नदियों को जोड़ने से पहले उन्हें बचाने की जरूरत, नदी लिंक परियोजना पर पर्यावरण विशेषज्ञ उठा रहे हैं सवाल

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश पुराने विवादों को भूलकर केन-बेतवा नदी लिंक परियोजना को चालू करने पर सहमत हैं। लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक नदियों को जोड़ा गया तो पर्यावरण ही नहीं, नदियों का अपना जीवन भी खतरे में पड़ सकता है।

फोटो: DW
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डॉयचे वेले

करीब साढ़े 37 हजार करोड़ रुपये वाली की देश की पहली प्रमुख नदी जोड़ो परियोजना के तहत केन नदी का पानी बेतवा नदी में छोड़ा जाएगा जिससे यूपी के आमतौर पर सूखाग्रस्त बुंदेलखंड में पानी के संकट से निजात मिल सकती है। पिछले महीने 22 मार्च को उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच ऐतिहासिक बताए जा रहे इस समझौते के तहत शुरू होने वाली इस योजना से साढ़े दस लाख से ज्यादा हेक्टेयर में सिंचाई, 60 लाख से अधिक लोगों को पेयजल और 103 मेगावाट बिजली उत्पादन का दावा भी किया गया है। निर्माण, पर्यटन और मछलीपालन में रोजगार के मौके जो हैं सो अलग।

प्रोजेक्ट रिपोर्ट के मुताबिक 73.8 मीटर ऊंचे दौधन बांध के जरिए केन बेसिन से 2800 एमसीएम पानी बेतवा के लिए छोड़ा जाएगा। दोनों राज्यों के बीच समझौते के तहत रबी (सर्दियों की फसल) के मौसम में उत्तर प्रदेश को 75 करोड़ क्यूबिक मीटर (एमसीएम) पानी और मध्य प्रदेश को 183.4 करोड़ क्युबिक मीटर पानी मिलेगा। मध्य प्रदेश सरकार का दावा है कि पानी के संकट से जूझते बुंदेलखंड को इस प्रोजेक्ट से विशेष लाभ होगा।

केन-बेतवा लिंक और नदियों का रोल

कागज पर आकर्षक और विकास दिखाती इस योजना पर पर्यावरण विशेषज्ञ और पर्यावरणवादी समूह कुछ बुनियादी सवाल भी उठा रहे हैं जिनके समाधान भी उतने ही अनिवार्य हैं जितनी कि ये परियोजना। जेसै कि एक नदी का पानी दूसरी नदी में डालना क्या वैज्ञानिक और पर्यावरणीय लिहाज से उचित और न्यायसंगत है? क्या परियोजना के संभावित पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय नुकसान उसके संभावित लाभों की तुलना में अधिक नहीं है?

ये महज नदियों को जोड़कर पानी को यहां से वहां भेजने का मामला नहीं है, एक नदी की पूरी इकोलजी के छिन्नभिन्न होने का खतरा है। नदी अपने बहाव के साथ बहुत महत्वपूर्ण पारिस्थितिकीय योगदान भी करती जाती है- जैसे पानी में बह कर आने वाला खनिज, जल मार्ग के इकोसिस्टम का पोषण, भूजल को चार्ज करने में मदद, जैव विविधता को बढ़ावा और लोगों की रोजमर्रा की जरूरतें- नदी इन सब चीजों का ख्याल रखती है। इसीलिए उसे जीवनदायिनी भी कहा जाता है।

पन्ना टाइगर रिजर्व के लिए जीवनदायिनी केन

जानकारों के मुताबिक मॉनसून के दिनों में केन नदी भी ऐसी ही भूमिका निभाती हैं। लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि उसके पास अतिरिक्त पानी है या उसका पानी बांटा जा सकता है। वो है तो आखिर यमुना की एक छोटी सी सहायक नदी ही। बताया जाता है कि मॉनसून से इतर मौसमों में तो वो एक पतली धारा की तरह बहती है। पर्यावरणविद् कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन ने केन नदी के प्रवाह को भी कम और बाधित किया है। खबरों के मुताबिक 2016 में तो मॉनसून के वक्त भी नदी में पर्याप्त पानी नहीं था।

परियोजना के पहले चरण में छतरपुर जिले में पड़ने वाले दौधन गांव में प्रस्तावित बांध केन से बेतवा में पानी छोड़ने के चैनल के रूप में काम करेगा। इस बांध से पन्ना टाइगर रिजर्व का एक बड़ा हिस्सा भी डूब सकता है। समाचार रिपोर्टो के मुताबिक सरकार संसद में ये बता चुकी है कि दौधन डैम से छह हजार हेक्टेयर जंगल बांध की डूब में आ रहा है, जिसमें से 4200 हेक्टेयर पन्ना टाइगर रिजर्व का है। इस तरह केन का अपने किनारों के जंगल के साथ एक पारस्परिक रिश्ता टूट जाएगा। केन जंगल को जीवन देती है तो जंगल भी उसके स्रोतों और चट्टानों को पानी से भरता रहता है। विभिन्न अध्ययनों में पाया गया है कि केन एक अनूठे भूगर्भ की स्वामिनी भी है. कुछ विशेषज्ञ नदी को "भूगर्भीय चमत्कार” भी कहते हैं।

भारत के सभी राज्यों मे इस समय सबसे ज्यादा बाघ मध्य प्रदेश में ही हैं। राज्य में मिले 526 बाघों में से करीब 30 बाघ पन्ना टाइगर रिजर्व में बताए गए हैं। इस रिजर्व ने बाघों के संरक्षण में अद्भुत सफलता पाई है। आउटलुक इंडिया वेबसाइट में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रधानमंत्री ने 2016 में बाघों के संरक्षण पर दिल्ली में हुए एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में कहा था कि "बाघों को बचाकर, हम समूचे इकोसिस्टम और इकोलॉजिकल सेवाओं की हिफाजत करते हैं जो मनुष्य कल्याण के लिए उनते ही महत्वपूर्ण हैं।”

वैसे इस लिंक से पन्ना टाइगर रिजर्व के अलावा, विलुप्त हो रहे गिद्धों के बसेरे पर भी बर्बादी का खतरा मंडरा रहा है और केन घड़ियाल वन्यजीव अभ्यारण्य पर भी बुरा असर पड़ेगा और तो और स्थानीय लोगों को चिंता है कि पूरी दुनिया मे अपने हीरों की खान के लिए मशहूर पन्ना की इस विरासत पर भी असर पड़ सकता है।

सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ने भी उठाए थे सवाल

इस बारे में सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में गठित सेंट्रल इम्पावर्ड कमेटी (सीईसी) ने 2019 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में परियोजना को साफ मना करते हुए कहा गया था कि इससे पन्ना टाइगर रिजर्व के अनूठे इकोसिस्टम को जो नुकसान पहुंचेगा उसे ना बदला जा सकता है ना कभी ठीक किया जा सकता है। सीईसी के मुताबिक केन बेतवा लिंक प्रोजेक्ट की इकोलॉजिकल और पर्यावरणीय क्षति की कीमत उसके संभावित लाभों से कहीं अधिक है।

पर्यावरण एक्टिविस्टों के मुताबिक प्रोजेक्ट के पास ना फाइनल फॉरेस्ट क्लियरेंस (एफसी) है, ना ही वन्यजीव क्लियरेंस और पर्यावरणीय क्लियरेंस। सीईसी की सिफारिश है कि केन-बेतवा प्रोजेक्ट से पहले इलाके में तमाम स्थानीय सिंचाई और जल संग्रहण संभावनाओं को खंगाल लिया जाता। रिपोर्ट में ये सिफारिश की गई थी कि ऊसर क्षेत्रों में खेती और जल संरक्षण के उपायों में विशेषज्ञता रखने वाली एजेंसियां, प्रस्तावित परियोजना के उद्देश्यों को पूरा कर सकने वाले विकल्पों का भी अध्ययन करें। वैसे ये स्पष्ट नहीं है कि समिति की सिफारिशों का आखिरकार हुआ क्या।

पिछले दिनों दोनों राज्य राजी क्या हुए, खतरों की बात पीछे रह गई और विकास की दलील एक बार फिर पर्यावरण की चिंता पर भारी पड़ गई। "डाउन टू अर्थ” के साथ एक बातचीत में जाने माने पर्यावरणविद् रवि चोपड़ा का कहना है कि "ये ख्याल ही बेतुका है कि हिंदुस्तान में नदियों को आपस में जोड़ने से बाढ़ या सूखे जैसी स्थितियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।”

सीईसी की रिपोर्ट पर फिर से गौर किए जाने की जरूरत है। जल संरक्षण के लिए स्थानीय अभियान ही स्थानीय मुश्किलों को हल कर सकते हैं। पानी की कमी दूर करने के लिए इकोलॉजिकल समाधान भी निश्चित रूप से होंगे। उन पर पहले गौर करना चाहिए। ऐसा करेंगे तो दबाव झेलती नदियों को भी सांस लेने का मौका मिल सकता है। अभी तो लगता है कि जीवनदायिनी कही जाने वाली नदियां अपने जीवन के लिए तरस रही हैं।

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