आरएसएस की कसौटी पर खरी नहीं उतरी मोदी की बीजेपी सरकार, फिर से जिताने के लिए ताकत नहीं लगाएगा इस बार संघ
मोदी सरकार के पहले चार साल में संघ के स्वंय सेवकों में सरकार के कामकाज को लेकर बेचैनी बढ़ी है क्योंकि संघ को मोदी सरकार से जिस तरह के नतीजों की उम्मीद थी, वह उस पर खरी नहीं उतरी है और संघ कार्यकर्ताओं को आम लोगों के सवालों का सामना करना पड़ रहा है।
आरएसएस अगले लोकसभा चुनाव यानी 2019 के आम चुनाव में बीजेपी को जिताने के लिए पूरी ताकत नहीं लगाएगा। आरएसएस ने अपने 93 साल के इतिहास में सिर्फ दो बार आम चुनावों में कांग्रेस को हराने और बीजेपी को सत्ता में लाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंकी थी। लेकिन अब इस बात की संभावना कम ही है कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में संघ बीजेपी के लिए पूरी ताकत का इस्तेमाल करेगा।
इसका कारण यह नहीं है कि संघ अब बीजेपी को सत्ता में देखना नहीं चाहता या उसके बीजेपी के साथ रिश्ते खराब हो गए हैं। बल्कि इसके दो अन्य कारण हैं। पहला कारण है कि संघ को लगता है कि सत्ता में आने के बाद बीजेपी कार्यकर्ता (जिनमें से बड़ी संख्या में संघ से जुड़े लोग हैं) वह भ्रष्ट हो सकते हैं और सत्ता का नशा संघ को गहरे नुकसान पहुंचा सकता है। और दूसरा कारण है कि मोदी सरकार के पहले चार साल में संघ के स्वंय सेवकों में सरकार के कामकाज को लेकर बेचैनी बढ़ी है क्योंकि संघ को मोदी सरकार से जिस तरह के नतीजों की उम्मीद थी, वह उस पर खरी नहीं उतरी है और संघ कार्यकर्ताओं को आम लोगों के सवालों का सामना करना पड़ रहा है।
हाल ही में संघ पर प्रकाशित किताब ‘ए व्यू टू दि इनसाइड’ में दावा किया गया है कि 1977 और 2014 में संघ ने बीजेपी को जिताने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। 1977 में संघ को आशंका थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी संघ के विस्तार को थाम सकती हैं और उसे आगे नहीं बढ़ने देंगी। इसलिए संघ ने अपनी पूरी ताकत लगाकर इंदिरा गांधी को हराने का काम किया। और दूसरा मौका आया 2014 में। इस चुनाव में संघ को आशंका थी कि कांग्रेस सरकार हिंदू आतंकवाद के नाम पर संघ के कामकाज पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी कर रही है।
एंडरसन और श्रीधर ने अपनी इस किताब में लिखा है कि, “बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता हमें बताया कि संसदीय चुनावों में सिर्फ दो बार ही संघ ने अपनी पूरी ताकत का इस्तेमाल किया। पहली बार 1977 में जनता पार्टी के लिए और दूसरी बार 2014 में बीजेपी के लिए। इन दोनों चुनावों में संघ ने अपने सभी वरिष्ठ पदाधिकारियों और प्रचारकों को चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने और सक्रिय भूमिका निभाने की इजाजत दी थी। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि संघ हर चुनाव में अपने प्रचारकों और पदाधिकारियों की ताकत झोंकेगा।”
किताब में आगे कहा गया है कि, “दोनों ही बार ऐसा डर था कि कांग्रेस अगर सत्ता में रहती है तो हिंदुओं को एकजुट करने का संघ का अभियान कमजोर होगा और उसकी गतिविधियों को नुकसान पहुंचेगा। हमें बताया गया कि संघ आने वाले वर्षों में अब बीजेपी को इस स्तर की मदद करने के पक्ष में नहीं है।” किताब के मुताबिक संघ चाहता है कि बीजेपी और उससे जुड़े दूसरे संगठन अपने कार्यकर्ताओं को अब स्वंय प्रशिक्षित करें।
गौरतलब है कि इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी सरकार ने आरएसएस के कई बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया था। उस समय संघ को लगने लगा था कि अगर इंदिरा गांधी सत्ता में वापस आईं तो संघ की परेशानियां बढ़ सकती हैं। किताब में कहा गया है कि, “कांग्रेस ने इमरजेंसी के दौरान संघ पर पाबंदी लगाई और संघ को लगने लगा था कि इंदिरा गांधी कभी संघ को आगे नहीं बढ़ने देंगी। उस समय के सर संघचालक मधुकर देवरस ने पहली बार राजनीति में कदम बढ़ाते हुए विपक्ष के साथ खड़े होने का फैसला किया और संघ इंदिरा गांधी को हराने के लिए पूरी ताकत से जुट गया। एक ऐसी विरोध रैली जिसमें करीब डेढ़ लाख लोग शामिल हुए थे, उनमें से एक लाख से ज्यादा लोग संघ के ही थे, जिसके नतीजे में इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल होना पड़ा।”
2014 के चुनाव में संघ को आशंका थी कि कांग्रेस अगर सत्ता में तीसरी बार आ गई तो देश में हिंदुत्व का एजेंडा लागू करने में दिक्कतें होंगी, जिसकी वजह से संघ ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर बीजेपी को सत्तासीन करने के लिए अपनी पूरी ताकत का इस्तेमाल किया। किताब में संघ के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले के हवाले से कहा गया है कि, “संघ चाहता था कि बीजेपी जीते, क्योंकि इससे देश में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन संभव है और 2014 के चुनाव को इसी मिशन के नजरिए से देखा गया था।”
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