उत्तर प्रदेश में चीनी मिल मालिक मार रहे हैं गन्ना किसानों का हक

वर्षों से उत्तर प्रदेश के मिल मालिक गन्ना किसानों का हक मार कर अपना लाभ बढ़ाते रहे हैं। किसानों को फसल का उचित दाम तो नहीं ही मिलता, जो देनदारी तय होती है वह भी सालों तक लटकी रहती है।

बैलगाड़ियों पर गन्ना लादकर ले जाते किसान/फोटोः Getty Images
बैलगाड़ियों पर गन्ना लादकर ले जाते किसान/फोटोः Getty Images
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प्रभात सिंह

उत्तर प्रदेश के चीनी मिल मालिकों का कहना है कि वे बहुत खराब हालत में हैं, लेकिन राज्य में मिलों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। 150 किसान संगठनों के संघ के संयोजक वी एम सिंह के अनुसार, इस विरोधाभास को आसानी से समझा जा सकता है।

देश के गन्ना किसान कई दशकों से आत्महत्या करते आ रहे हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि इंडियन सुगर मिल्स एसोसिएशन (आईएसएमए) के सदस्यों के रूप में एकजुट मिल मालिक सरकार द्वारा निर्धारित गन्ने की कीमत को बहुत ज्यादा बताकर किसानों को उनकी फसल का भुगतान करने में महीनों और कई बार तो सालों की देरी करते रहे हैं। लेकिन उनके मिल की शाखाओं में लगातार बढ़ोतरी होती रही है, क्योंकि वह अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं और अपने शेयरधारकों को भारी लाभांश भी दे रहे हैं।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 1996 में राज्य सरकार द्वारा तय गन्ने की कीमत (स्टेट एडवाइज्ड प्राइस या एसएपी) को क्षेत्राधिकार से बाहर बताकर खारिज कर दिया और केंद्र द्वारा तय कीमतों पर भुगतान करने का निर्देश दिया था जो राज्य की दर से 35% कम थी।

सुप्रीम कोर्ट ने जब इस फैसले पर रोक लगाने से इंकार कर दिया तो पंजाब और हरियाणा, मद्रास और आंध्र प्रदेश समेत कई अन्य हाई कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले का अनुसरण करते हुए किसानों को केंद्रीय दर के आधार पर भुगतान करने के आदेश दिये।

इस पर सिंह ने इलाहाबाद हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के साथ ही सुप्रीम कोर्ट में एक थर्ड पार्टी याचिका दायर की। उन्होंने कोर्ट में दलील दी कि यूपी सरकार द्वारा तय किया गया दर ही उचित था। आखिरकार हाईकोर्ट ने एसएपी को बहाल कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के 1996 के आदेश में सुधार करते हुए अपने अंतिम निर्णय के तहत किसानों को एसएपी के आधार भुगतान प्राप्त करने की अनुमति दे दी।

फोटो: Getty iamges
फोटो: Getty iamges

सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने 2004 में सिंह की याचिका पर अपने आदेश की पुष्टि की और एसएपी निर्धारित करने की राज्यों की शक्ति को बरकरार रखा। यह फैसला किसानों के लिए एक बड़ी राहत के तौर पर आया और उन्हें शेष राशि वापस नहीं करना पड़ा। इसके साथ-साथ किसानों को दो फसलों - 2002-03 और 2003-04 के विलंबित भुगतान के लिए हजारों करोड़ रुपये का भुगतान किया गया। इन मौसमों में किसानों को कम दर पर भुगतान किया गया था। यह बात अलग है कि दर निर्धारित करने का मामला बहुत जल्द एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट की 7 सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा सुना जाने वाला है।

वी एम सिंह कहते हैं कि राज्य के साथ-साथ केंद्र सरकार भी लंबे समय से गन्ना किसानों के साथ राजनीति करती आ रही हैं। वे विलंबित भुगतानों के मुद्दे को हल नहीं करना चाहती हैं। उन्होंने कहा, ‘कानूनी नियमों के मुताबिक, दो हफ्तों के भीतर गन्ने की कीमतों का भुगतान नहीं होने की स्थिति में ब्याज के साथ भुगतान किया जाए, यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है।’

सुप्रीम कोर्ट में 14 साल तक मुकदमा लड़ने के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सिर्फ एक चीनी मिल ने 1995-96 के लिए किसानों को 2 करोड़ रुपये के ब्याज का भुगतान किया। उसके बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट ने वर्ष 2012-13, 2013-14 और 2014-15 के भुगतान में देरी के लिए गन्ना उत्पादक किसानों को वैधानिक ब्याज का भुगतान किये जाने का निर्देश जारी किया। लेकिन तत्कालीन सत्ताधारी समाजवादी पार्टी ने चीनी मिल मालिकों को राहत देते हुए इस रकम को माफ करने का फैसला किया।

राज्य सरकार द्वारा ब्याज भुगतान की माफी के फैसले को चुनौती दी गई, जिस पर हाई कोर्ट ने मार्च 2017 के कैबिनेट के फैसले को निष्प्रभावी करते हुए राज्य सरकार को चार महीने के भीतर इस मुद्दे पर नये सिरे से फैसला लेने का निर्देश दिया। सिंह कहते हैं, ‘चूंकि राज्य सरकार इस मुद्दे को हल करने में विफल रही है, इसलिए मैंने सुप्रीम कोर्ट में ब्याज माफ करने के राज्य के अधिकार को चुनौती देते हुए याचिका दाखिल की है। यह फैसला तभी निष्पक्ष होगा जब राज्य सरकार मिलों का ब्याज माफ करने के साथ किसानों द्वारा लिए गए कर्ज पर लगने वाले ब्याज को भी माफ करे। यह समस्या एक बार सुलझ जाती है, तो मेरा मानना है कि गन्ने की खेती एक बार फिर लाभदायक हो जाएगी।’

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Published: 27 Sep 2017, 1:10 PM