार आविष्कार या निर्माण की प्रक्रिया मानसिक नहीं, शारीरिक है जो परिस्थितियों और माहौल के अनुकूल होते रहते हैं। वहीं गांधीजी इससे सहमत नहीं थे कि आर्थिक शक्तियां ही विकास को बढ़ावा देती हैं। यह भी नहीं कि दुनिया की सारी बुराइयों की जड़ आर्थिक कारण ही हैं। राजपूत युद्धों को देखें, तो इनके पीछे आर्थिक कारण नहीं थे।

आध्यात्मिक समाजवाद के पक्षधर महात्मा ने इतिहास की आध्यात्मिक व्याख्या की है। यह उतना ही पुराना है, जितना पुराना व्यक्ति की चेतना में धर्म का उदय। उन्होंने केवल बाह्य क्रियाकलापों या भौतिकवाद को सभ्यता-संस्कृति का वाहक नहीं माना, बल्कि गहन आंतरिक विकास पर बल दिया। वह मानते थे कि पूंजी और श्रम के सहयोग से ही उत्पादन होता है, जबकि संघर्ष से उत्पादन ठप पड़ता है।

गांधीजी की सादगी रूपी अस्त्र के भी अनगिनत किस्से हैं। सन् 1915 में भारत लौटने के बाद कभी पहले दर्जे में रेल यात्रा नहीं की। तीसरे दर्जे को हथियार बना, रेलवे का जितना राजनीतिक इस्तेमाल गांधीजी ने किया, उतना शायद अब तक किसी भारतीय नेता ने नहीं किया।

अब चाहे हरियाणा के मंत्री अनिल विज खादी के गांधी ट्रेडमार्क पर तंज कसें या अमित शाह चतुर बनिया बताएं, महात्मा गांधी भारत ही नहीं, समूची दुनिया के लिए अब भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने जीते जी थे। याद रखना होगा कि गांधी एक विचारधारा हैं, दर्शन हैं, आईना हैं, जो शाश्वत है, सदैव प्रासंगिक है, कभी मरता नहीं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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