अंधेरे पल में उजाला बिखेरते कश्मीरी, लोगों को बांटने की कोशिशें होंगी नाकाम
इसके पहले कभी मस्जिदों से आतंकवाद की निंदा करते हुए बंद का आह्वान नहीं किया गया। न ही कभी सड़कों पर इतने लोग निकले जिनके हाथों में 'हम भारतीय हैं' के बैनर थे।

'याद नहीं पड़ता कि कश्मीर ने कभी इतने सदमे, शर्म और गुस्से से भरी प्रतिक्रिया दी हो। भर्तस्ना, विरोध और शोक को जो प्रदर्शन पहलगाम की बैसरन घाटी में पर्यटकों पर हुए आतंकी हमले के एक दिन बाद 23 अप्रैल को दिखाई दिया, वह इसके पहले कभी दिखा हो।' यह प्रतिक्रिया है श्रीनगर के पत्रकार मुजफ्फर रैना की। जब एक ओर उकताहट और दुख एकाएक स्वतः स्फूर्त ढंग से उभर आए, दूसरी ओर सुरक्षा बलों की बड़ी कार्रवाई का डर भी था। फौजी बूटों की आवाज अभी भी लोगों के जेहन में बसी हुई है।
पहलगाम के आतंकवादी हमले के बाद सबसे बड़ी प्रतिक्रिया सरकारी बयानों में नहीं, बल्कि वहां की सड़कों पर देखने को मिली। राजनीतिज्ञ भी पूरी घाटी से उठी इस आवाज के साथ खड़े दिखाई दिए। उन सबका संदेश साफ था- कश्मीर में आतंकवाद के लिए कोई जगह नहीं और लोगों को बांटने की सभी कोशिशें नाकाम होंगी। पत्रकार मरवी सिरमद ने इसे बेहतर ढंग से कहा, 'हमारी एकता बिखेरने न दो। हमारा दुख हमें जोड़े, हमें तोड़े नहीं।'
बावजूद इसके कि 1990 से उन्होंने न जाने कितने अपनों को आतंकवाद के हाथों खोया है, आतंकवादियों के खिलाफ खड़े होने का खयाल शायद ही कभी उनके मन में आया हो। वे शायद ही कभी पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ खड़े हुए हों। इसके पहले कभी मस्जिदों से आतंकवाद की निंदा करते हुए बंद का आह्वान नहीं किया गया। न ही कभी सड़कों पर इतने लोग निकले जिनके हाथों में 'हम भारतीय हैं' के बैनर थे। बुजुर्गों को याद नहीं कि उन्होंने पिछली बार कब श्रीनगर, शोपियां और अनंतनाग की सड़कों पर इतने तिरंगे देखे थे।
कश्मीरियों का यह रुदन चीख-चीख कर कह रहा था कि आतंकवाद ने कश्मीरियत, मानवता और उनकी रोजी-रोटी को नुकसान पहुंचाया है।
उद्योग संगठनों से लेकर गृहणियों तक, छात्रों से लेकर दुकानदारों तक, वकीलों से लेकर टैक्सी चालकों तक, सदमे और शोक का भाव हर जगह दिखा। कई शहरों में लोगों ने शोक में मोमबत्ती जलाकर प्रदर्शन किए। संदेश साफ था कि कश्मीर आतंक के खिलाफ है। 'मेरे नाम से नहीं' और 'आतंकवाद स्वीकार नहीं' जैसे नारे पूरी घाटी में दिखाई पड़े। लोगों की भावनाओं में आया यह महत्वपूर्ण बदलाव साफ तौर पर दिख रहा था।
अनंतनाग जिला विकास परिषद के मुहम्मद यूसुफ गोरसी ने इस बदलाव को ज्यादा अच्छे शब्द दिए- 'इस त्रासदी ने हमें अंदर तक हिला दिया है, लोग दुख मना रहे हैं और उनका संदेश साफ है कि आतंकवाद मानवता के साथ विश्वासघात है।' शोक की इस घड़ी में घाटी के प्रमुख अखबारों ग्रेटर कश्मीर, राईजिंग कश्मीर, कश्मीर उज्मा, आफताब और तामील इरशाद ने अपने पहले पेज को काले रंग में प्रकाशित किया।
बैसरन घाटी से आई आतंक की इन खबरों के बीच ही ऐसी कहानियां भी सामने आईं जो कश्मीरी लोगों की बहादुरी और मानवता की मिसाल देती हैं। ये कहानियां उस बांटने वाले नैरेटिव के बिल्कुल विपरीत हैं जो देश के दूसरे हिस्सों में चलाई जा रही हैं।
बहादुरी का एक ऐसा कारनामा दिखाया सैयद आदिल हुसैन शाह ने। वह एक खच्चर वाले हैं जो इस खूबसूरत बुग्याल में पर्यटकों को लाते-ले जाते थे। जब गोलियां चलनी शुरू हुईं, तो आदिल एक पर्यटक को बचाने के लिए आतंकी से भिड़ गए। उन्हें मार दिया गया। उनकी यह बहादुरी आम कश्मीरियों की विश्वसनीयता की मिसाल बन चुकी है। घटना के समय मौजूद एक पर्यटक ने बाद में कहा, 'कश्मीरी पर्यटकों पर इस तरह का हमला नहीं कर सकते। सरकार को बताना होगा कि जो पांच लाख सुरक्षाकर्मी कश्मीर में हैं, वे उस समय कहां थे।'
कहानियां और भी हैं। एक ड्राईवर आदिल का जिक्र जरूरी है। सरकारी मदद आने तक उसने वहां भटक रहे पर्यटकों को उनके होटलों तक पहुंचाया। इसी तरह कपड़ा व्यापारी नज़ाकत की कहानी भी है। जब गोलियां चलीं तो उन्होंने बिना कोई देरी किए 11 पर्यटकों को वहां से ले जाकर अपने घर में शरण दी। इनमें कईं बच्चे भी थे।
हमले के बाद कश्मीर में रह गए पर्यटकों ने भी स्थानीय लोगों के इस जज्बे की गवाही दी। इनमें महाराष्ट्र से आई दो महिलाएं भी शामिल हैं जिन्होंने फौरन कश्मीर छोड़ देने के शुरुआती दबाव के बावजूद यहां रुकने का फैसला किया। उनमें से एक ने कहा, 'हमें डर नहीं है, हमें यहां के लोगों पर पूरा विश्वास है। हमारा ड्राईवर जो शुरू से ही हमारे साथ है, हमें होटल छोड़ने तक कभी हमारा धर्म नहीं पूछा। हमले के बाद उसने अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं की, हमें प्राथमिकता दी।'
एक और पर्यटक, एक हिन्दू महिला ने अपना अनुभव बताया, 'जब हमला हुआ, तो हम डर गए थे लेकिन तब हमारे भाई- हमारे ड्राईवर ने हमें ढांढ़स बंधाया। कहा कि वह अपनी जान दे देगा लेकिन हम पर आंच नहीं आने देगा। यह सच्चा भाईचारा है। भारत ऐसी ही एकता से समृद्ध हो सकता है।'
उदारता की ये मिसाल शब्दों की सीमा से कहीं आगे थी। जम्मू कश्मीर रेडियो टैक्सी एसोसिएशन को जब यह ऐसे मौके पर एयरलाइंस ने किराये बढ़ा दिए हैं, उन्होंने लोगों को बिना पैसे लिए एयरपोर्ट तक पहुंचाया। वहां खच्चर सेवा देने वालों के संगठन पहलगाम पोनीवाला एसोसिएशन के अध्यक्ष वहीद ने हमले के समय तुरंत सक्रियता दिखाई- 'मेरे दिमाग में घायलों की बात आई, मैंने उन्हें बचाने पर ध्यान दिया और उन सबको वापस ले आया।'
कश्मीरी एक्टिविस्ट इनाम उन नबी ने घायल पर्यटक को ले जाते हुए एक स्थानीय आदमी की फोटो शेयर की। उन्होंने लिखा, 'यह असली कश्मीर है। इसकी परिभाषा हिंसा नहीं है, इसकी परिभाषा है जज्बा, साहस और मोहब्बत।'
लोगों का यह बर्ताव हर जगह दिखा, निजी स्तर पर भी और सामूहिक स्तर पर भी। इसीलिए कुछ लोगों ने इसे ऐतिहासिक क्षण बताया है। अर्थशास्त्री और राजनीतिज्ञ हसीब द्राबू ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे एक लेख में इसे 'कश्मीर के अतिथि भाव और मानवता जैसे सामाजिक मूल्यों का एक उदाहरण' बताया। उन्होंने लिखा, 'कश्मीर पर्यटन की कमाई के बिना रह सकता है लेकिन उस नैतिकता के बगैर नहीं जो हमारी पहचान है। पहलगाम में जो हुआ, उसने इन्हीं मूल्यों पर चोट पहुंचाई है।'
यह सब बताता है कि अक्सर कश्मीर को जिस तरह पेश किया जाता है, इसके विपरीत कश्मीर वह जगह है जहां मानवता आज भी बरकरार है, जहां संकट के समय आज भी लोग अद्भुत साहस दिखाते हैं। दुर्भाग्य से शेष भारत में नफरत के कारखाने पहलगाम का इस्तेमाल अपना उत्पादन बढ़ाने में कर रहे हैं। वे इससे विभाजन को और बढ़ा देना चाहते हैं। ऐसे समय में जब कश्मीरी हिंसा के खिलाफ खड़े होने में अपना साहस और नैतिक बल दिखा रहे हैं, बाकी देश को उनके साथ खड़ा होना चाहिए, उन पर संदेह नहीं करना चाहिए।
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