पुलवामा हमलाः समय के साथ देश का गुस्सा तो उतर जाएगा, लेकिन शहीदों की विधवाओं का दर्द कौन समझेगा!

युद्ध में मारे गए लोग अक्सर युवा होते हैं। उनकी पत्नियां युवा होती हैं और बच्चे छोटे होते हैं। सिर्फ भावुक शोक और सहानुभूति की जगह उन बच्चों और विधवाओं के भविष्य के बारे सोचा जाना चाहिए। क्या उन्हें अंधेरे से बाहर निकालने के लिए कुछ किया जा सकता है?

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

इन दिनों देश में जबरदस्त भावावेग है, खासकर पुलवामा हमले में 49 जवानों के शहीद होने के बाद। रोजाना शहीद होने वाले सैनिकों की खबरें भी इन दिनों थोड़े विस्तार से देखने को मिल रही हैं। वरना सच ये है कि बरसों से दो-चार सैनिक सीमा पार की गोलीबारी में प्रायः रोज शहीद होते रहे हैं। उनकी संक्षिप्त खबर होती है कि भारत-पकिस्तान के बीच एक छोटी झड़प में या आतंकियों के हमले में दो-चार सैनिक शहीद हो गए।

लेकिन ऐसी हर छोटी सी खबर अपने पीछे काले सच के कई पहाड़ छिपा जाती है। यह छिपा जाती है कि दूर देहात के किसी अनजान अनाम गांव में तीन-चार अनाम अनजान औरतें विधवा हो गईं, उनका सुहाग उजड़ गया, उनके सुख और सपने खाक हो गए, उनके दो-चार बच्चे अनाथ हो गए, मां-बाप, सास-ससुर, भाई-बहन की आगे की चालीस पचास बरसों की जिंदगी, दो-चार पुश्तें अभिशप्त, अंधेरी हो गईं। और सबसे अंधेरा हो गया उस औरत का जीवन जिसका दैवीय अपराध बस इतना है कि वह मृत सैनिक की पत्नी है।

इन तमाम कड़वी सच्चाइयों को छिपा लेता है, बस एक छोटा सा शीर्षक- ‘सीमा पर झड़प में तीन सैनिक शहीद।’ काली अंधेरी सच्चाइयों के तमाम पहाड़ और आजीवन हिलोड़ने वाले आंसुओं के सारे खारे समुद्र, सब छिप गए! वह सभी युद्ध छिप गए जो इन औरतों को अब आजीवन लड़ना होगा, कभी समाज से, परिवार से, उन लांछनों से जो एक विधवा को भारतीय परंपराओं में झेलनी पड़ती हैं, कभी सरकार से अपनी पेंशन के लिए और सबसे बढ़कर हमेशा अपने आप से- जीने के लिए!

एक लड़ाई जो वह कभी नहीं लड़ पाती वह है अपने दैवीकरण से। एक सामान्य स्त्री से देवी बना दिया जाता है, ठीक वैसे ही जैसे दो सौ बरस पहले तक जबरन सती बनाकर उसे पति की चिता पर चढ़ा दिया करते थे। तब के देवीकरण और आज के देवीकरण में क्या फर्क है?

लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते हैं, उफान उतरता जाता है और युद्ध-योद्धाओं की विधवाएं अपने अकेलेपन से जूझने के लिए अकेले छोड़ दी जाती हैं। उन्हें मिलने वाला मुआवजा बेशक एक बड़ा सहारा होता है लेकिन धन साथी नहीं बन सकता। पुलवामा शहादत पर देश में स्वाभाविक गुस्सा है, होना चाहिए और बदला भी लिया जाना चाहिए।

टीवी पर शहीदों की विधवाओं, परिजनों और आम नागरिकों का आर्तनाद भी स्वाभाविक है। लेकिन, इसी दौरान एक कारगिल शहीद की विधवा कहती है कि पति की शहादत के बाद बीस वर्षों के दौरान कोई उसका हाल पूछने भी नहीं आया और कि कैसे उसने अकेले अपनी बेटियों को पाला। उसकी यह बात पुलवामा के युद्धोन्माद में अनसुनी रह जाती है। मुआवजा और युद्ध तो अपनी जगह चले, ठीक है। लेकिन युद्ध विधवाओं का क्या होता है? उनका क्या होना चाहिए? जौहर?

युद्ध में मारे गए लोग अक्सर युवा ही होते हैं। उनकी पत्नियां युवा होती हैं और उनकी गोद में बच्चे, नन्हें। सिर्फ भावुक शोक और सहानुभूति के बदले सोचना चाहिए कि उन बच्चों और विधवाओं का भविष्य क्या होगा। क्या उन्हें अंधेरे से बाहर निकालने के लिए कुछ किया जा सकता है?

जीवन काटने के लिए साथी की जरूरत होती है। अलग बात है कि जिस समय कोई मारा जाता है, बरसों बाद तक भी माहौल बेहद भावुक होता है और ऐसे में किसी स्त्री को दुबारा विवाह के लिए कहना बेहद कठिन काम है। उनकी भावनाओं का उफान शायद कई बरसों में भी नहीं उतरे। बहुत संवेदनशील विषय है।

उनके मन का उफान भले कभी नहीं उतरे, जनसंवेदना का ज्वार तो बहुत जल्द उतर जाता है। उनके यहां जुटनेवाली भीड़ दो-चार दिनों में कम हो जाती है, नेताओं-अफसरों के औपचारिक दौरे, फोटो सेशन समाप्त हो जाते हैं और तब औरत अकेले रह जाती है। कोई गिनता भी नहीं कि हर दो-चार दिन में नई जुड़ने वाली संख्याओं के साथ पूरे देश में युद्ध-विधवाओं की संख्या क्या है और शायद जानकर आश्चर्य होगा कि विश्व में युद्ध-विधवाओं की सबसे बड़ी संख्या भारत में ही है जबकि वर्षों से कोई पूरा युद्ध इस देश ने नहीं लड़ा है और शांतिकाल चल रहा है।

यह संख्या एक अनुमान के अनुसार कम-से-कम 25 हजार है। एक आंकड़े के अनुसार इनमें से 90 प्रतिशत महिलाएं ग्रामीण इलाकों में, अधिकांश अल्प-शिक्षित या अशिक्षित और गरीब पिछड़ी सामजिक पृष्ठभूमि से हैं। नतीजा होता है कि न वे अपने मुआवजे के लिए मांग कर पाती हैं, न रोजगार करने लायक हैं और न अपने मुआवजे या पेंशन को अपने परिजनों द्वारा हड़पे जाने से बचा पाती हैं।

भारतीय समाज में आम विधवाओं की स्थिति सबसे दयनीय रही है। यही वजह है कि सदियों तक, अब से दो सौ बरस पहले तक हिंदू समाज अपनी विधवाओं को पति की चिता पर ही जलाकर मार देता था और विधवाएं भी अपनी भावी जिंदगी की दुर्दशाओं की आशंका से खुद ही जल कर सती हो जाना ज्यादा पसंद करती थीं। सदियों तक इस अमानवीय सामाजिक कृत्य के खिलाफ कभी कोई आवाज महान विचारकों वाले इस देश में नहीं उठी।

कितने समाज सुधारक राजा राममोहन रॉय के पहले आए और गए। यहां तक कि कबीर ने भी, जिन्होंने हिंदू-मुसलमानों की तमाम कुरीतियों के खिलाफ सबसे बुलंद आवाज उठाई, और जो खुद भी एक विधवा के ही पुत्र कहे जाते हैं, उन्होंने भी विधवा-प्रथा या सती प्रथा के खिलाफ कुछ भी नहीं कहा। कबीर बनारस में रहते थे और देश में अपने घर से निकाल दी गई आम विधवाओं के सबसे बड़े ठिकाने बनारस, वृन्दावन और मथुरा जैसे तीर्थस्थान ही हैं। वहां बने आश्रमों और मंदिरों में विधवाएं मंदिरों में भजन कीर्तन करती हैं, साफ-सफाई, भगवान के श्रृंगार के लिए फूल-माला वगैरह बनाने का काम करती हैं और बदले में कोई मजदूरी नहीं मिलती, सिर्फ खाना मिलता है।

कुछ साल पहले खबर छपी किअंतिम संस्कार के लिए धन नहीं होनेके कारण मथुरा की विधवाओं के मृत शरीर टुकड़े कर यमुना में बहा दिए जाते हैं जहां उन्हें मछलियां खा जाती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने तब आदेश दिया कि उनके अंतिम संस्कार नगर निगम करे। तो यह है स्थिति। याद होगा कि जब नंदिता दास विधवाओं की दशा पर बनारस में एक फिल्म बना रही थीं तो स्थानीय पंडों ने मार-पीटकर उनका सेट तोड़ दिया और उन्हें भागना पड़ा। फिर मुंबई में नकली सेट बनाकर उन्हें शूटिंग करनी पड़ी। वही विरोध और नकली सेट भारतीय विधवा का असली जीवन है। और ये पूरा भारत ही वह नकली सेट है, विद्यासागर के डेढ़ सौ बरस बाद भी।

विधवाओं के दोबारा विवाह की संभावनाएं आज भी बेहद कम हैं। युद्ध-विधवाओं को अपने देवर या ससुराल में ही किसी और से विवाह कर देने की कुछ घटनाएं होती रही हैं। कारण है कि उन्हें मिलने वाली पेंशन परिवार से बाहर न जाए। 1996 के पहले तक अपनी ससुराल से बाहर किसी अन्य से विवाह करने पर उन्हें पेंशन से वंचित कर देने का भी अमानवीय कानून था। खैर है कि मानवाधिकार के नाम पर वह बदला गया लेकिन अब भी वह सुधार कागजी ही है। उनसे विवाह के लिए बहुत कम लोग तैयार होते हैं। उनके पुनर्वास में सबसे बड़ी दिक्कत मानसिक अवरोध-प्रतिरोध की है जो सामाजिक भी है और स्वयं विधवाओं के अपने मन में भी है जिससे मुक्ति दिलाने के लिए बड़े पैमाने पर जेंडर जागृति अभियान की ज़रूरत है। आखिर जरूरत सिर्फ धन की नहीं होती- साथी की भी होती है।

पुलवामा की विधवाओं का आर्तनाद देश के कोनों में अभी नया है। पूरे देश में लोगों में गुस्सा है, सहानुभूति है, दर्द है। शासन-प्रशासन का भी ध्यान जान गंवाने वालों की ओर है। लेकिन, धीरे-धीरे यह आवेग उतर जाएगा, वैसे ही, जैसे कारगिल का उतर गया और जैसे रोजाना मरनेवालों की विधवाओं को लेकर कभी चढ़ा ही नहीं। आवेग उतर जाएगा लेकिन एक दबा हुआ विलाप बना रहेगा, जब तक कि किसी दीर्घकालिक योजना पर काम नहीं किया जाता। सबसे जरूरी है कि पहले यह तो माना जाए कि यह भी एक मुद्दा है।

(नवजीवन के लिए गुंजन सिन्हा की रिपोर्ट)

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