स्वार्थी नेता फैला रहे सांप्रदायिकता का जहर, धर्मनिरपेक्षता की रक्षा न्यायपालिका की जिम्मेदारी : मनमोहन सिंह

सीपीआई के दिवंगत महासचिव ए बी वर्द्धन की स्मृति में आयोजित एक व्याख्यान में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने कहा कि 6 दिसंबर 1992 का दिन हमारे धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र के लिए दुखदायी दिन था और उससे हमारी धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धताओं को गहरा आघात पहुंचा।

फोटोः विश्वदीपक
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विश्वदीपक

राजधानी दिल्ली में मंगलवार को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) द्वारा आयोजित ‘धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की रक्षा' विषय पर आयोजित दूसरे एबी बर्धन व्याख्यान को संबोधित करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता संविधान का मौलिक स्वरूप है और एक संस्था के रूप में न्यायपालिका की यह जिम्मेदारी है कि वह संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप का संरक्षण करने की अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी को नजरंदाज न करे। उन्होंने कहा कि मौजूदा दौर में राजनीतिक विरोध और चुनावी राजनीति में धर्मिक तत्वों, प्रतीकों, मिथकों और पूर्वाग्रहों की मौजूदगी से संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के संरक्षण का आवश्यकता काफी अधिक बढ़ गयी है। पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा कि देश के सैन्य बलों को भी धार्मिक अपीलों से खुद को अछूता रखने की बेहद जरूरत है, क्योंकि भारतीय सशस्त्र बल देश के शानदार धर्मनिरपेक्ष स्वरूप का अभिन्न हिस्सा हैं।

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दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित व्याख्यान में बाबरी मस्जिद विध्वंस का जिक्र करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा कि 1990 के दशक के शुरुआती दौर में राजनीतिक दलों और राजनेताओं के बीच बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों के सह अस्तित्व के मुद्दे पर शुरू हुआ झगड़ा असंतुलित स्तर पर पहुंच गया था। उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद पर राजनेताओं के झगड़े का अंत सुप्रीम कोर्ट में हुआ और न्यायधीशों को संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को पुन: परिभाषित कर बहाल करना पड़ा। उन्होंने कहा, “6 दिसंबर 1992 का दिन हमारे धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र के लिए दुखदायी दिन था और उससे हमारी धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धताओं को गहरा आघात पहुंचा।” उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने एसआर बोम्मई मामले में धर्मनिरपेक्षता को संविधान के मौलिक स्वरूप का हिस्सा बताया। लेकिन दुर्भाग्यवश यह स्थिति बहुत कम समय तक ही रह पायी, क्योंकि बोम्मई फैसले के कुछ समय बाद ही ‘हिंदुत्व को जीवनशैली' बताने वाला जस्टिस जेएस वर्मा का प्रसिद्ध लेकिन एक विवादित फैसला आ गया। उस फैसले का गणतांत्रिक व्यवस्था में धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को लेकर राजनीतिक दलों के बीच चल रही बहस पर निर्णायक असर हुआ।

मनमोहन सिंह ने कहा कि न्यायाधीशों की सजगता और बौद्धिक क्षमताओं के बावजूद कोई भी संवैधानिक व्यवस्था सिर्फ न्यायपालिका द्वारा संरक्षित नहीं की जा सकती है। अंतिम तौर पर संविधान और इसकी धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धताओं के संरक्षण की जिम्मेदारी राजनीतिक नेतृत्व, नागरिक समाज, धार्मिक नेताओं और देश के प्रबुद्ध वर्ग की है। उन्होंने आगाह किया कि असमानता और भेदभाव की सदियों पुरानी रूढ़ियों वाले इस देश में धर्मनिरपेक्षता के संरक्षण का लक्ष्य हासिल करना आसान नहीं है। उन्होंने कहा कि सामाजिक भेदभाव का एकमात्र आधार धर्म नहीं है। कभी-कभी जाति, भाषा और लिंग के आधार पर हाशिये पर पहुंचे असहाय लोग भी हिंसा, भेदभाव और अन्याय का शिकार होते हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा, “हमें नि:संदेह यह समझना चाहिए कि अपने लोकतंत्र के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को कमजोर करने का कोई भी प्रयास व्यापक रूप से समान अधिकारवादी सोच को बहाल करने के सभी प्रयासों को नष्ट कर देगा। उन्होंने कहा कि इन प्रयासों की कामयाबी सभी संवैधानिक संस्थाओं में निहित है।”

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