बेहद गरीबों को आजादी, सम्मान और स्वाभिमान देगी कांग्रेस की ‘न्याय’ योजनाः प्रवीण चक्रवर्ती

कांग्रेस के डाटा एनालिटिक्स विभाग के अध्यक्ष प्रवीण चक्रवर्ती का साफ कहना है कि ‘न्याय’ भारत के अति गरीब बीस प्रतिशत लोगों को गरीबी के चक्र से बाहर निकालेगी। न्याय योजना को लेकर उठ रह सवालों के बारे में उन्होंने कहा कि इसे आसानी से लागू किया जा सकता है।

फोटोः नवजीवन
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ऐशलिन मैथ्यू

कांग्रेस के घोषणा पत्र में न्यूनतम आय गारंटी योजना, जिसे न्याय (न्यूनतम आय योजना) का नाम दिया गया है, का संकल्प लिया गया है। भारत के 50 मिलियन अति गरीब परिवारों के लिए बिना शर्त नकद हस्तांतरण पर राजनीतिक प्रतिद्वंदी, दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री और कमेंटेटर सवाल उठा रहे हैं और कह रहे हैं कि इस योजना को लागू नहीं किया जा सकता। कांग्रेस के डाटा एनालिटिक्स विभाग के चेयरमैन प्रवीण चक्रवर्ती का स्पष्ट कहना है कि यह योजना भारत के अति गरीब बीस प्रतिशत लोगों को गरीबी के चक्र से बाहर निकालेगी। न्यूनतम आय योजना को लेकर उठ रह सवालों के बारे में नवजीवन के लिए ऐशलिन मैथ्यू ने प्रवीण चक्रवर्ती से बातचीत की।

न्यूनतम आय योजना (न्याय) वास्तव में क्या है ?

न्यूनतम आय योजना (न्याय) आसान है। सबसे गरीब पांच करोड़ भारतीय परिवारों को प्रति माह छह हजार रुपये मिलेंगे या प्रतिवर्ष 72 हजार रुपये। इन पांच करोड़ परिवारों में से प्रत्येक को इतना ही पैसा मिलता है। इसका अर्थ यह है कि आज, औसतन, सबसे गरीब भारतीय (20 प्रतिशत भारतीय परिवार) की प्रति माह आय छह हजार रुपये के आसपास है, तो अब उनकी औसत आमदनी 12 हजार रुपये हो जाती है। इसलिए हम कह रहे हैं कि भारत में ‘न्याय’ के बाद न्यूनतम आय 12 हजार रुपये हो जाएगी। इसका मतलब यह नहीं है कि हम 12 हजार रुपये दे रहे हैं। हम 6 हजार रुपये दे रहे हैं। इससे 25 करोड़ लोगों को लाभ होगा।

आप इस योजना को किस तरह से क्रियान्वित करेंगे? क्या इसका मतलब यह होगा कि आप अन्य कार्यक्रमों और योजनाओं को समाप्त कर देंगे या इसके साथ जोड़ देंगे?

अपने चरम बिंदु पर, ‘न्याय’ की लागत 3.6 लाख करोड़ रुपये होगी, जो वर्तमान जीडीपी का 1.8 प्रतिशत है। ‘न्याय’ चरणों में लागू किया जाएगा। दूसरे वर्ष के अंत तक, हम सभी पांच करोड़ परिवारों को कवर कर लेंगे। उस समय तक जीडीपी बढ़ी हुई होगी। इसलिए, अपने चरम पर, यह जीडीपी का 1.2 से 1.5 प्रतिशत के बीच होगी, जो वास्तव में बहुत बड़ी रकम नहीं है, क्योंकि भारत की वर्तमान जीडीपी 200 लाख करोड़ रुपये है। राज्यों और केंद्र ने मिलकर पहले ही 60 लाख करोड़ रुपये खर्च किए हैं। हम देश में 20 प्रतिशत अति गरीबों के लिए 3.6 लाख करोड़ रुपये के बारे में बात कर रहे हैं। इसे आसानी से किया जा सकता है। धन मौजूद है।

न्याय को लेकर जो आलोचना हुई, जिनमें कुछ अर्थशास्त्री भी हैं, क्या इसका आपको पहले से भान था?

ईमानदारी से, मुझे लगता है कि एक आर्थिक विचार के रूप में ‘न्याय’ दुनिया भर में बहुत अच्छे से स्वीकृत विचार है। राजकोषीय (फिस्कल) प्रभाव और यह हमारे राजकोषीय संतुलन के साथ क्या करेगा, इसके इर्दगिर्द अविश्वास और साथ-साथ इसे लागू करने को लेकर आशंका है, लेकिन मैं नहीं सोचता कि हमें इससे बहुत ज्यादा चिंतिंत होना चाहिए। जैसा कि पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा है, जब नरेगा को 10 वर्ष पहले लागू किया गया था, तो उसको लेकर भी इसी तरह का अविश्वास था। मैं समझता हूं लोग सशंकित क्यों हैं। मैं इसे अविश्वास या आलोचना नहीं कहूंगा। लेकिन, इस विचार को सबसे पहले भारतीय संदर्भ में इसी सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने प्रस्तावित किया था। उनका तर्क था कि भारत के लिए बेसिक न्यूनतम आय को अपनाने का समय आ चुका है। एकमात्र अंतर यह है कि अरविंद का प्रस्ताव 15 करोड़ परिवारों को प्रति माह 1500 रुपये देने का था। हमारी राजनीति यह कहती है कि 25 करोड़ भारतीयों को गरीबी के चक्र से बचाने के लिए मात्र 1500 रुपये के बजाय उल्लेखनीय रूप से एक बड़ी राशि की जरूरत होगी। इसलिए हमने कहा कि हम 20 प्रतिशत अति गरीबों को एक बड़ी राशि देंगे। यह अंतर है।

इन पांच करोड़ परिवारों की पहचान कैसे की जाएगी, इसको लेकर संदेह और भ्रम है?

मेरे विचार में पहचान के मुद्दे को कुछ ज्यादा ही तूल दिया गया है। तथ्य यह है कि पहले से ही कई सरकारी योजनाएं हैं, जैसे कि आयुष्मान भारत, जो 10 करोड़ अति गरीब परिवारों के लिए है। उन्होंने इन परिवारों की पहचान किस तरह से की? पीडीएस और अन्य योजनाएं जो पहले से ही हैं, उनके लिए हम लोगों की पहचान किस तरह करते हैं? डाटा साइंस के साथ-साथ डाटा सेट्स में काफी प्रगति हुई है, जो आज भारत में पांच करोड़ परिवारों की पहचान को आसान बनाते हैं, जो दस साल पहले तक असंभव था। इसलिए, मुझे लगता है कि अति गरीब परिवारों की पहचान करना संभव है। इन पांच करोड़ परिवारों की पहचान होगी। यह योजना शहरी गरीब या ग्रामीण गरीब, भूमि वाले गरीब या भूमिहीन गरीब, एक खास जाति से संबंधित गरीब बनाम अन्य जाति से संबंधित गरीब के बीच में अंतर नहीं करती। यह किसी के बीच में अंतर नहीं करती है। प्रवासी मजदूरों की पहचान होगी। हमारे पास अन्य चीजों के अलावा आधार है, जो राष्ट्रीय है। भले ही लोग माइग्रेट करते हों, लेकिन आधार नंबर पोर्टेबल है। यह आधार पर निर्भर नहीं होगा। लेकिन, अभी हम घोषणा पत्र के स्तर पर हैं और हम कार्यान्वयन के लिए कैबिनेट नोट नहीं लिख रहे हैं। हमसे बहुत सारे सवाल पूछे जा रहे हैं, लेकिन जब आयुष्मान भारत की घोषणा हुई थी या यहां तक आज भी, कोई नहीं जानता कि यह कैसे काम करता है, या प्रधानमंत्री ने जो किसानों की आय दोगुनी करने की बात की, आज भी कोई उस गणित को नहीं जानता।

आपने गरीबों के लिए अवसरों में सुधार के वास्ते नकदी देने और प्रशिक्षण की वांछनीयता (डिजाइरेबिलिटी) पर चर्चा की होगी। आपकी टीम का पहले वाले का चयन करने की क्या वजह है?

मैं नहीं समझता कि दोनों पारस्परिक रूप से अलग हैं। यह नहीं है कि आप एक को करें और आप दूसरे को नहीं कर सकते। ‘हम यह क्यों कर रहे हैं’, इसका सीधा कारण है। यह अब पूरी दुनिया में स्पष्ट हो चुका है कि आर्थिक ग्रोथ अति गरीबों और समाज के कमजोर तबकों की वास्तविक आय में तब्दील नहीं होता है। आर्थिक ग्रोथ की रिसकर (ट्रिकल डाउन) नीचे तक पहुंचने वाले लाभों की बात थोड़ा अतिरंजित है। यह सबसे निचले व्यक्ति के पास नहीं पहुंचती। इसके लिए आपको अति गरीबों के लिए डायरेक्ट पॉलिसी इंटरवेन्शन की जरूरत है। यही इस बारे में है। आप उन्हें सीधा नकद देते हैं, जो बिना शर्त है, क्योंकि तब यह उन्हें स्वतंत्रता, इच्छा, सम्मान और स्वाभिमान देता है। यह उन्हें मुख्यधारा की आर्थिक गतिविधि में शामिल होने की अनुमति प्रदान करता है, जो कि शेष 80 फीसदी आबादी के लिए उपलब्ध है।

नकद हिस्से को महिला को क्यों हस्तांतरित किया जाएगा?

यह पैसा घर की महिला मुखिया के बैंक खाते में हस्तांतरित किया जाएगा। यह अब अच्छी तरह से स्थापित हो चुका है कि परिवार में पुरुष के मुकाबले महिलाएं बेहतर फैसले लेती हैं। यह भी स्थापित हो चुका है कि महिलाओं के खाते में पैसा अधिक उत्पादक परिणाम देता है।

आप यह सुझा रहे हैं कि गरीबों के हाथ में पैसा उपभोग, मांग और उत्पादन को बढ़ाएगा। यह हेल्थकेयर, शिक्षा और इंफ्रास्ट्रक्चर में सरकारी निवेश के जरिए हासिल नहीं किया जा सकता?

हम इसे भारतीय अर्थव्यवस्था का पुनर्मुद्रीकरण कह रहे हैं या जैसा कि मैं इसे ‘नोटवापसी’ कहता हूं, क्योंकि हम लोगों के हाथों में वापस पैसा दे रहे हैं। अब, फिर से मैं कहना चाहता हूं, दोनों पारस्परिक रूप से अलहदा नहीं हैं। लोगों के हाथों में पैसा वापस देना हमें इंफ्रास्ट्रक्चर, शिक्षा और हेल्थकेयर में निवेश करने से नहीं रोकता है। हम स्पष्ट रूप से साफ कर चुके हैं कि हम मौजूदा कोर कार्यक्रमों को छूने नहीं जा रहे हैं, जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, नरेगा, खाद्य, फर्टिलाइजर कार्यक्रम शामिल हैं। इसलिए, मैं नहीं समझता कि वे एक-दूसरे से पारस्परिक रूप से अलहदा हैं।

इसके लिए योजना के फंड को लेकर जो चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं, उसे आप किस तरह से संबोधित करेंगे?

आज के भारत में जीडीपी का 1.2 से 1.5 प्रतिशत का व्यय बहुत ज्यादा नहीं है। अरविंद सुब्रमण्यम के प्रस्ताव में भी यह बात कही गई थी। इसके बारे में सवाल कि हम कैसे राजस्व बढ़ाएंगे या कैसे इसके लिए धन जुटाएंगे- यह कुछ अतिरिक्त राजस्व स्रोतों (स्ट्रीम्स) से या कुछ व्ययों को तर्कसंगत बनाने के जरिए- इसका उत्तर दिया जाएगा। हम कह चुके हैं कि यह फेडरल स्कीम होगी, केंद्र और राज्य की योजना। कांग्रेस अध्यक्ष भी कमिट कर चुके हैं कि हम फिस्कली प्रूडन्ट होंगे।

क्या विभिन्न चीजों में से एक वैल्थ टैक्स पर भी आप विचार करेंगे?

फिर से, जैसा कि मैंने कहा कि हम बहुत अधिक डिटेलिंग में जा रहे हैं। हम कार्यान्वयन के लिए कैबिनेट नोट नहीं लिख रहे हैं। हम घोषणापत्र के स्तर पर हैं।

क्या आपके पास अरुण जेटली के लिए कोई संदेश है, जो यह मानते हैं कि ‘न्याय’ एक धोखा है, गरीबी का स्तर पहली बार घट रहा है और डॉ. रघुराम राजन जैसे विशेषज्ञों से आपका राय-मशवरा करना राजनीतिक रूप से प्ररेित है?

डॉ. अरविंद सुब्रमण्यम श्री जेटली के मुख्य आर्थिक सलाहकार थे। उन्होंने यह विचार 2017 में प्रस्तावित किया था। हम केवल यह जानना चाहते हैं कि क्या जेटली सहमत हैं कि समाज के सबसे गरीब तबकों को 72 हजार मिलना चाहिए या नहीं मिलना चाहिए। जब उनके मुख्य आर्थिक सलाहकार ने यह प्रस्ताव दिया था, तो उन्होंने क्यों नहीं किया।

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