मोदी सरकार का सारा जोर इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने पर, लेकिन क्या इससे कम होगा वायु प्रदूषण?

देश में ऊर्जा अभाव के चलते इलेक्ट्रिक वाहनों का सपना फिलहाल चुनौतीपूर्ण ही लगता है। वाहन निर्माताओं का कहना है कि अगर सरकार बैटरी निर्माण और चार्जिंग स्टेशनों की समस्या का समाधान कर दे, तो बड़ी तादाद में बिजली-चलित वाहन बाजार में उतारे जा सकते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

देश के महानगरों और शहरों में जिस तेजी से वायु-प्रदूषण बढ़ रहा है, उसमें सबसे ज्यादा योगदान वाहनों से होने वाले प्रदूषण का है। यह ऐसा मुद्दा है जिस पर वर्षों से चिंता जताई जा रही है, लेकिन इस दिशा में कुछ खास परिणाम देखने में नहीं आ रहे। देश में दो पहिया और चार पहिया वाहनों की संख्या बढ़ रही है। रोजाना लाखों नए वाहन पंजीकृत हो रहे हैं।

फिलहाल देश भर में करोड़ों वाहन ऐसे हैं, जो पेट्रोल और डीजल से चल रहे हैं और इनसे निकलने वाला काला धुआं कार्बन उत्सर्जन का बड़ा कारण है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि भारत के लगभग 11 प्रतिशत वाहन कार्बन उत्सर्जक हैं, जो वायु प्रदूषण का प्रमुख स्रोत हैं।

पेरिस में हुए जलवायु परिवर्तन समझौते के प्रति प्रतिबद्धता के चलते अब बिजली से चलने वाले वाहनों के विस्तार को लेकर गंभीरता से काम शुरू हुआ है। इस दिशा में सरकार ने साल 2030 तक बिजली से चलने वाले वाहनों को बढ़ावा देने के लिए एक वृहद योजना तैयार की है। ये वाहन बैटरी से चलेंगे और बैटरी बिजली से चार्ज होगी। माना जाता है कि बिजली से चलने वाले वाहनों की देखभाल और मरम्मत का खर्च भी कम आता है।

सरकार की इस पहल से अब इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर निर्माता कंपनियां भी गंभीर हैं। उम्मीद की जा रही है कि पूरे देश में इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग बढ़ने से बिजली क्षेत्र में बड़ा बदलाव आएगा और जहरीली गैसों के उत्सर्जन में 40 से 50 प्रतिशत की कमी आएगी। इससे देश में कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी।

इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए केंद्रीय कैबिनेट ने नीति आयोग की अगुवाई में विद्युत गतिशीलता के मिशन को मंजूरी दी है। ध्यान रहे कि इलेक्ट्रिक मोबिलिटी को सार्वजनिक परिवहन से जोड़ने के लिए केंद्र सरकार की हाइब्रिड (बिजली और जैविक दोनों) और इलेक्ट्रिक वाहनों को तेजी से अपनाने और उनके निर्माण की नीति फास्टर एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग इलेक्ट्रॉनिक व्हीकल्स (एफएएमई), जिसे 2015 में लॉन्च किया गया था, का पुनरीक्षण किया जा रहा है। नीति आयोग ने बिजली से चलने वाले वाहनों की जरूरत, उनके निर्माण और इससे संबंधित जरूरी नीतियां बनाने की शुरूआत की है।


दरअसल, ऑटोमोबाइल के लिए भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाजार है। भारत में इस वक्त लगभग 0.4 मिलियन इलेक्ट्रिक दो-पहिया वाहन और 0.1 मिलियन ई-रिक्शा हैं। इलेक्ट्रिक कारें तो केवल हजारों की संख्या में ही सड़कों पर दौड़ रही हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक सोसाइटी ऑफ मैन्युफैक्चर्स ऑफ इलेक्ट्रिक व्हिकल (एसएमईवी) के अनुसार भारत ने 2017 में बेचे जाने वाले ‘आंतरिक दहन’ (आईसी) इंजन वाले वाहनों में से एक लाख से भी कम बिजली से चलने वाले वाहनों को बेचा। इनमें से 93 प्रतिशत से अधिक इलेक्ट्रिक तीन-पहिया वाहन और छह प्रतिशत दोपहिया वाहन थे। इलेक्ट्रिक गाड़ियों में दोपहिया वाहन ही अग्रणी है।

भारत भले ही इलेक्ट्रिक कारों में दूसरे देशों से पीछे हो, लेकिन बैटरी से चलने वाले ई-रिक्शा की बदौलत उसने चीन को पीछे छोड़ दिया है। रिपोर्टों के मुताबिक मौजूदा समय में भारत में करीब 15 लाख ई-रिक्शा चल रहे हैं, जो चीन में साल 2011 से अब तक बेची गई इलेक्ट्रिक कारों की संख्या से ज्यादा हैं। एटी कर्नी नाम की एक कंसल्टिंग फर्म की रिपोर्ट में बताया गया है कि हर महीने भारत में करीब 11,000 नए ई-रिक्शा सड़कों पर उतारे जा रहे हैं। भारत में अभी इलेक्ट्रिक गाड़ियों को चार्ज करने के लिए कुल 425 प्वाइंट बनाए गए हैं। सरकार 2022 तक इन प्वाइंट्स को 2,800 करने वाली है।

कुछ दिनों पहले सरकार ने देश में इलेक्ट्रिक वाहनों के विनिर्माण और उनके तेजी से इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए ‘फेम इंडिया’ योजना के दूसरे चरण को मंजूरी दी है। कुल दस हजार करोड़ रुपये की लागत वाली यह योजना एक अप्रैल, 2019 से तीन वर्षों के लिए शुरू की गई, जो मौजूदा योजना फेम इंडिया वन का विस्तारित संस्करण है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य देश में इलेक्ट्रिक और हाईब्रिड वाहनों के तेजी से इस्तेमाल को बढ़ावा देना है।

इसके लिए लोगों को इलेक्ट्रिक वाहनों की खरीद में शुरुआती स्तर पर सब्सिडी देने और ऐसे वाहनों की चार्जिंग के लिए पर्याप्त आधारभूत संरचना विकसित करना है। यह योजना पर्यावरण प्रदूषण और ईंधन सुरक्षा जैसी समस्याओं का समाधान करेगी। गौरतलब है कि देश में बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की मांग भी बढ़ रही है।

नॉर्वे और चीन जैसे देशों ने बड़े पैमाने पर बिजली से चलने वाले वाहनों का निर्माण शुरू किया है। जनवरी 2011 से दिसंबर 2017 के बीच चीन में बिजली से चलने वाले 17 लाख 28 हजार 447 वाहन सड़कों पर उतारे गए। उद्योग मंडल एसोचैम और ‘अन्सर्ट्स एंड यंग’ (ईएंडवाई) के संयुक्त अध्ययन में कहा गया है कि साल 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की मांग 69.6 अरब यूनिट पहुंचने का अनुमान है।


आलोचकों का तर्क है कि भारत में 90 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयले से होता है। ऐसे में इलेक्ट्रिक कारों से प्रदूषण कम करने की बात बेईमानी लगती है। नॉर्वे के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की ओर से कराए गए एक शोध के मुताबिक बिजली से चलने वाले वाहन पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहनों से कहीं ज्यादा प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं। अध्ययन में कहा गया है कि यदि बिजली उत्पादन के लिए कोयले का इस्तेमाल होता है, तो इससे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसें डीजल और पेट्रोल वाहनों की तुलना में कहीं ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं।

यही नहीं, जिन फैक्ट्रियों में बिजली से चलने वाली कारें बनती हैं वहां भी तुलनात्मक रूप में ज्यादा विषैली गैसें निकलती हैं। हालांकि शोधकर्ताओं का कहना है कि इन खामियों के बावजूद कई मायनों में ये कारें फिर भी बेहतर हैं। रिपोर्ट में यह कहा गया है कि ये कारें उन देशों के लिए फायदेमंद हैं जहां बिजली का उत्पादन अन्य स्रोतों से होता है।

अपने देश में ऊर्जा अभाव के चलते इलेक्ट्रिक वाहनों का सपना चुनौतीपूर्ण ही लगता है। इलेक्ट्रिक वाहन चलाने के लिए पर्याप्त बिजली मिल सके, अभी इस पर काम किया जाना है। वहीं उसके लिए बुनियादी सुविधाओं, संसाधनों और बजट का प्रावधान किया जाना है। वाहन निर्माता कंपनियों का कहना है कि अगर सरकार बैटरी निर्माण और चार्जिंग स्टेशनों की समस्या का समाधान कर दे, तो बड़ी तादाद में बिजली-चलित वाहन बाजार में उतारे जा सकते हैं।

जाहिर है कि बुनियादी सुविधाओं का इंतजाम सरकार को करना है और इसके लिए ठोस दीर्घावधि नीति की जरूरत है। देखना होगा कि आने वाले समय में बिजली आधारित वाहनों के उपयोग और उससे उत्सर्जन में कमी लाने के प्रयासों की पहल कितनी कारगर साबित होगी?

(कुमार सिद्धार्थ का लेख सप्रेस से साभार)

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