वाराणसी फ्लाईओवर हादसा: मोदी के आने के बाद थोपी जा रही हड़बड़ी का नतीजा हैं ऐसी दुर्घटनाएं - काशीनाथ सिंह

अपने उपन्यास “काशी का अस्सी” की वजह से दुनिया भर में पहचाने जाने वाले 81 साल के लेखक काशीनाथ सिंह का मानना है कि हर शहर की अपनी पहचान होती है। हर शहर की अपनी गति, अपनी लय होती है। अगर उससे छेड़खानी की जाएगी तो उसमें विक्षोभ पैदा होगा और इस तरह के हादसे होते रहेंगे।

फोटो: सोशल मीडिया
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विश्वदीपक

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लोकसभा संसदीय क्षेत्र वाराणसी में पिछले दिनों एक भयानक हादसा हुआ। एक निर्माणाधीन फ्लाईओवर गिरने की वजह से लगभग दो दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और कई घायल हो गए। कहा जा रहा है कि मरने वालों की तादाद इससे कही ज्यादा हो सकती है, लेकिन केन्द्र और राज्य की बीजेपी सरकारें इस तथ्य को छिपा रही हैं। इस हादसे के बाद से ही वाराणसी शहर खौफजदा है। विकास के नाम पर हो रहे अंधाधुंध निर्माण और भ्रष्टाचार की वजह से कब, कौन सा हादसा कब हो जाए, किसी को पता नहीं।

याद कीजिए 2014 में चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने काशी के नाम से विख्यात इस पौराणिक शहर को क्योटो बनाने का दावा किया था। मोदी सरकार के चार साल हो चुके हैं। इस दौरान काशी क्योटो तो नहीं बन पाया, लेकिन उसकी अपनी पहचान जरूर खत्म होती जा रही है। जिस ‘मां गंगा के बुलाने पर’ मोदी वाराणसी गए थे, उसके पानी अभी भी साफ नहीं हुआ है। हां, गंगा की सफाई के नाम पर नौकरशाहों और नेताओं ने करोड़ों रुपए जरूर बना लिए।

वाराणसी के रहने वाले प्रसिद्ध उपन्यासकार काशीनाथ सिंह मानते हैं कि ये मानव निर्मित हादसा था। वाराणसी पर ही आधारित अपने उपन्यास “काशी का अस्सी” की वजह से दुनिया भर में पहचाने जाने वाले 81 साल के लेखक का मानना है कि हर शहर की अपनी पहचान होती है। हर शहर की अपनी गति, अपनी लय होती है। अगर उससे छेड़खानी की जाएगी तो उसमें विक्षोभ पैदा होगा और इस तरह के हादसे होते रहेंगे। काशीनाथ सिंह ये भी मानते हैं कि मोदी के सत्ता में आने के बाद से बनारस का समावेशी चरित्र तेजी से बदला है। प्रस्तुत है बनारस की सभ्यता, संस्कृति, विकास और राजनीति के मुद्दे पर विश्वदीपक की उनसे बातचीत।

बनारस में हुए पुल हादसे को असावधान और खोखले विकास कार्यों का परिणाम बताया जा रहा है। इस हादसे पर आपकी क्या राय है?

देखिए, बनारस का चरित्र बदल रहा है। अब बनारस वैसा नहीं रहा, जैसा कभी था। या कहिए कि बनारस को वैसा नहीं रहने दिया जा रहा है जैसा वह रहना चाहता है या रहता आया है।

बनारस को गंगा, गाय और गप्प का शहर कहा जाता है, लेकिन अब इसकी ये पहचान छीनी जा रही है। ये नगर है, लेकिन इसे महानगर बनाने की तैयारी चल रही है। महानगर बनने की कोई इच्छा नहीं है बनारस की। ये कोशिश इसके स्वभाव से मेल नहीं खाती। ये धीरे-धीरे चलने वाला शहर है। यहां के लोग इत्मिनान से चाय की दुकानों पर चाय पीते हुए, दही-जलेबी खाते हुए और पान की गुमटियों पर गप्प करते हैं। इसमें दुनिया भर की बातें शामिल होती हैं। राजनीति से लेकर अध्यात्म तक और साहित्य से लेकर पुराण तक। हर मुद्दे पर, हर दृष्टिकोण से यहां पर बतियाया जाता है। किसी तरह की कोई हड़बड़ी नहीं थी वाराणसी के स्वभाव में, लेकिन अब यहां एक हड़बड़ी थोपी जा रही है। मैं समझता हूं कि इस तरह की दुर्घटनाएं उसी का नतीजा है। आपको याद होगा कि प्रधानमंत्री मोदी ने दावा किया था कि वो काशी को क्योटो बना देंगे।

ये भला कैसे हो सकता है? साबरमती की निगाह से गंगा को देखना क्या उचित है? नहीं। क्या आप काशी की निगाह से क्योटो को देख सकते हैं? नहीं। तो फिर क्योटो की निगाह से काशी को कैसे देख सकते हैं? क्योटो, क्योटो है और काशी, काशी है। छोटे-छोटे मंदिर, संकरी गलियां, गंगा – ये सब काशी की पहचान थे। दुनिया भर से पर्यटक काशी का यही रूप देखने आते थे। प्राचीनता के साथ-साथ सह-अस्तित्व इस शहर की खासियत थी, लेकिन अब विकास के नाम पर इन मंदिरों को गिरा दिया गया है। सुना है कि साधु-संन्यासियों और महंतों ने इसके जवाब में “मंदिर बचाओ अभियान” भी शुरू किया है। उनके निजी स्वार्थ हो सकते हैं इस तरह के आंदोलन के पीछे, लेकिन इन मंदिरों को गिराने से शहर की पुरानी पहचान तो खत्म हो ही रही है। आखिर बनारस को फ्लाईओवर, शॉपिंग मॉल के लिए जानना चाहिए या फिर इसकी पुरातनता के लिए।

और क्या बदलाव महसूस किया आपने बनारस में?

पहले लोग घाटों पर जाते थे शांति के लिए, लेकिन अब घाटों पर भी शांति नहीं मिलती। दिन भर वहां लाउड स्पीकर पर भजन चलते रहते हैं। शाम को आरती के नाम पर भयानक शोर-शराबा होता है। पहले तो मैं भी घाटों पर नियमित रूप से जाता था, लेकिन अब नहीं जा पाता। स्वास्थ्य भी एक बड़ी वजह है, लेकिन दिखावा भी अब पहले ज्यादा हो गया है। धर्म, अध्यात्म का कारोबार कई गुना बढ़ गया है। असल में जब राजनीति के लिए धर्म का इस्तेमाल होता है तब यही होता है। भूमंडलीकरण के बाद तो ये बदलाव और भी तेज़ हो गए हैं।

क्या आप मानते हैं कि आज के दौर की राजनीति ने बनारस की सह-अस्तित्व वाली संस्कृति को प्रभावित किया है?

निश्चित रूप से ऐसा हुआ है। एक तरह की बेचैनी ने बनारस को घेर रखा है। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से इस शहर का मिजाज तेजी से बदला है। अगर आप कभी बनारस आए होंगे तो आपको पता होगा कि यहां चाय की दुकानों पर जबरदस्त वाद-विवाद होता था। कई बार तो गाली-गलौच की नौबत आ जाती थी, लेकिन इसके पीछे कोई असहिष्णुता नहीं थी। बनारस में कोई गालियों का बुरा मानता भी नहीं। अगली सुबह फिर सब उसी तरह से बहस करते थे। बनारस बहुत लोकतांत्रिक शहर रहा है, लेकिन अब ये सब बदल रहा है। वाद-विवाद में यहां असहमत आवाज़ों को कभी दबाया नहीं जाता था, बल्कि उन्हें सुना जाता था।। अगर दो लोगों को बीच बहस हो रही हो तो दोनों पक्ष से दो-दो, तीन-तीन लोग आ जाते थे बहस करने के लिए। ये अभी भी होता है लेकिन इसका क्षरण हो रहा है।

आज के राजनीतिक विमर्श में अक्सर विरोधी आवाज़ को दबाने के लिए देशद्रोह शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। आप क्या सोचते हैं इस मुद्दे पर?

देशद्रोह तो एक आवरण है असली चेहरा छिपाने के लिए। आज बहुत आसानी से लोग किसी को देशद्रोही कह देते हैं। अगर कोई आपके मत से सहमत नहीं है तो उसे देशद्रोही कह दीजिए, फिर उस पर टूट पड़िए चारों ओर से। देशद्रोह या देशभक्ति साबित करना इतना आसान कभी नहीं रहा जितना आज हो गया है। पहले अगर कोई खुद को देशभक्त कहता था तो उसे ये साबित करना होता था कि उसने देश के लिए किया क्या है। दुर्भाग्य से अब ऐसा नहीं रहा। सब कुछ सस्ता हो गया है। हर तरफ प्रोपगेंडा और प्रचार का ही बोलवाला है।

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