मृणाल पाण्डे का लेख: आया सावन, देवता चले सोने, निकले कांवड़िये

निरंतर पर्व मनाना कोई हिंदुस्तानियों से सीखे। पर्व यानी प्रवाहित होते काल के किसी खास पड़ाव का महोत्सव। और सावन में जब देवशयनी एकादशी के साथ लगभग सारे देवता सोने चले जाते हैं, तो अविनाशी काल के प्रतीक भोलेनाथ के भक्तों की बम बम हो जाती है।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

निरंतर पर्व मनाना कोई हिंदुस्तानियों से सीखे। पर्व यानी प्रवाहित होते काल के किसी खास पड़ाव का महोत्सव। और सावन में जब देवशयनी एकादशी के साथ लगभग सारे देवता सोने चले जाते हैं, तो अविनाशी काल के प्रतीक भोलेनाथ के भक्तों की बम बम हो जाती है। शिव की प्रिय नदी है गंगा जिसे उन्होने गंगा के धरती पर उतरने के वक्त अपनी जटाओं में धारण किया और उसका पानी उनको बहुत प्रिय माना गया। लिहाज़ा शिव के प्रिय महीने श्रावण में सप्ताह में शिव के प्रिय दिन सोमवार को किसी तीर्थ से गंगाजल ला कर शिव का अभिषेक कराना शिवभक्तों का प्रिय उत्सव बना।

माना जाता है कि अपने कंधों पर गंगाजल और शिव का ज्योतिर्लिंग एक कांवड़ पर ला कर रावण (जी हां शिव के वे त्रेतायुगीन भक्तों में सबसे सीनियर रहे) ने झारखंड के वैद्यनाथ धाम और कर्नाटक के गोकर्ण में शिवलिंग पर चढ़ाया और शिव को प्रसन्न किया। पर बेचारे का नसीब कुछ खोटा था। दोनो बार भारत भूमि से उड़ा कर लाये शिवलिंग को दशानन भारत से लंका न ले जा पाये। तनिक सा आराम करने को शिवलिंग की कांवड़ धरती पर रखी तो शिवलिंग वहीं जम गया। पहली बार वैद्यनाथ धाम में, दोबारा कर्नाटक में। लोकल्लो बात ! रावण ने अपने दसों सर काट कर वैद्यनाथ धाम को चढ़ाए। शिव ने वैद्य बन कर उनको फिर जोड़ दिया। इससे शिव का वह धाम वैद्यनाथ (उर्फ बैजनाथ धाम ) तो कहलाया पर शिव न हिले तो न हिले। यही कर्नाटक में रिपीट हुआ। रावण ने ज़ोर से खींचा तो शिवलिंग गाय के कान जैसा हो गया पर उठाया न गया। सो वह धाम गोकर्ण तीर्थ बन गया।


कलियुग में पाप तेज़ी बढे और भक्त भी। हर सावन में श्रद्धालु कंधो पर बहंगी या कांवड़ में गंगाजल के पात्र उठा कर चल पड़ते हैं। उनका लक्ष्य है देश के कोने कोने से श्रावणी सोमवार तक किसी पवित्र शिव मंदिर या ज्योतिर्लिंग पर गंगा जल चढ़ाना। पहले कांवड़ियों के जत्थे मुख्यत: उत्तर प्रदेश (हरिद्वार या काशी के लिये), या झारखंड स्थित बैजनाथ धाम या देवघर को निकलते थे। पर 80 के दशक से बम बम करती, लगातार अधिक हो हल्ला मचाती और अधिक रंगारंग बनती ऐसी टोलियाँ सारे उत्तरभारत में निकलने लगी हैं। 90 के दशक से इन तीर्थ यात्रियों के लिए सड़क किनारे शिविर लगने और लंगर खुलने लगे तब तो महीना भर जल ले कर यात्रा करते कांवड़ियों की भीड़ ही उमड़ पड़ी। गाना बजाना, डी जे, भंग छानना यह सब भी शुरू हो गया। पुलिस थानेवालों का कहना था कि चूंकि अधिकतर युवा उत्पाती इस महीने काँवड़िये बन जाते हैं अपराध कम होते हैं। पर जब राजनैतिक दलों ने तामझाम भरे एयरकंडीशन्ड शिविर लगा कर हलवा पूरी का भोज कराना चालू कर दिया तब तो राजमार्गों पर भी जाम लगने लगे। और नशेबाज़ों की हुड़दंग, रोड रेज और मार पीट की भी खबरें आने लगीं।

इस बरस 18 जुलाय से यह यात्रायें फिर शुरू हो रही हैं। बताया जा रहा है कि हरिद्वार प्रशासन गंगाजल लेजाने लाने वाले एक करोड़ बीस लाख के लगभग भक्तों के शहर में आने की उम्मीद कर रहा है। इससे कई पुजारी पंडों, कांवड़ निर्माताओं की चाँदी तो होगी पर लोकल जीवन पर भी काफी दिक्कत आ जायेगी। वैसे बताया गया है कि पुलिसिया इंतज़ाम तगड़ा है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भी और उत्तर प्रदेश में भी। उत्तर प्रदेश ने तो कोविड काल में भी यात्रा रोकने से इनकार कर दिया था पर सर्वोच्च न्यायालय तक मामला गया तो जनस्वास्थ्य को खतरा देखते हुए इन पर रोक लग सकी। इस साल खुला खेल बम बम है। बिना कानूनी रोक टोक के लगातार प्रदर्शनप्रिय, उग्र और बहसंख्यवादी बन चले हिंदुत्ववादी भक्त, गोदी मीडिया की पनाह पा कर कुछ अनहोनी अधार्मिक हरकतें न करें इसके लिये भगवान भोलेनाथ से प्रार्थना ही की जा सकती है।

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