तीन तलाक बिल का मकसद मुसलमानों को उत्तेजित कर ध्रुवीकरण करना: मुस्लिम महिलाओं और बुद्धिजीवियों की राय

धार्मिक मतों और किसी खास विचारधारा की सीमाओं से परे जाकर मुस्लिम बुद्धिजीवियों का मानना है कि नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा लाया गया तीन तलाक विधेयक एकतरफा है और यह राजनीति से प्रेरित है।

फोटो : IANS
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मुस्लिम बुद्धिजीवियों का मानना है कि केंद्र की मोदी सरकार द्वारा लाया गया तीन तलाक विधेयक न सिर्फ एक तरफा है, बल्कि यह राजनीति से प्रेरित है। लेकिन, इसके साथ ही वे खुश हैं कि इस विवाद ने लोगों को तीन तलाक के दुष्परिणामों के बारे में जागरूक किया है। रूढ़िवादियों से उदारवादियों तक और मौलवियों से महिला अधिकार कार्यकर्ताओं तक, सभी की भारी संख्या का कहना है कि भगवा दल तीन तलाक की इस सामाजिक बुराई को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए गंभीर होने के बजाए राजनीतिक दिखावे में लिप्त है। उनका मानना है कि वर्तमान प्रारूप में विधेयक अदालत के सामने नहीं टिक सकेगा।

मुंबई के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड सेक्युलरिज्म के निदेशक इरफान अली इंजीनियर का कहना है कि, "यह कानून का एक भद्दा उदाहरण है जो संविधान के खिलाफ है क्योंकि यह धर्म के आधार पर पक्षपात करता है।"

सम्मानित सुधारवादी लेखक एवं सामाजिक कार्यकर्ता असगर अली इंजीनियर के बेटे और शायरा बानो मामले में याचिकाकर्ता इरफान ने कहा, "यह उस आधार पर पक्षपात करता है जैसे कि अगर एक मुस्लिम व्यक्ति अपनी पत्नी को खास तरह से तलाक देता है तो उसे जेल होगी। लेकिन, अगर किसी दूसरे धर्म का शख्स अपनी पत्नी को छोड़ता है, तो उसके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जाएगी।" उन्होंने कहा कि 'इसमें कोई संशय नहीं है कि यह विधेयक राजनीति से प्रेरित है।'

जमात ए इस्लामी के महासचिव मोहम्मद सलीम इंजीनियर ने कहा कि उन्हें इस कानून का उद्देश्य ही समझ में नहीं आया। अगर यह कहता कि एक ही बार में कोई तीन नहीं चाहे जितनी बार भी तलाक कहे तो उसे एक ही तलाक माना जाएगा और तलाक नहीं होगा तो यह इस्लामी न्यायशास्त्र के विभिन्न स्कूलों के अनुरूप होता।

अखिल भारतीय मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरात के अध्यक्ष नावेद हमीद के भी इस मामले पर ऐसे ही विचार हैं। उन्होंने कहा, "स्पष्ट रूप से विधेयक में खामियां हैं। कई मुस्लिम संप्रदायों में तलाक शब्द तीन बार बोलने को एक ही तलाक के रूप में समझा जाता है। लेकिन, इस विधेयक में किसी भी संप्रदाय के शख्स को अपराधी घोषित कर दिया जाएगा, भले ही उसका विश्वास हो कि अभी अखंडनीय तलाक नहीं हुआ है।"

सरकार ने मुस्लिम महिला (विवाह संरक्षण अधिकार) विधेयक को पिछले साल 28 दिसंबर को विपक्ष द्वारा विधेयक को संसदीय समीति के पास भेजने की मांग के बावजूद लोकसभा में पारित कर दिया था। हालांकि राज्यसभा में यह पारित नहीं हो पाया, क्योंकि बीजेपी गठबंधन सदन में अल्पमत में है। सरकार यह भी कह चुकी है वह 'सुझावों' को मानने के लिए तैयार है, लेकिन वे 'उचित' होने चाहिए। विधेयक में एक बार में तीन तलाक बोलने को अपराध घोषित किया गया है और ऐसा करने पर तीन साल कैद का प्रावधान है।

महिला अधिकार संगठन आवाज ए निस्वां की सदस्य और तीन तलाक मामले में हस्तक्षेप करने वाली यास्मीन ने कहा कि उन्होंने और अन्य कार्यकर्ताओं ने 22 अगस्त 2017 को सर्वोच्च न्यायालय के तीन तलाक को प्रतिबंधित करने के फैसले का स्वागत किया था। लेकिन, अब सरकार द्वारा लाया गया कानून केवल बीजेपी के एजेंडा को आगे बढ़ाने के मकसद से लाया गया है, इसके अलावा और कुछ नहीं है।

यास्मीन ने कहा, "हम तीन तलाक को आपराधिक बनाने के खिलाफ हैं। घरेलू हिंसा अधिनियम और आईपीसी की धारा 498 ए पहले से ही महिलाओं के साथ हिंसा और क्रूरता से निपटने के लिए हैं और वे मुस्लिम महिलाओं पर भी समान रूप से लागू होते हैं। इसलिए किसी नए कानून की कोई जरूरत नहीं है। यह एक साजिश जैसा लग रहा है।"

बेबाक कलेक्टिव और ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वुमेन्स एसोसिएशन (एआईडीडब्ल्यूए) जैसे अन्य महिला निकायों ने सार्वजनिक रूप से तीन तलाक कानून की आलोचना की है, जिसमें उनका मानना है कि कई खामियों के साथ साथ अंतर्निहित विरोधाभास मौजूद हैं।

संसद में कई विपक्षी दलों की ही तरह मुस्लिम संगठन भी तीन तलाक के खात्मे के पक्ष में हैं लेकिन उनकी चिंता और आपत्ति इसे आपराधिक बनाकर पति को तीन साल जेल भेजने को लेकर है। इन संगठनों के कुछ सवाल हैं। मसलन:

  • पति की गैर मौजूदगी में महिला की देखभाल कौन करेगा?
  • क्या सरकार को ऐसे समूह का गठन नहीं करना चाहिए जो महिलाओं को वित्तीय सहायता और पेंशन आदि मुहैया कराए?
  • क्या महिला की शिकायत पर पति के जेल जाने के बाद शादी बरकरार रहेगी क्योंकि तलाक तो हुआ नहीं?
  • क्या महिलाओं के अधिकार तलाक के विभिन्न स्वरूपों के मामलों में इस कानून के माध्यम से सुरक्षित रहेंगे?

यह वे सवाल हैं जो विधेयक की समीक्षा करने वालों और संसद में विपक्ष ने उठाए हैं। सरकार ने ऐसी ठोस आशंकाओं को शांत करने की कोशिश नहीं की और ज्यादातर भावनात्मक अपील की, जिसमें कहा गया कि 'विधेयक मुस्लिम महिलाओं को उनका अधिकार और गरिमा देता है।'

शिया धार्मिक नेता मौलाना कल्बे सादिक तीन तलाक के विरोधी हैं और इसे समाप्त करना चाहते हैं। उन्हें भी विधेयक में आपराधिक प्रावधानों का औचित्य सिद्ध करने का कोई कारण नहीं मिला है। उन्होंने कहा, "शियाओं में तलाक ए बिद्दत (तुरंत तीन तलाक) जैसी कोई चीज नहीं है। आपराधिक प्रावधान सही नहीं हैं लेकिन तलाक ए बिद्दत भी सही नहीं है। हमारे सुन्नी भाइयों ने भी कहा है कि यह पाप है।"

मुस्लिमों के निजी कानूनों से संबंधित मामलों में सबसे मुखर निकाय अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) पहले ही मोदी सरकार के कदम को 'मुस्लिमों के संविधान प्रदत्त मूलभूत अधिकारों के अतिक्रमण' की कोशिश करार दे चुका है। बोर्ड का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तीन तलाक को अवैध करार दिए जाने के बाद यह विधेयक अनावश्यक है।

एआईएमपीएलबी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे एक पत्र में कहा था, "यदि आपकी सरकार इस संबंध में कानून बनाना जरूरी समझती है, तो पहले एआईएमपीएलबी और ऐसे मुस्लिम महिला संगठनों के साथ विचार-विमर्श होना चाहिए, जो मुस्लिम महिलाओं की सच्ची प्रतिनिधि हैं।"

सभी की तरफ से जो एक समान बात उभर कर आई वह यही कि सरकार ने इस विधेयक को तैयार करने में किसी से भी सलाह नहीं ली। कट्टर मौलानाओं को छोड़ दें तो भी उदारवादियों और कई महिला संगठनों से भी कोई राय नहीं ली गई। तीन तलाक पर चल रही गर्मागर्म बहस को पाक्षिक मिल्ली गजेट के संपादक जफरुल इस्लाम खान सकरात्मक रूप में देखते हैं।

खान ने कहा, "इस पूरे हो हल्ले के बीच एक फायदा यह हुआ है कि आम लोगों में तीन तलाक की कुरीतियों के बारे में कुछ जागरूकता फैली है। यहां तक की धार्मिक नेताओं ने भी तीन तलाक को गलत माना है और इसे समाप्त करने की बात कही है। वास्तव में, हम सभी को इस प्रथा को खत्म करना चाहिए।" उन्होंने मुसलमानों से इस विधेयक की 'अनदेखी' कर इस पर कोई 'प्रतिक्रिया' नहीं देने की सलाह दी। उनका मानना है कि 'मुसलमानों को उत्तेजित कर समाज में ध्रुवीकरण करना ही बीजेपी का मकसद लग रहा है।'

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