अल्पसंख्यकों-पिछड़ों के खिलाफ भेदभाव से भरी है पुलिस, जामिया, एएमयू और जेएनयू में हिंसा से बेनकाब

5 जनवरी को जेएनयू में छात्रों और शिक्षकों को नकाबपोश गुंडे लाठी और सरियों से घंटों पीटते रहे और पचासों फोन के बाद भी पुलिस अंदर नहीं पहुंची। और तो और, आरोप है कि कैंपस के बाहर मौजूद भारी पुलिस बल ने तांडव मचाने वाले गुंडों को बड़े आराम से निकल जाने दिया।

फोटोः सोशल मीडिया
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राहुल गुल

मार्च से लेकर जून, 1987 के बीच मेरठ सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसता रहा और इस दौरान लगभग 350 लोगों की जान चली गई। इसी दौरान 22 मई की वह खौफनाक तारीख आई। प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी (पीएसी) के 19 जवान मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले से 42 मुसलमानों को उठाकर शहर के बाहर ले गए और उन्हें मारकर लाशें नहर में फेंक दीं। बाद में मामले का खुलासा हुआ, एफआईआर दर्ज की गई। लेकिन हालत यह रही कि मई, 2000 में जाकर 16 आरोपियों ने समर्पण किया। इस दौरान तीन की मृत्यु हो चुकी थी । सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर 2002 में यह मामला गाजियाबाद से दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में भेजा गया जहां से सभी को बेकसूर करार दिया गया। फिर मामला दिल्ली हाईकोर्ट में चला और 31 अक्तूबर 2018 को सभी अभियुक्तों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई। उस शर्मनाक घटना के 32 साल बाद यूपी पुलिस एक बार फिर उसी तरह सवालों के घेरे में है। लगता है जैसे कुछ भी नहीं बदला। सुरक्षाबल का वही सांप्रदायिक चेहरा। तब भी, आज भी।

संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ पिछले साल दिसंबर के तीसरे सप्ताह के दौरान पूरा यूपी आंदोलित रहा। इस दौरान पुलिस पर मुसलमानों को निशाना बनाने के आरोप लगे। यूपी में इस प्रदर्शन के दौरान पुलिसिया कार्रवाई में 18 लोगों की जान गई, जिनमें ज्यादातर मुसलमान हैं और इनमें से कई को नजदीक से गोली मारी गई। आलम यह है कि राज्य के डीजीपी ओपी सिंह ने जोर देकर कहा कि पुलिस ने एक भी गोली नहीं चलाई। मेरठ के एसपी का वीडियो वायरल हुआ जिसमें वह प्रदर्शनकारियों पर चीखते हुए कहते दिखाई दिए कि पाकिस्तान चले जाओ। कई ऐसे भी वीडियो सामने आए जिसमें पुलिसवाले मुसलमानों की संपत्तियों को नुकसान पहुंचा रहे हैं और जबरन उनसे ‘जय श्रीराम’ कहलवा रहे हैं।

इसके अलावा पुलिस पर 15 दिसंबर को एएमयू के छात्रों पर टूट पड़ने का भी आरोप लगा जिसके कारण कई छात्रों को गंभीर चोटें आईं। इस घटना के बाद तैनात रैपिड एक्शन फोर्स ने 23 दिसंबर को एक हजार अज्ञात छात्रों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई। उसी रात दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में भी पुलिसिया बर्बरता का नमूना मिला, जब पुलिस कैंपस में घुस गई और वहां छात्रों की जमकर पिटाई की गई। और तो और, पुलिस ने लाइब्रेरी में आंसू गैस के गोले भी छोड़े जहां छात्र पढ़ रहे थे। यहां भी डीसीपी चिन्मय बिस्वाल ने दावा किया कि पुलिस की ओर से कोई गोली नहीं चलाई गई जबकि एक मीडिया रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि पुलिस ने कम से कम तीन गोलियां चलाईं। बाद में पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रोटिक राइट्स (पीयूडीआर) ने तफ्तीश करके दावा किया कि पुलिस ने जामिया में जो कार्रवाई की, उसका उद्देश्य अधिकतम नुकसान पहुंचाने का था।

जैसे, इतना ही काफी नहीं था कि, 6 जनवरी को जेएनयू में छात्रों और शिक्षकों को घंटों तक नकाबपोश गुंडे लाठी और सरियों से पीटते रहे और 100 नंबर पर पचासों कॉल आने के बाद भी पुलिस मूकदर्शक बनी रही। और तो और, प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि कैंपस के बाहर मौजूद भारी पुलिस बल ने तांडव मचाने वाले गुंडों को निकल जाने दिया।

यूं ही नहीं है यूपी की ऐसी हालत

हाल के समय में यूपी में जो हुआ और जो हो रहा है, उसमें हैरत जैसी कोई बात नहीं। इस संदर्भ में गैरसरकारी संगठनों कॉमन कॉज और सेंटर ऑर दि स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) की शोध शाखा लोकनीति के देशभर में कराए गए सर्वेक्षण पर गौर करना चाहिए।

कॉमनकॉज और लोकनीति द्वारा कराए सर्वेक्षण को 27 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जे. चेलमेश्वर ने जारी किया। इस रिपोर्ट से पुलिस व्यवस्था की बड़ी निराशाजनक तस्वीर उभरती है। ‘स्टेटस ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट-2019 नामक 188 पन्नों की इस रिपोर्ट में देश की पुलिस व्यवस्था की स्थिति बताई गई है। इस सर्वेक्षण में 21 राज्यों के थानों में तैनात 12 हजार पुलिसकर्मियों तथा उनके करीब 11 हजार परिवार वालों से बातचीत की गई। रिपोर्ट में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) और पुलिस अनुसंधान व विकास ब्यूरो (बीपीआरडी) के सरकारी आंकड़ों को भी रखा गया।


कॉमनकॉज और लोकनीति की 2018 की रिपोर्ट पुलिस के प्रति लोगों की राय पर केंद्रित थी। इस बार सर्वेक्षण का विषय था कि पुलिस वाले किन हालात में काम करते हैं और अपराध एवं समाज के प्रति मोटे तौर पर उनकी धारणा क्या है। न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने रिपोर्ट जारी करने के अवसर पर कहा, ‘एक प्रतिबद्ध अधिकारी सबकुछ बदल सकता है, लेकिन उस अफसर को वहां तैनात कौन करेगा?’ इसके साथ ही जज होने के दौरान उन्होंने अपने उन अनुभवों को भी साझा किया जब पुलिस ने नियमों की लक्ष्मण-रेखा को पार किया। उन्होंने कहा, ‘हम अपने अधिकारियों को किस तरह का प्रशिक्षण देते हैं? सीआरपीसी, आईपीसी और साक्ष्य कानूनों पर छह महीने का क्रैश कोर्स पर्याप्त नहीं।’ पुलिस बल को राजनीतिक दबाव से मुक्त करने की जरूरत बताते हुए उन्होंने कहा, ‘किसी को नाराज किया तो दंडस्वरूप तबादला कर दिया जाना एक बड़ी समस्या है। यहां तक कि संवैधानिक पद पर बैठा जज भी ऐसे तबादले से सुरक्षित नहीं।’

बहरहाल, कॉमन कॉज और लोकनीति की 2019 की रिपोर्ट से तमाम चिंताजनक बातें उभरती हैं। उदाहरण के लिए, सर्वेक्षण में पाया गया कि 50 फीसदी पुलिस वाले मानते हैं कि मुसलमानों में स्वाभाविक रूप से अपराध की ओर झुकाव होता है। इसमें यह भी पाया गया कि 35 फीसदी पुलिसवाले मानते हैं कि गोहत्या के मामलों में ‘दोषी’ को भीड़ द्वारा सजा देना स्वाभाविक है और वैसे ही 43 फीसदी पुलिस वाले बलात्कार के आरोपी को भीड़ द्वारा सजा देने को स्वाभाविक मानते हैं। 37 फीसदी का मानना है कि छोटे-मोटे अपराधों के लिए सजा देने का काम पुलिसवालों का होना चाहिए, न कि इसके लिए लंबी कानूनी लड़ाई में जाना चाहिए। जिन लोगों से बातचीत की गई, उनमें 72 फीसदी ने कहा कि प्रभावशाली लोगों से जुड़ी तफ्तीश के दौरान उन्होंने राजनीतिक दबाव को झेला।

रिपोर्ट बताती है कि जिलों के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों, मसलन, एसपी और डीआईजी के दो साल से पहले तबादलों के मामलों में 2007 के बाद से पूरे देश में खासी कमी आई, लेकिन हरियाणा और उत्तर प्रदेश में ऐसे सर्वाधिक तबादले हुए। प्रकाश सिंह बनाम भारतीय संघ के 2006 के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर अहम पदों पर तैनात पुलिस अधिकारियों को एक जगह न्यूनतम दो साल की तैनाती दी जाए। यह इसलिए था कि पुलिस का कामकाज राजनीतिक दबाव से मुक्त हो, उनमें काम करने के मामले में स्वायत्तता आए और वे जल्दी तबादले के भय से मुक्त होकर काम कर सकें। 2006 के फैसले के बाद पांच राज्यों- पंजाब, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, केरल और बिहार- ने दो साल की न्यूनतम तैनाती के फैसले में संशोधन के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इन पांचों राज्यों की इस तरह की दलील को सिरे से खारिज कर दिया।

फिर भी, आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि राज्यों ने काफी हद तक इस कानूनी प्रावधान पर अमल नहीं करने के छद्म उपाय खोज निकाले हैं। दस साल के औसत के आधार पर बात करें तो सर्वेक्षण में शामिल राज्यों में से सात में 25 फीसदी से ज्यादा एसएसपी और डीआईजी के तबादले दो साल के भीतर किए गए। गौर करने की बात यह है कि इन तबादलों और चुनावों में सीधा संबंध दिखता है, क्योंकि राज्यों में चुनाव के समय इस तरह के तबादलों में खासा इजाफा हो जाता है। उदाहरण के लिए, साल 2013 में एसएसपी और डीआईजी के राजस्थान में 98 फीसदी, हरियाणा में 32 फीसदी तबादले चुनावी साल में हुए। झारखंड में तो हर चुनाव के समय इन पदों पर तैनात 28 से 53 फीसदी अधिकारियों के तबादले हो जाते रहे हैं।


हाशिए पर पड़े समुदायों के प्रति भेदभावपूर्ण सोच

इस रिपोर्ट में पूरा एक अध्याय इस विषय पर है कि मुसलमानों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग जैसे हाशिए पर पड़े समुदायों के बारे में पुलिसवालों की सोच क्या है। चैप्टर के पहले भाग में इस बात का जिक्र है कि कैसे पुलिस बल के भीतर भी इन तबकों के लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है जबकि दूसरे भाग में यह बताया गया है कि कुछ खास समुदायों और अपराध करने की उनकी प्रवृत्ति के बारे में पुलिसवालों की धारणा क्या है।

  • पुलिस बल में आधे से भी कम लोग यह मानते हैं कि बल के भीतर एससी-एसटी के लोगों के साथ बराबरी का व्यवहार होता है। जबकि ज्यादातर एससी-एसटी से आने वाले कर्मियों को महसूस होता है कि उनके साथ भेदभाव होता है।
  • लगभग एक तिहाई पुलिसवालों को महसूस होता है कि पुलिस बल में धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं होता।
  • चौदह फीसदी पुलिसवालों का मानना है कि मुसलमानों में स्वाभाविक तौर पर अपराध करने की प्रृवत्ति ‘काफी अधिक’ होती है जबकि 36 फीसदी मानते हैं कि मुसलमानों में यह प्रवृत्ति ‘कुछ हद तक’ होती है।
  • हर पांचवां पुलिसकर्मी मानता है कि एससी/एसटी (अत्याचार निरोधक) अधिनियम के तहत दर्ज कराए गए ज्यादातर मामले गलत होते हैं।
  • चौबीस फीसदी पुलिसवाले मानते हैं कि प्रवासियों में स्वाभाविक तौर पर अपराध करने की प्रृवत्ति ‘काफी अधिक’ होती है जबकि 36 फीसदी मानते हैं कि उनमें यह प्रवृत्ति ‘कुछ हद तक’ होती है।
  • हर पांच में से दो पुलिसवालों का मानना है कि 16 से 18 साल के अपराधियों के साथ एक वयस्क अपराधी जैसा व्यवहार होना चाहिए।
  • पैंतीस फीसदी पुलिसवालों का मानना है कि गोहत्या के दोषियों को भीड़ द्वारा सजा देना स्वाभाविक है।

न्यायेतर हत्या को वाजिब ठहराने की मानसिकता

बेशक इस देश में सजा देने का काम न्यायपालिका का हो, लेकिन तमाम ऐसे पुलिसवाले हैं जो यह काम खुद करना बेहतर मानते हैं। बीस फीसदी का मानना है कि खतरनाक अपराधियों को अदालती प्रक्रिया से गुजारने से बेहतर उनकी हत्या कर देना है। तकरीबन 75 फीसदी पुलिसवालों ने अपराधियों के साथ हिंसक व्यवहार को सही बताया जबकि 37 फीसदी ने मामूली अपराधों के लिए अदालती प्रक्रिया से बेहतर उन्हें दंड देना बताया।

सीआरपीसी के सेक्शन 46 में एक पुलिस अधिकारी को गिरफ्तार करने की प्रक्रिया का जिक्र है। इसमें विशिष्ट परिस्थितियों में वैसे अपराधियों के संदर्भ में एनकाउंटर को आंशिक अनुमति दी गई है, जिन्होंने मृत्युदंड अथवा उम्रकैद की सजा पाने वाला अपराध किया हो। इस सेक्शन का क्लॉज 2 और 3 कहता है- यदि ऐसा व्यक्ति उसे गिरफ्तार करने के प्रयासों को जबरन रोकता है, या गिरफ्तारी से बचने का प्रयास करता है, तो ऐसे पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति उस व्यक्ति की गिरफ्तारी सुनिश्चित करने के लिए सभी आवश्यक साधनों का उपयोग कर सकते हैं। इस धारा के तहत किसी भी पुलिसवाले को यह अधिकार नहीं मिलता कि वे उन अपराधियों की मौत का कारण बनें जो मृत्यु या आजीवन कारावास वाले दंडनीय अपराध के आरोपी नहीं हैं।

जबकि कानूनी प्रावधान अधिकारियों को केवल उस मामले में सुरक्षा प्रदान करते हैं जब कोई मुठभेड़ आत्मरक्षा के लिए हुई हो। हालांकि रिपोर्ट में कहा गया है कि 'फर्जी' मुठभेड़ों की संख्या काफी बढ़ी है जिनमें दिखाया जाता है कि आत्मरक्षा के क्रम में एनकाउंटर हुआ। साल 2014 में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एनकाउंटर के सभी मामलों की किसी मजिस्ट्रेट से जांच को अनिवार्य बनाया। रिपोर्ट कहती है कि इसके बावजूद पुलिस एनकाउंटर में कमी नहीं आई और मार्च, 2017 के बाद से उत्तर प्रदेश में 49 लोग एनकाउंटरों में मारे गए, जिनमें ज्यादातर दलित, मुस्लिम या ओबीसी थे। ऐसे हालात में, एनकाउंटर में होने वाली हत्याओं के बारे में कर्मियों के नजरिये और उनकी धारणाओं का पता लगाना जरूरी हो जाता है।


हाल के वर्षों में गोहत्या, अपहरण इत्यादि में मॉब लिंचिंग की घटनाओं और इस तरह की हिंसा में शामिल लोगों को एक तरह से पुलिस से शह मिलने के मामलों में खासा इजाफा हुआ है। रिपोर्ट कहती है, ‘गोहत्या, बलात्कार या अपहरण जैसे अपराधों में भीड़ द्वारा कानून को अपने हाथ में लेकर फैसला करने की भीड़ मानसिकता के बारे में पुलिसवालों की क्या सोच है, यह जानना जरूरी हो जाता है।’ रिपोर्ट कहती है कि इस खंड में भीड़ द्वारा की गई हिंसा के प्रति पुलिसवालों की सोच का अंदाजा लगाने की कोशिश की गई। इसमें किसी समुदाय विशेष को नहीं बल्कि कुछ खास किस्म के अपराधों को कसौटी बनाया गया। सर्वेक्षण के दौरान पुलिसवालों से चार अलग-अलग तरह के मामलों- गोहत्या, अपहरण, बलात्कार और किसी ड्राइवर की भूल से होने वाली सड़क दुर्घटना में भीड़ द्वारा की गई हिंसा के प्रति उनकी राय पूछी गई।

हर तीन पुलिसवालों में एक से ज्यादा ने गोहत्या के मामले में भीड़ द्वारा कानून को हाथ में लेने को स्वाभाविक करार दिया जबकि हर पांच में से दो ने अपराध के अन्य तीन मामलों में भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने को स्वाभाविक बताया। दूसरे शब्दों में कहें तो आधे से कुछ ही कम पुलिसवालों को गोहत्या के मामले में भीड़ का कानून अपने हाथ में लेना अस्वाभाविक लगा जबकि आधे से ज्यादा को यह स्वाभाविक लगा। केवल 6 से 10 फीसदी पुलिसवालों ने कहा कि ऐसे मामलों में भीड़ का कानून अपने हाथ में लेना किसी कोण से स्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। जहां तक वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की बात है, 28 फीसदी गोहत्या के मामलों में भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने को स्वाभाविक मानते हैं। अगर इस विषय पर राज्यवार बात करें तो रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश में हर पांच में दो तथा छत्तीसगढ़, गुजरात और उत्तर प्रदेश में हर चार पुलिसकर्मियों में से एक का मानना है कि गोहत्या के मामलों में भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेना स्वाभाविक है।

इस तरह हम देखते हैं कि रिपोर्ट से यह बात एकदम साफ हो जाती है कि पुलिसवालों के व्यवहार को संविधान-सम्मत बनाने के लिए पुलिस बल के हर स्तर पर उचित प्रशिक्षण की बेहद जरूरत है।

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