जिद-जुबान के चलते बीजेपी के जाल में फंसीं ममता, क्या विधानसभा चुनाव तक कर पाएंगी नुकसान की भरपाई?

चुनाव से पहले और बाद में हुई हिंसा में बीजेपी-टीएमसी के 50 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। जो जहां भारी पड़ा, अपनी सियासी जमीन मजबूत करने की कोशिश करता रहा। इस मामले में ममता लालू यादव की तरह काम नहीं कर पाईं जिन्होंने बीजेपी का सिर कभी पूरी तरह नहीं उठने दिया।

फोटोः सोशल मीडिया
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रीता तिवारी

कभी जिस उग्र तेवर और बागी स्वभाव ने ममता बनर्जी को अग्निकन्या का नाम देते हुए आठ साल पहले बंगाल की सत्ता में बिठाया था, वही अब उनके लिए घातक साबित हो रहा है। सांप्रदायिक राजनीति के बल पर बंगाल में तेजी से पांव जमाती बीजेपी उनकी मुसीबतें लगातार बढ़ा रही है। दिक्कत यह है कि बीजेपी उकसा रही है और ममता उसके ट्रैप में फंसती चली जा ही हैं। हाल के लोकसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस को 12 सीटों का नुकसान हुआ, पर ममता में कोई बदलाव होता नजर नहीं आ रहा है।

ममता को अपने बागी और जुझारू तेवरों की वजह से ही बंगाल की अग्निकन्या का विशेषण मिला था। इस तेवर ने ही नंदीग्राम और सिंगुर में जमीन अधिग्रहण-विरोधी आंदोलनों के जरिये वाम मोर्चा के 34 साल के शासनकाल को खत्म कर दीदी के सत्ता में आने की राह साफ की थी। साल 2011 और उसके बाद 2016 में विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस की भारी जीत ने बंगाल में विपक्ष का सूपड़ा लगभग साफ कर दिया था। नतीजतन सरकार के कामकाज पर अंगुली उठाने वाला कोई नहीं था।

ऐसे में, ममता के लिए सत्ता चलाने और फैसले करने में कोई बाधा नहीं थी। यहां तक कि कोलकाता की तमाम सरकारी इमारतों और फ्लाईओवरों को अपने पसंदीदा सफेद-नीले रंग में रंगने और पूरे साल के दौरान तमाम तरह के उत्सव आयोजित करने के उनके फैसलों की विपक्ष ने आलोचना तो की लेकिन वे आवाज नक्कारखाने में तूती बन कर ही रह गई। ममता ने जंगलमहल और दार्जिलिंग की पहाड़ियों में शांति बहाल करने का श्रेय लिया और उन्हें तब वाहवाही भी मिली लेकिन अबकी उन पहाड़ियों ने भी ममता को धोखा दिया और जंगलमहल ने भी। इन दोनों इलाकों में लोकसभा चुनावों में बीजेपी को जीत मिली।

दरअसल, ममता की मुसीबतें 2016 के विधानसभा चुनावों के कुछ महीने बाद शुरू हुईं। यही वह समय है जब बीजेपी ने सांप्रदायिक राजनीति के पंजे फैलाने शुरू किए। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने लोकसभा चुनावों के लिए मिशन-23 यानी 23 सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया था। उसी साल कोलकाता से सटे हावड़ा जिले के धूलागढ़ और उसके बाद बांग्लादेश से सटे बशीरहाट इलाके में सांप्रदायिक हिंसा हुई। वैसे, ममता ने मर्ज की पहचान तो सही की जब उन्होंने बीजेपी पर धर्म के नाम पर राजनीति करने और लोगों को बांटने का आरोप लगाया।


दरअसल, ममता बीमारी तो समझ रही थीं लेकिन तेवरों और भड़काऊ बयानों के जरिये इसे, एक तरह से, बढ़ाने में मदद ही कर रही थीं। कई जिलों में हिंसा हो रही थी जो 2018 के पंचायत चुनावों के दौरान चरम पर पहुंच गई। उन चुनावों से पहले और बाद में होने वाली सियासी हिंसा में दोनों दलों के 50 से ज्यादा लोग मारे गए। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के तर्ज पर जो जहां भारी पड़ा, वहीं हिंसा के जरिये अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने की कोशिश करता रहा।

इस मामले में वह लालू प्रसाद यादव की तरह काम नहीं कर पाईं जिन्होंने बीजेपी का सिर कभी पूरी तरह नहीं उठने दिया और उसे दबाए रखने में कामयाब रहे। पिछले साल ममता ने मुहर्रम के जुलूस की वजह से दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन पर रोक लगाने का फैसला लिया। दिक्कत यह थी कि वह इस तरह के फैसले एकतरफा ले रही थीं जबकि इसके लिए वह दुर्गापूजा समितियों से बात कर इस आग को भड़कने देने से बचा सकती थीं। अदालती फटकार के बावजूद ममता ने अपने तेवरों में कोई बदलाव नहीं किया। दूसरी ओर, बीजेपी इस मुद्दे को भड़काते हुए खास कर हिंदू समुदाय को लुभाने में जुटी रही और लोकसभा चुनावों में उसे इसका फल भी मिला।

बीते साल के आखिर से ही ममता ने नरेंद्र मोदी सरकार पर हमले तेज कर दिए थे। उन्होंने बीजेपी के किलाफ तमाम विपक्षी राजनीतिक दलों को एकजुट करने की देशव्यापी मुहिम के तहत विभिन्न राज्यों का दौरा किया। उसके बाद जनवरी में कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में जिस तरह 23 दलों के नेताओं और लाखों की भीड़ जुटाई, उससे राष्ट्रीय राजनीति में बदलाव के संकेत मिलने लगे थे। लोकसभा चुनावों से पहले तो, खासकर ममता और प्रधानमंत्री मोदी के बीच,आरोप-प्रत्यारोप का दौर काफी निचले स्तर तक पहुंच गया। चुनाव प्रचार के दौरान कई ऐसे मामले उठे जिसका नुकसान उन्हें बंगाल में और विपक्ष को पूरे देश में उठाना पड़ा।

सबसे ताजा मामला बंगाल में जूनियर डाक्टरों की हड़ताल का है। एक सप्ताह चली हड़ताल में ममता ने आंदोलनकारियों की मांगों के समक्ष झुकने को अपनी नाक का सवाल बना लिया था। उल्टे एक सरकारी अस्पताल के दौरे के दौरान उन्होंने आंदोलनकारियों को धमका दिया। इसका उल्टा असर हुआ और जो हड़ताल दो-तीन दिनों में खत्म हो सकती थी वह सात दिनों तक और पूरे देश में खिंच गई। वैसे, ममता ने सही ही बीजेपी पर इस आंदोलन की आग में घी डालने का आरोप लगाया। बीजेपी भले इससे इंकार करे, लेकिन उसके कुछ नेताओं के बयानों ने इस मामले को सुलगाने में ब़ी भूमिका अदा की।


लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान ममता ने बालाकोट हमले का सबूत मांगा, तो वह विपक्षी नेताओं में सबसे दमदार के तौर पर उभरीं लेकिन बीजेपी ने इस बहाने उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाकर उसे देश भर में भुना लिया।

बंगाल में चुनाव अभियान की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री ने ममता को विकास की राह में रोड़ा करार देते हुए स्पीड ब्रेकर दीदी करार दिया और बाद में, ममता पर माफिया और सिंडीकेट से हाथ मिलाने और बंगाल में आतंक का शासन चलाने और बुआ-भतीजे (ममता और उनके सांसद भतीजे अभिषेक) पर बंगाल के संसाधनों को लूटने का आरोप लगाया। इसके जवाब में ममता ने उनको लोकतंत्र का थप्पड़ मारने और कान पकड़ कर उठक-बैठक कराने की बात कही। बीजेपी ने इसे पीएम को थप्पड़ मारने की बात कहकर प्रचारित कर दिया।

मई के पहले सप्ताह में ‘फणि’ तूफान के बाद नुकसान का जायजा लेने के लिए प्रधानमंत्री ने जब समीक्षा बैठक बुलाई तो ममता ने जाने से मना कर दिया। ममता ने कहा कि वह प्रधानमंत्री की नौकर नहीं हैं जो उनके बुलावे पर कभी भी, कहीं भी चली जाएंगी। इस मामले में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक बेहतर निकले, जिन्होंने मोदी की सभी बातें सुनीं लेकिन अपनी मांगें सामने रखने के अलावा कुछ नहीं बोले।

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह, पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह के होलीकाॅप्टरों को कई बार बंगाल में न तो उतरने की अनुमति दी गई और न ही रैलियां आयोजित करने की। इसे ममता के ऐसे कदम के तौर पर देखा गया कि वह विपक्षियों को कोई मौका नहीं देना चाहतीं। बाद में योगी ने झारखंड से सड़क मार्ग से पुरुलिया पहुंच कर रैली की। उन इलाकों में बीजेपी को भारी कामयाबी मिली।

बैरकपुर में टीएमसी नेता और भाटपाड़ा सीट से चार बार विधायक रहे अर्जुन सिंह मतभेद के बाद बीजेपी में चले गए। लेकिन ममता ने उनको सरेआम गद्दार कहना शुरू कर दिया। अर्जुन सिंह को बीजेपी ने बैरकपुर सीट पर पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी के खिलाफ उम्मीदवार बना दिया। वह पूरा इलाका जूट मिल बहुल है, जहां बिहार और पूर्वी यूपी के लोग ही बहुमत में हैं। ममता की टिप्पणियों ने उनको नाराज कर दिया। नतीजा यह रहा कि न सिर्फ अर्जुन सिंह जीत गए बल्कि उनके इस्तीफे से खाली भाटपाड़ा विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में अर्जुन के पुत्र पवन सिंह भी जीत गए। बीते साल ममता के करीबी रहे मुकुल राय के बीजेपी में शामिल होने के बाद भी ऐसा ही कुछ हुआ था। ममता अपनी आदत के मुताबिक, राय को गद्दार बताते हुए बीजेपी पर निशाना साधती रहीं।


ममता बनर्जी चुनाव से पहले और बाद में भी, जय श्रीराम का नारा लगाने वालों से चिढ़ती रहीं। कई मौकों पर ममता ने अपना काफिला रुकवा कर ऐसा करने वालों को ललकारा और पुलिस से ऐसे दर्जन भर से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार भी कराया। इसे भी बीजेपी ने भुना लिया। इस मामले में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी का इंदौर में उठाया गया कदम बेहतर था। वहां मोदी, मोदी के नारे लगाते लोगों के बीच प्रियंका गईं और कहा, आपका रास्ता आपको मुबारक, हम अपने रास्ते जाएंगे।

राजनीतिक पर्यवेक्षक गौतम समाद्दार कहते हैं कि ममता लोकसभा चुनावों में बीजेपी की लहर का पूरी तरह अनुमान लगाने में नाकाम रहीं। इसी वजह से नतीजों से उन्हें झटका लगा है। इसके चलते वह तमाम ऐसी टिप्पणियां करती रहीं हैं जिससे आम लोगों में उनकी छवि खराब हुई। इन टिप्पणियों से नाराज लोगों ने बीजेपी का समर्थन कर उसे 18 सीटें दिला दीं।

लेकिन पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस चुनावी झटके से उबरते हुए ममता अगले विधानसभा चुनावों से पहले एक बार फिर ठोक-बजा कर पार्टीकी रणनीति तय कर लेंगी। इसके लिए उन्होंने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के साथ तो हाथ मिलाया ही है, अब संगठन में भी बड़े पैमाने पर फेरबदल कर रही हैं।

वरिष्ठ पत्रकार और ममता के राजनीतिक सफर को शुरुआती दौर से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं, ममता की राजनीति की राह शुरू से ही उबड़-खाबड़ ही रही है। कुछ फैसलों के चलते भले उनको तात्कालिक नुकसान उठाना पड़ा हो, वह हालात पर काबू पाने में सक्षम रही हैं। भट्टाचार्य कहते हैं कि ममता पूरे जीवन चुनौतियों से जूझती रही हैं। यह जरूर है कि अबकी उन्हें बीजेपी की कड़ी चुनौती से जूझना पड़ रहा है।

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