मजदूर दिवस: हम मेहनतकश जग वालों से जब हिस्सा मांगेंगे...

मजदूर दिवस के मौके पर मजदूरों के लिए कई सरकारी आयोजन किए जाते हैं। साथ ही तमाम कागजी योजनाओं की शुरुआत भी की जाती है, लेकिन महीने की दूसरी तारीख यानी 2 मई आते ही सब कुछ भुला दिया जाता है।

फोटो: सोशल मीडिया 
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रमेश ठाकुर/IANS

डिजिटल युग ने मजदूरों की जरूरत को बहुत कम कर दिया है। मजदूरों के हिस्से थोड़ा-बहुत काम आता भी है, तो उसका उन्हें पूरा पारिश्रमिक नहीं मिल पाता। हिंदुस्तान की तरक्की सिक्के के दो पहलू की तरह हो गई। जिसमे खुशहाल और बदहाल शामिल है। दोनों की ताजा तस्वीरें हमारे समक्ष हैं। एक तस्वीर यह दिखाती है कि पहले के मुकाबले देश की शक्ल और सूरत काफी बदल चुकी है। अर्थव्यवस्था अपने पूरे शबाब पर है और कहने को तो उच्च मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग सभी खुशहाल हैं, लेकिन तरक्की की दूसरी तस्वीर भारतीय मजदूरों और किसानों की बदहाली की कहानी को दिखाती है।

जी-तोड़ मेहनत करने के बावजूद मजदूरों को गुजर-बसर करने लायक पारिश्रमिक तक नहीं मिल पाता। मजदूर दिवस के मौके पर मजदूरों के लिए कई सरकारी आयोजन किए जाते हैं। इनकी बदहाली को दूर करने के लिए नेता-नौकरशाह सभी लंबे-लंबे भाषण देते हैं, साथ ही तमाम कागजी योजनाओं की शुरूआत भी करते हैं, लेकिन महीने की दूसरी तारीख यानी 2 मई आते ही सब भुला दिया जाता है।

मजदूर अपने अधिकारों से देश के आजाद होने के बाद से ही वंचित है। कामगार तबका दशकों से पूरी तरह से हाशिए पर है। अगर कुछ बड़े मेट्रो शहरों की बात छोड़ दें तो छोटे कस्बों और गांव-देहातों में मजदूर और किसान महज 100-150 रुपये ही प्रतिदिन कमा पाते हैं, वह भी दस घंटों की जी-तोड़ मेहनत करने के बाद उन्हें मिलता है।

इस बात कि कोई गारंटी नहीं दी जा सकती कि उन्हें रोज ही काम मिल जाए। इतने पैसे में वह अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी भी बमुश्किल से ही जुटा पाता है। भारत की यह तस्वीर यहां के लोग तो देख रहे हैं, लेकिन विदेशों में सिर्फ हमारी चमकीली अर्थव्यवस्था का ही डंका है।

मजदूरों की हालत बहुत ही दयनीय रही है, सियासी लोगों के लिए वह सिर्फ और सिर्फ चुनाव के समय काम आने वाला एक मतदाता है। 5 साल बाद उनका अंगूठा या ईवीएम मशीन पर बटन दबाने का काम आने वाला वस्तु मात्र है।

मजदूरों के हितों के लिए ईमानदारी से लड़ने वाला कोई नहीं है। पहले जिन लोगों ने मजदूरों के नाम पर प्रतिनिधित्व करने का दम भरा, जब उनका उल्लू सीधा हो गया तो वह भी सियासत का हिस्सा हो गए। उन्होंने भी मजदूरों के सपनों को बीच राह में भटकने के लिए छोड़ दिया

मजदूरों की बदहाली से भारत ही आहत नहीं है, बल्कि दूसरे मुल्कों भी परेशान हैं। भूख से होने वाली मौतों की समस्या पूरे संसार के लिए बदनामी जैसी है। झारखंड में एक बच्ची बिना भोजन के दम तोड़ देती है।

जब लोगों को हम भर पेट खाना तक मुहैया नहीं करा सकते, तो किस बात की हम तरक्की कर रहे हैं। भारत में ही नहीं, दुनिया के कई देशों में यह समस्या काफी विकराल रूप में देखी जा रही है।

आकंड़ों के मुताबिक, सिर्फ हिंदुस्तान में रोज 38 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हैं। ओडिशा और पश्चिम बंगाल में तो भूख के मारे किसान और मजदूर दम तोड़ रहे हैं। यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। तमाम तरह के प्रयासों के बावजूद आज तक इस दिशा में कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ सका है। इसके अलावा बिहार, झारखंड, तमिलनाडु और अन्य छोटे राज्यों के कुछ छोटे-बड़े क्षेत्र इस समस्या से प्रभावित होते रहे हैं।

यह वह इलाका है, जहां समाज के पिछड़ेपन के शिकार लोगों का भूख से मौत का मुख्य कारण गरीबी है। इसके विपरीत देश के कई प्रांतों में लोग भूख के बजाय कर्ज और उसकी अदायगी के भय से आत्महत्या कर रहे हैं। यहां गौर करने वाली बात यह है कि गरीबी के कारण भूख से मरने वाले आमतौर पर गरीब किसान और आदिवासी हैं।

मजदूरों की दशा सुधरे, इसके लिए हमारे पास संसाधनों की कमी नहीं है, मगर इसका अव्यवस्था ही समस्या का बुनियादी कारण है। इसका नतीजा है कि ग्रामीण मजदूर लगातार शहरों की ओर भागने को विवश हो रही है। गांवों से शहरों की ओर पलायन कर रही आबादी पर अगर नजर डालें तो यह स्पष्ट होता है कि इनमें गरीब नौजवानों से लेकर संपन्न किसान और पढ़े-लिखे प्रोफेशनल्स तक शामिल हैं।

कतार में खड़े अंतिम आदमी की बात तो हर नेता करता है, लेकिन उसकी बात केवल भाषण तक ही सीमित रह जाती है। उस अंतिम आदमी तक संसाधन पहुंचाने के दावे तो खूब किए जाते हैं, लेकिन पहुंचाने की ताकत किसी में नहीं है। शायद यही कारण है कि गांवों में स्कूल तो हैं लेकिन पढ़ाई गायब है, अस्पताल तो हैं लेकिन डॉक्टर और दवाइयां नहीं हैं। दूरवर्ती गांवों तक पहुंचने को सड़कें हैं, लेकिन वाहन नहीं। प्रशासन है लेकिन अराजक तत्वों का उस पर इतना दबदबा है कि वह उनके आगे नतमस्तक हो जाता है।

मजदूरों के लिए कभी इंकलाबी शायर फैज अहमद फैज ने लिखा था:

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे

इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे ...

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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Published: 01 May 2018, 12:27 PM