शरजील इमाम की डायरीः शाहीन बाग आंदोलन भारतीय इतिहास में मील का पत्थर, कई बड़े संदेश दे गया
अंदाजा नहीं था कि मुझ पर ‘आतंकवाद’ का आरोप लगाया जाएगा, खासकर मेरी गिरफ्तारी के एक महीने बाद हुए दंगों के लिए। यह बताता है कि मौजूदा सत्ता असहमति को दबाने और मेरे जैसों को सलाखों के पीछे रखने के लिए किस हद तक जा सकती है।

मैंने पहले ही जेल में करीब चार साल काट लिए हैं। मुझे पहले से आशंका थी कि शाहीन बाग में प्रदर्शन करने के कारण मुझे झूठे आरोपों में कैद कर लिया जाएगा। मैंने इसके लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार भी कर लिया था। जैसा कि गालिब ने लिखा है,
‘खाना-जाद-ए-जुल्फ हैं जंजीर से भागेंगे क्यूं
हैं गिरफ्तार-ए-वफा जिंदान से घबराएंगे क्या’
हालांकि, अंदाजा नहीं था कि मुझपर ‘आतंकवाद’ का आरोप लगाया जाएगा, खासकर मेरी गिरफ्तारी के एक महीने बाद हुए दंगों के लिए। यह बताता है कि मौजूदा सत्ता असहमति को दबाने और मेरे जैसों को सलाखों के पीछे रखने के लिए किस हद तक जा सकती है। मजाज ने अपनी नज्म में इसे बखूबी कहा है:
‘हदें वो खींच रक्खी हैं हरम के पासबानो ने
के बिन मुजरिम बने पैगाम भी पहुंचा नहीं सकता’
इस लंबे कारावास में मुझे जिस एक बात से सच में तकलीफ होती है, वह है मेरी बूढ़ी और बीमार मां के बारे में सोचकर। मेरे पिता का नौ साल पहले देहांत हो गया था और तब से सिर्फ मैं और मेरा छोटा भाई ही उनका साथ दे रहे थे। मैंने खुद को खुदा के रहम पर छोड़ दिया है और पढ़ने में अपना समय बिताता हूं। जब तक मेरे पास अच्छी और दिलचस्प किताबें हैं, मुझे सुकून मिलता है, और बाहरी दुनिया मुझे ज्यादा प्रभावित नहीं करती।
मैं ईरानी क्रांतिकारी अली शरियाती के बारे में सोचता हूं जिन्होंने दो साल जेल में बिताए और घर में नजरबंद रहते उनकी मृत्यु हुई। उनसे मैंने यह दुआ सीखी: ‘ऐ खुदा, मुझे वह बदलने की ताकत दो जो मैं बदल सकता हूं, और जो मैं नहीं कर सकता, उसे मान लो।’ इसी दुआ के साथ मैं खुद पर काम करने की कोशिश करता हूं। लेकिन जैसे-जैसे साल बीतते जा रहे हैं, मुझे अपनी मां, अपने भाई और बाहरी दुनिया की चिंता होने लगी है। मैं सोचता हूं कि क्या मेरी मौजूदगी से कोई फर्क पड़ सकता था, या क्या मैंने कुछ ऐसा खो दिया है जो कभी वापस नहीं मिल सकता।
शाहीन बाग भारतीय इतिहास में मील का पत्थर है– पहले तो शांतिपूर्ण धरने का नेतृत्व छात्रों ने किया और बाद के तीन महीने तक महिलाओं ने। महामारी के कारण लगे लॉकडाउन से ही यह बाधित हुआ। यह आंदोलन भारत में मुसलमानों के हाल के इतिहास में कई महत्वपूर्ण रुझानों की परिणति का प्रतिनिधित्व करता है: एक शिक्षित मुस्लिम मध्यम वर्ग का उदय, सांप्रदायिकता और इस्लामोफोबिया में इजाफा, मुसलमानों को सबसे ज्यादा वोट पाने वाले को विजयी घोषित करने वाली चुनाव व्यवस्था में निराशा महसूस हुई, बीजेपी का बहुसंख्यकवादी विधायी दुस्साहस जिसके तहत सीएए लाया गया, अनुच्छेद 370 को खत्म करके जम्मू और कश्मीर का विभाजन, ‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों का उदासीन रवैया और फिर मुस्लिम महिलाओं के ‘उद्धारकर्ता’ के रूप में दिखने की बीजेपी की कोशिश।
इस विरोध की बड़ी खासियत यह थी कि हालांकि यह स्वतःस्फूर्त था, यह जेएनयू, आईआईटी और जामिया के मुस्लिम विद्वानों के एक समूह के एकजुट प्रयास के बिना संभव नहीं था। मेरे अलावा तमाम बुद्धिजीवी काफी दिनों से राजमार्गों पर धरने और चक्का जाम की वकालत कर रहे थे और 15 दिसंबर को उस राजमार्ग पर हमारी मौजूदगी के बिना यह सिर्फ किसी सामान्य जुलूस जैसा ही होता, न कि लगातार चलने वाला धरना।
शुरू में शाहीन बाग के विरोध का हर पल संघर्ष था। संभवतः पुलिस के इशारे पर बदमाशों ने पहली रात से ही प्रदर्शन को बाधित करने, हिंसा भड़काने और आंदोलन को पटरी से उतारने की कोशिश की। कड़ाके की सर्द रातों ने चुनौती को और बढ़ा दिया, फिर भी कुछ दर्जन व्यक्तियों का समूह डटा रहा और दूसरे सप्ताह से महिलाओं ने मोर्चा थाम लिया। विभिन्न तबकों का प्रतिरोध झेलना पड़ा जिनमें रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (आरडब्ल्यूए) और राजमार्ग के किनारे बड़े दुकानदार शामिल थे। कुछ स्थानीय उलेमा ने भी शुरू में आंदोलन का विरोध किया और हमें उम्मीद नहीं थी कि विरोध इतना लंबा चलेगा।
पहले हफ्ते में महिलाओं की भागीदारी एक विवादास्पद मुद्दा था। शुरू में कई महिलाएं केवल दोपहर में शामिल होती थीं, सड़क किनारे बंद दुकानों की सीढ़ियों पर बैठतीं या खड़ी रहतीं। दूसरे हफ्ते तक मंच के पास उनके लिए एक जगह बना दी गई और टकराव टालने के लिए मंच प्रबंधन युवा महिला छात्रों को सौंप दिया गया।
एकजुटता के लिए पहले दो हफ्तों के दौरान दो सामुदायिक इफ्तार का आयोजन किया गया। साथ ही दैनिक नमाज भी की गई जहां पुरुष और महिलाएं एक साथ नमाज करते थे। दूसरे सप्ताह तक, राजमार्ग पर जुम्मे की नमाज शुरू हो गई जिसमें हजारों लोग शामिल हुए। पुरुष डिवाइडर के एक तरफ और महिलाएं दूसरी तरफ। इन प्रयासों ने विरोध को ऐतिहासिक और स्थायी आंदोलन का रूप देने में मदद की।
मुझे नमाज के बाद दोनों जुम्मे को सभा को संबोधित करने का सौभाग्य मिला जो मेरे लिए भी एक नया अनुभव था। इन सबमें शाहीन बाग के छात्र, प्रोफेशनल, मजदूर और वकील खास मददगार रहे। दिसंबर के अंत तक यह विरोध का एक लोकप्रिय मॉडल बन गया जहां समुदाय के केवल एक हिस्से को एक खास समय पर मौजूद होना पड़ता था।
15 दिसंबर 2019 से 3 जनवरी 2020 के उन अहम 18 दिनों के दौरान, जब हमारा समूह अस्थायी तौर पर शाहीन बाग से हट गया था, आईआईटी, जेएनयू, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और एएमयू जैसे शीर्ष संस्थानों के मुस्लिम छात्र-छात्रा यहां एकजुट हो गए। ये छात्र ऐक्टिविस्ट और प्रोफेशनल शाहीन बाग की रीढ़ बन गए। उनके प्रयासों को जेएनयू, बामसेफ और कुछ वामपंथी समूहों से लेकर बाप्सा (बिरसा आंबेडकर फुले छात्र संघ) जैसे दलित और पिछड़ी जाति के संगठनों के समर्थन से बल मिला।
पहले दस रोज खास तौर पर निर्णायक थे। तब तक शाहीन बाग स्थायी आंदोलन या प्रतिरोध के व्यापक रूप का प्रतीक नहीं बना था। मीडिया कवरेज मुख्यतः ‘वायर’ (16 दिसंबर 2019) और कुछ छोटे आउटलेट जैसे प्लेटफार्मों तक सीमित था। इसके बावजूद कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों की प्रतिबद्धता और जमीनी स्तर पर लोगों की लामबंदी और संबद्ध संगठनों की मदद ने शाहीन बाग को भारतीय इतिहास में मील का पत्थर बना दिया। 25 दिसंबर तक ‘रॉयटर्स’ प्रदर्शन को बढ़िया से कवर करने लगती है और शाहीन बाग वैश्विक सुर्खियों में आ जाता है।
यह आंदोलन के लिए अहम मोड़ था। इसके बाद जो हुआ, वह ऐतिहासिक लहर जैसा था क्योंकि शाहीन बाग ने पूरे देश में ऐसे ही विरोध प्रदर्शनों को प्रेरित किया। यह शायद भारतीय इतिहास में मुस्लिम युवाओं के एक शिक्षित समूह द्वारा नेतृत्व किया गया सामूहिक प्रतिरोध का पहला बड़ा उदाहरण था। इसने स्वतंत्र रूप से संगठित होने, एकजुटता को प्रेरित करने और जनता को उत्साहित करने की उनकी क्षमता को प्रदर्शित किया, जिसने देश के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ी। जैसा कि गालिब ने लिखा है:
दिखाऊंगा तमाशा दी अगर फुर्सत जमाने ने
मिरा हर दाग-ए-दिल इक तुख्म है सर्व-ए-चरागां का
(अगर समय मिले तो दुनिया को एक तमाशा दिखाऊंगा
मेरे दिल पर लगा हर घाव ऊंचे सरू के पेड़ों का बीज है)
शाहीन बाग एक सरल लेकिन बड़ी सच्चाई को व्यक्त करता है: सत्तावादी शासन का प्रतिरोध न केवल संभव है, बल्कि इसे जनता की सामूहिक कार्रवाई के माध्यम से शांतिपूर्ण तरीके से हासिल किया जा सकता है। इतिहास बताता है कि संकट के समय में लोग अपने आंतरिक विरोधाभासों को व्यापक भलाई के लिए भुला देते हैं। मुझे उम्मीद है कि यह एक और महत्वपूर्ण संदेश देता है कि इसमें स्वतःस्फूर्त नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका है– खास तौर पर समुदाय के भीतर के शिक्षित युवाओं की।
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