लोकसभा चुनाव 2024: बिहार में मोदी-शाह की गलती का खामियाजा चुकाने जा रही बीजेपी!

बीजेपी नेतृत्व ने जिस तरह नीतीश कुमार के साथ गुपचुप रिश्ते रखे, उससे निराश कार्यकर्ता जद(यू) के लिए काम नहीं कर रहे।

फोटो : Getty Images
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सुरुर अहमद

वैसे तो 23 जनवरी, 2024 किसी भी दूसरे दिन जैसा ही था। लेकिन अगर बीजेपी को इस लोकसभा चुनाव में यहां जबर्दस्त शिकस्त का सामना करना पड़ता है, तो यह दिन आम नहीं रह जाएगा। इसे एक अहम मो़ड़ के तौर पर याद किया जाएगा।  

अभी राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से सिर्फ 10 पर मतदान हुआ है और इस नजरिये से चुनाव अभी खुला हुआ है और नतीजों को लेकर अटकलें लगाने का समय नहीं है। लेकिन जिस तरह हवा में उड़ते तिनके बता देते हैं कि हवा किस ओर बह रही है, वैसे ही कुछ हाल इस समय चुनावी फिजां का है। 

23 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न से सम्मानित करने की घोषणा की जिन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री (1977-79) के तौर पर पहली बार राज्य में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण के उप-वर्गीकरण की पहल की थी। कर्पूरी ठाकुर नाई समुदाय से थे जो एक अत्यंत पिछड़ी जाति है, इसलिए बीजेपी के थिंक टैंक का शायद यह मानना था कि भारत रत्न देने से एक ही बार में इस पूरे वर्ग का समर्थन हासिल हो जाएगा। राज्य में अत्यंत पिछड़ा वर्ग की आबादी 36% है। खैर, वापस 23 जनवरी पर लौटते हैं। नीतीश तब आरजेडी-जडी(यू)-कांग्रेस-वाम गठबंधन सरकार के मुखिया थे और अगले ही दिन 24 जनवरी को बीजेपी, जनता दल(यू) और राष्ट्रीय जनता दल कर्पूरी ठाकुर की जन्मशती अलग-अलग मनाने वाले थे।

कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की मोदी की घोषणा का बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तुरंत स्वागत किया जिससे उनके फिर ‘पलटने’ की अटकलें तेज हो गईं। लेकिन बिहार में बीजेपी नेताओं ने ऐसी किसी भी संभावना से इनकार करने में जरा भी समय नहीं गंवाया और 24 जनवरी को बीजेपी द्वारा आयोजित शताब्दी समारोह में प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी और अन्य ने नीतीश की निंदा की और उन्हें एनडीए में शामिल करने के किसी भी कदम का विरोध किया।

इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास है। बिहार बीजेपी के सभी वरिष्ठ नेता दिल्ली बुलाए गए और उन्हें सख्ती से ‘समझा’ दिया गया। 28 जनवरी को नीतीश ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, एनडीए में शामिल हुए और चंद घंटों के भीतर मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए लौट आए। इस बार उनके साथ बीजेपी के सम्राट चौधरी और राज्य विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा थे दो उपमुख्यमंत्रियों के रूप में। 


गले की फांस

26 जुलाई, 2017 को नीतीश की घरवापसी के उलट इस बार बीजेपी कार्यकर्ताओं में उत्साह कम था। इस बात का एहसास था कि 2024 में नीतीश 2005-2013 वाले नीतीश नहीं रहे जब वह बीजेपी के लिए मजबूती थे। गौर करें, वह राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के लिए सबसे खराब दौर था और नीतीश एक विकास पुरुष और संभावित प्रधानमंत्री थे। उन्हें एक कुशल प्रशासक के रूप में सराहा जा रहा था और बिहार को पटरी पर लाने का श्रेय दिया जा रहा था। 

लेकिन तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है और बीजेपी के थिंक टैंक को यह एहसास नहीं हुआ कि वे वास्तव में राजनीतिक भूल कर रहे थे। कुछ ही हफ्तों में उन्हें एहसास हो गया कि नीतीश उनके गले की फांस बन गए हैं। बीजेपी वास्तव में बिहार में हार गई है और दो चरणों का मतदान समाप्त होने के बाद बीजेपी नेताओं को अपनी गलती पर पछतावा हो रहा है। उन्हें अब एहसास हो रहा है कि अगर एनडीए में नीतीश नहीं होते तो उनके लिए बेहतर होता।

23 जनवरी के बाद से कहानी बदल गई, फोकस राम मंदिर से हटकर बिहार के ‘विकास’ पर केंद्रित हो गया। 22 जनवरी को राम मंदिर के अभिषेक तक तो सब बीजेपी के हिसाब से चल रहा था लेकिन फिर सब गड़बड़ हो गया। 

टांय-टांय-फिस्स

जनवरी के मध्य में पटना के एक अंग्रेजी अखबार के एक वरिष्ठ पत्रकार ने उत्साहपूर्वक फोन करके बताया कि कैसे ‘अगले कुछ महीनों में बिहार के कोने-कोने से 55 लाख लोगों को अयोध्या की तीर्थयात्रा के लिए जुटाया जाने वाला है।’ यह अभूतपूर्व लामबंदी 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी विध्वंस की तैयारी से भी बड़े पैमाने की थी। इसके लिए सैकड़ों ट्रेनें और हजारों बसें चलाई जा रही थीं। बमुश्किल एक महीने बाद बिहार में नीतीश के नेतृत्व में नई एनडीए सरकार बनने के कुछ ही हफ्ते बाद उसी पत्रकार ने बातचीत के दौरान स्वीकार किया कि पूरा ‘अयोध्या अभियान’ विफल हो गया है और कैसे जेडी(यू)- बीजेपी सरकार विधानसभा में विश्वास प्रस्ताव जीतने के लिए संघर्ष कर रही है।

राजनीतिक रूप से बीजेपी के लिए यह न केवल वापस शून्य पर पहुंच जाना है बल्कि उससे भी खराब हालत में आ जाना है। अयोध्या के लिए विशेष ट्रेनों और बसों की संख्या लगातार कम होती गई और नई शुरू की गई पटना-अयोध्या हवाई सेवा को 25 अप्रैल को वापस लेना पड़ा क्योंकि 60 से 70 फीसद सीटें खाली जा रही थीं। जैसे-जैसे राज्य में सुस्त चुनाव अभियान आगे बढ़ रहा है, बीजेपी खेमे में यह मानने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है कि उनके साथ उनके नेतृत्व ने ही धोखा किया है। 10 अगस्त, 2022 को जब नीतीश दूसरी बार बीजेपी से अलग हुए, तभी बीजेपी नेताओं को हरी झंडी दे दी गई थी कि वे जैसे चाहें नीतीश पर हमले करें। तभी तो बीजेपी नेता अक्सर नीतीश को धमकी देते थे कि उन्हें जल्द ही ठिकाने लगा दिया जाएगा, सलाखों के पीछे पहुंचा दिया जाएगा… वगैरह-वगैरह।

लेकिन पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने गुपचुप नीतीश से रिश्ता कायम रखा। अब बिहार में बीजेपी पदाधिकारी और कार्यकर्ता ठगा महसूस कर रहे हैं। निचले स्तर पर बीजेपी में उत्साह की कमी है और वे जेडी(यू) उम्मीदवारों की जीत के लिए काम करने में अनिच्छुक हैं। ऐसा केवल इसलिए नहीं है कि नीतीश पर अब और भरोसा नहीं किया जा सकता है बल्कि अटकलें हैं कि वह चुनाव के बाद फिर पाला बदल सकते हैं। 

ज्यादातर निर्वाचन क्षेत्रों में जेडी(यू) एक कैडर-आधारित पार्टी नहीं है, यह बीजेपी कार्यकर्ता ही हैं जो उसके उम्मीदवारों के लिए प्रचार और बूथों का प्रबंधन करते थे। नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी द्वारा जिस तरह सुशील मोदी जैसे वरिष्ठ नेताओं को बर्फ में लगा दिया गया और केन्द्रीय मंत्री अश्विनी चौबे को बक्सर से हटाया गया, उससे भी नाराजगी है। बीजेपी के कई पुराने और भरोसेमंद नेताओं ने चुपचाप खुद को चुनावी लड़ाई से अलग कर लिया है। उनमें से ज्यादातर मोदी-शाह की जोड़ी पर जमीनी फीडबैक और क्षेत्रीय नेताओं की अनदेखी का आरोप लगाते हैं। bihartimes.com के संपादक अजय कुमार बताते हैं कि बीजेपी कार्यकर्ताओं को कॉर्पोरेट सुख-सुविधाओं की आदत हो गई है, वे अब कार्यकर्ताओं की तरह व्यवहार नहीं करते। इसके अलावा, बीजेपी और जेडीयू सांसदों के खिलाफ मजबूत सत्ता विरोधी लहर है। 


डबल नहीं, ट्रिपल इंजन

बीजेपी नेता मुश्किल में हैं क्योंकि बिहार में डबल नहीं, ट्रिपल इंजन की सरकार है। राज्य प्रशासन पर नीतीश की ढीली होती पकड़ का असर लोकसभा चुनाव पर भी पड़ रहा है। शिक्षा विभाग के घटनाक्रम से भ्रम और यहां तक कि अराजकता भी उजागर हुई है। विभाग का नेतृत्व करने वाले अतिरिक्त मुख्य सचिव शिक्षा केके पाठक मुख्यमंत्री और राज्य विश्वविद्यालयों के राज्यपाल-सह-कुलाधिपति दोनों की अवहेलना कर रहे हैं। उन्होंने राज्यपाल द्वारा बुलाई गई कुलपतियों की बैठक में भाग लेने से इनकार कर दिया और पिछले साल जुलाई से प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे छह लाख शिक्षकों के लिए होली, राम नवमी, ईद और सरस्वती पूजा सहित सभी छुट्टियां रद्द कर दीं। केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने तब भड़कते हुए कहा था, ‘क्या यह पाकिस्तान है जहां हिन्दुओं को उनके त्योहार पर छुट्टी नहीं मिलेगी?’ तब उन्होंने नीतीश पर हमला बोला जो राजद के साथ गठबंधन में थे।

जहां शिक्षक राज्य सरकार के खिलाफ खड़े हैं, वहीं कठोर शराबबंदी नीति को लेकर भी गुस्सा है जो बुरी तरह विफल रही है। नेताओं और पुलिस के संरक्षण में समानांतर शराब माफिया उभरा है जो घर पर शराब पहुंचा रहा है जबकि हजारों छोटी ‘मछलियां’ सलाखों के पीछे डाल दी जा रही हैं।

नीतीश की खराब सेहत और उनका भूल जाना गपशप का विषय बन गया है और वह एक दंडित बच्चे की तरह हर मौके पर बीजेपी नेताओं को बार-बार भरोसा दिला रहे हैं कि अब कहीं नहीं जाएंगे।

मोदी और अमित शाह के पास मतदाताओं को देने के लिए कुछ नहीं। उन्होंने इंडिया गठबंधन पर अपना सारा गोला-बारूद खत्म कर दिया है। बीजेपी-लोजपा-आरएलएसपी गठबंधन ने 2014 में विरोधी खेमे में नीतीश के होने के बाद भी 40 में से 31 सीटें जीती थीं। 2019 में एनडीए ने जद(यू) के साथ गठबंधन में 40 में से 39 सीटें जीतीं। लेकिन इस बार यह उपलब्धि दोहराना बेहद मुश्किल लग रहा है। 

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