जिन पर है आम लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी, उन्हीं से सबसे ज्यादा खौफजदा हैं लोग, ऐसे में कैसे मिलेगा इंसाफ?

देश में पुलिस सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक दशक से भी पहले एक फैसले में कई दिशानिर्देश दिए थे, लेकिन अब तक उस पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। आज राजनीति को इस पर गंभीरता से सोचना होगा, वर्ना संविधान सम्मत कानून-राज की स्थापना किताबी बात ही रह जाएगी।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया
user

नवजीवन डेस्क

हाल ही में उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर में यूपी पुलिस का खौफनाक चेहरा सामने आया, जब जांच के नाम पर दो पुलिसकर्मियों ने एक युवक की खुलेआम बीच बाजार में बेरहमी से पिटाई कर दी। इस घटना की तस्वीरें रोंगटे खड़े कर देने वाली हैं। पुलिस वाले युवक से इतना नाराज थे कि उन्होंने बीच सड़क पर ही युवक को पटककर लात-जूतों से बेरहमी से सबके सामने तब तक पीटते रहे, जब तक के वह युवक अधमरा नहीं हो गया।

इससे पहले एक और तस्वीर बिहार से सामने आई थी, जहां एक पुलिस अधिकारी से इंसाफ मांगने के लिए महिला समेत कुछ पीड़ित गिड़गिड़ाते हुए उसके पैरों पर गिर जाते हैं। इसका पुलिस अधिकारी पर कोई असर नहीं पड़ता और वह उन्हें मना भी नहीं करता। पुलिस वालों की इसी तरह का चेहरा कुछ दिन पहले दिल्ली में सामने आया था, जब दिल्ली पुलिक के जवानों ने एक सिख ट्रक ड्राइवर की बेरहमी से खुलेआम सड़कों पर और फिर थाने में पिटाई की थी।

ये उदाहरण बस इस बात का जिक्र करने के लिए दिए गए हैं कि देश में आम लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी जिन पुलिस वालों पर है, आज उन्हीं से लोगों को सबसे ज्यादा खौफ है और इसकी वजह है पुलिस वालों की खतरनाक सोच। यही बात हाल में आई एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में भी सामने आई। बीते 27 अगस्त को गैरसरकारी संगठन कॉमन कॉज और सेंटर ऑर दि स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) की शोध शाखा लोकनीति ने देश भर में किए गए सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी की। इस सर्वेक्षण रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जे. चेलमेश्वर ने जारी किया। इस रिपोर्ट से देश में पुलिस व्यवस्था की बड़ी ही निराशाजनक तस्वीर उभरती है।

‘स्टेटस ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019’ नामक 188 पन्नों की इस रिपोर्ट में देश की पुलिस व्यवस्था की स्थिति बताई गई है। इस सर्वेक्षण में 21 राज्यों के थानों में तैनात 12 हजार पुलिसकर्मियों और उनके करीब 11 हजार परिवारवालों से बातचीत की गई। रिपोर्ट में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) और पुलिस अनुसंधान व विकास ब्यूरो (बीपीआरडी) के सरकारी आंकड़ों को भी रखा गया है। कॉमन कॉज और लोकनीति के सर्वे का विषय था कि पुलिस वाले किन हालात में काम करते हैं और अपराध एवं समाज के प्रति मोटे तौर पर उनकी धारणा क्या है? साल 2018 के सर्वे की रिपोर्ट पुलिस के प्रति लोगों की राय पर केंद्रित थी।


सर्वेक्षण में पाया गया कि 50 फीसदी पुलिस वाले मानते हैं कि मुसलमानों में स्वाभाविक रूप से अपराध की ओर झुकाव होता है। इसके साथ ही यह भी पाया गया कि 35 फीसदी पुलिसवालों का मानना है कि गोहत्या के मामलों में ‘दोषी’ को भीड़ द्वारा सजा देना स्वाभाविक है और वैसे ही 43 फीसदी पुलिसवाले बलात्कार के आरोपी को भीड़ द्वारा सजा देने को सही मानते हैं। 37 फीसदी का मानना है कि छोटे-मोटे अपराधों के लिए सजा देने का काम पुलिसवालों का होना चाहिए, न कि इसके लिए लंबी कानूनी लड़ाई में जाना चाहिए। जिन लोगों से बातचीत की गई, उनमें 72 फीसदी ने कहा कि प्रभावशाली लोगों से जुड़ी तफ्तीश के दौरान उन्होंने राजनीतिक दबाव को झेला।

रिपोर्ट बताती है कि जिलों के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों, मसलन, एसपी और डीआईजी के दो साल से पहले तबादलों के मामलों में 2007 के बाद से पूरे देश में खासी कमी आई, लेकिन हरियाणा और उत्तर प्रदेश में ऐसे सर्वाधिक तबादले हुए। प्रकाश सिंह बनाम भारतीय संघ के 2006 के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर अहम पदों पर तैनात पुलिस अधिकारियों को एक जगह न्यूनतम दो साल की तैनाती दी जाए। यह इसलिए था कि पुलिस का कामकाज राजनीतिक दबाव से मुक्त हो, उनमें काम करने के मामले में स्वायत्तता आए और वे जल्दी तबादले के भय से मुक्त होकर काम कर सकें।

आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि राज्यों ने काफी हद तक इस पर अमल नहीं करने के उपाय खोज निकाले। दस साल के औसत के आधार पर बात करें तो सर्वेक्षण में शामिल राज्यों में से सात में 25 फीसदी से ज्यादा एसएसपी और डीआईजी के तबादले दो साल के भीतर किए गए। गौर करने की बात यह है कि इन तबादलों और चुनावों में सीधा संबंध दिखता है, क्योंकि राज्यों में चुनाव के समय इस तरह के तबादलों में खासा इजाफा देख गया। उदाहरण के लिए, साल 2013 में राजस्थान में एसएसपी और डीआईजी के 98 फीसदी, हरियाणा में 32 फीसदी तबादले चुनावी साल में हुए। झारखंड में तो हर चुनाव के समय इन पदों पर तैनात 28 से 53 फीसदी अधिकारियों के तबादले होते रहे हैं।

हाशिए पर पड़े समुदायों की स्थिति

इस रिपोर्ट में पूरा एक अध्याय इस विषय पर है कि मुसलमानों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग जैसे हाशिए पर पड़े समुदायों के बारे में पुलिस वालों की सोच क्या है। चैप्टर के पहले भाग में इस बात का जिक्र है कि कैसे पुलिस बल के भीतर भी इन तबकों के लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है जबकि दूसरे भाग में यह बताया गया है कि कुछ खास समुदायों और अपराध करने की उनकी प्रवृत्ति के बारे में पुलिसवालों की धारणा क्या है।

रिपोर्ट के अनुसार

  • पुलिसबल में आधे से भी कम लोग यह मानते हैं कि बल के भीतर एससी-एसटी के लोगों के साथ बराबरी का व्यवहार होता है। जबकि ज्यादातर एससी-एसटी से आने वाले कर्मियों को महसूस होता है कि उनके साथ भेदभाव होता है।
  • लगभग एक तिहाई पुलिसवालों को महसूस होता है कि पुलिस बल में धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं होता।
  • 14 फीसदी पुलिस वालों का मानना है कि मुसलमानों में स्वाभाविक तौर पर अपराध करने की प्रृवत्ति ‘काफी अधिक’ होती है, जबकि 36 फीसदी मानते हैं कि मुसलमानों में यह प्रवृत्ति ‘कुछ हद तक’ होती है।
  • हर पांचवां पुलिसकर्मी मानता है कि एससी/एसटी (अत्याचार निरोधक) अधिनियम के तहत दर्ज ज्यादातर मामले गलत होते हैं।
  • 24 फीसदी पुलिस वाले मानते हैं कि प्रवासियों में स्वाभाविक तौर पर अपराध करने की प्रृवत्ति ‘काफी अधिक’ होती है, जबकि 36 फीसदी मानते हैं कि उनमें यह प्रवृत्ति ‘कुछ हद तक’ होती है।
  • हर पांच में से दो पुलिस वालों का मानना है कि 16 से 18 साल के अपराधियों के साथ एक वयस्क अपराधी जैसा व्यवहार होना चाहिए।
  • 35 फीसदी पुलिस वालों का मानना है कि गोहत्या के दोषियों को भीड़ द्वारा सजा देना स्वाभाविक है।

न्यायेतर हत्या के प्रति सहमति

देश में सजा देने का काम न्यायपालिका का है, लेकिन तमाम ऐसे पुलिस वाले हैं जो यह काम खुद करना बेहतर मानते हैं। 20 फीसदी का मानना है कि खतरनाक अपराधियों को अदालती प्रक्रिया से गुजारने से बेहतर उनकी हत्या कर देना है। तकरीबन 75 फीसदी पुलिस वालों ने अपराधियों के साथ हिंसक व्यवहार को सही बताया, जबकि 37 फीसदी ने मामूली अपराधों के लिए उन्हें खुद दंड देने को अदालती प्रक्रिया से बेहतर बताया।

रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में 'फर्जी' मुठभेड़ों की संख्या काफी बढ़ी है और कहा जाता है कि आत्मरक्षा के क्रम में एनकाउंटर हुआ। साल 2014 में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एनकाउंटर के सभी मामलों की किसी मजिस्ट्रेट से जांच को अनिवार्य बनाया। रिपोर्ट कहती है कि इसके बावजूद पुलिस एनकाउंटर में कमी नहीं आई और मार्च, 2017 के बाद से उत्तर प्रदेश में 49 लोग एनकाउंटर में मारे गए, जिनमें ज्यादातर दलित, मुस्लिम या ओबीसी समुदाय से थे। ऐसे हालात में, एनकाउंटर में होने वाली हत्याओं के बारे में पुलिस वालों के नजरिये और उनकी धारणाओं का पता लगाना जरूरी हो जाता है।

हाल के वर्षों में गोहत्या, अपहरण आदि के आरोपों में मॉब लिंचिंग की घटनाओं और हिंसा में शामिल लोगों को एक तरह से पुलिस से शह मिलने के मामलों में खासा इजाफा हुआ है। सर्वे में पुलिस वालों से चार अलग-अलग तरह के मामलों- गोहत्या, अपहरण, बलात्कार और किसी ड्राइवर की भूल से होने वाली सड़क दुर्घटना- में भीड़ की हिंसा के प्रति उनकी राय पूछी गई थी। इस पर हर तीन पुलिस वालों में से एक से अधिक ने गोहत्या के मामले में भीड़ के कानून को हाथ में लेने को स्वाभाविक करार दिया, जबकि हर पांच में से दो ने अपराध के अन्य तीन मामलों में भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने को स्वाभाविक बताया। केवल 6 से 10 फीसदी पुलिस वालों ने कहा कि ऐसे मामलों में भीड़ का कानून अपने हाथ में लेना किसी कोण से स्वाभाविक नहीं कहा जा सकता।

जहां तक वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की बात है, तो 28 फीसदी गोहत्या के मामलों में भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने को स्वाभाविक मानते हैं। अगर इस विषय पर राज्यवार बात करें तो रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश में हर पांच में दो तथा छत्तीसगढ़, गुजरात और उत्तर प्रदेश में हर चार पुलिसकर्मियों में से एक का मानना है कि भीड़ का कानून अपने हाथ में लेना स्वाभाविक है।

वहीं भारत में आमतौर पर लोगों की शिकायत रहती है कि पुलिस एफआईआर दर्ज करने से आनाकानी करती है। इसकी वजह पुलिस वालों का यह मानना है कि ज्यादा एफआईआर का मतलब किसी इलाके में अपराध का ज्यादा होना है और इस कारण उसके प्रदर्शन पर सवाल उठेंगे। कुल मिलाकर पुलिसिया सोच एक बड़ी वजह है जिसके कारण लोगों को न्याय नहीं मिल पा रहा। इस रिपोर्ट से यह बात एकदम साफ हो जाती है कि पुलिस वालों के व्यवहार को संविधान-सम्मत बनाने के लिए पुलिस बल के हर स्तर पर उचित प्रशिक्षण की बेहद जरूरत है।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia