असुरक्षा और चौकन्नेपन के माहौल में आई वसंत पंचमी पर आजादी और प्रेम से ज्यादा महसूस होती है घुटन!

बात वसंत पंचमी की है, जो हमारे सामूहिक मानस में आजादी और प्रेम के प्रतीक के तौर पर अंकित है।आज दोनों ही संकट में हैं। ना प्रेम आज़ाद है और ना ही आज़ादी के ख्याल से हुक्मरानों को कोई ख़ास लगाव है। आखिर ऐसा देशप्रेम भी क्या जिसे घड़ी- घड़ी साबित करने की ज़रुरत हो।

फोटो: सोशल मीडिया
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प्रगति सक्सेना

सुबह की चमकीली धूप देख कर अंदेशा तो हुआ था कि हो ना हो वसंत का आगमन हो चुका है। पर्यावरण के साथ हमारे तमाम भयावह खिलवाड़ के बावजूद, लेकिन जब आसपास के लोगों ने बताया कि आज ही वसंत पंचमी है तो एक खास किस्म की खुशी हुयी ये जान कर कि आज भी मैं प्रकृति के करीब हूं।

बहुत सारे इंसानी तामझामों में फंस कर रह गया है दिमाग। कुछ बरस पहले तक उत्सव मनाने की एक सहज प्रवृत्ति आसपास महसूस होती थी। मगर अब हर चीज का एक अलग राजनीतिक सामाजिक मायने निकल जाता है तो मन भी चौकन्ना रहता है कहीं त्योहार के उल्लास में मुंह से ऐसी कोई बात ना निकल जाए जिसका चार लोगों में बतंगड़ बन जाए। वसंत पंचमी बहुत प्रिय रही हमेशा से। बचपन में सरस्वती पूजन, पीले वस्त्र, पीले चावल का उत्साह रहता था। होश संभाला तो कव्वाली, संगीत नृत्य और साहित्य में वसंत पंचमी के गहरे मायने समझ आने लगे। और सबसे ज्यादा तो समझ आया ये कि वसंत पंचमी एक सामूहिक उत्सव है जब सभी समुदाय, वर्ग धर्म के लोग पीला कपड़ा पहनते हैं, और कंपकपी वाली सर्दी के खत्म होने और मौसम के बदलने का स्वागत करते हैं।


प्रेम का महोत्सव है ये कि सूफी कव्वाली के रंग में डूब कर मनाया जाए या राधा-कृष्ण के रास में पगे नृत्य के माध्यम से। पतंगें भी उड़ाई जाती थीं जिन पर किसी एक का नाम नहीं होता था। हां ये ज़रूर होता था कि कौन किसकी पतंग लूट ले जाता, पता ही नहीं चलता। कुछेक साल हुए, रंग तो बंट ही गये, अब रंग ‘देश-द्रोही’ और देश-प्रेमी भी हो सकते हैं या फिर भोजन से लोगों की शिनाख्त भी की जा सकती है कि रिफ्यूजी हैं या नागरिक। मुझे याद है, वसंत पंचमी के दिन अगर किसी को मीठा नहीं खाना होता था तो पीले चावल की जगह पोहे ले लिया करते थे। हमारे घर पोहे (जिसे उत्तर प्रदेश में चिवड़ा और बिहार में चूड़ा कहा जाता है) और मीठे चावल दोनों बना करते थे।

अब चूंकि पोहे से राष्ट्रीयता की पहचान निकाली जा सकती है तो इसे बनाते और खाते वक्त भी चौकन्ना रहना पड़ेगा। अमीर खुसरो साहेब कि कव्वाली ‘आज रंग है री मां रंग है...’ या फिर ‘सकल बन फूल रही सरसों...’ पर झूम-झूम कर वसंत और होली मनाई लेकिन आज घर पर कव्वाली बजाते हुए लगता है कहीं कोई आकर कह ना दे कि ‘ये नहीं चलेगी यहां...!’

देश में इस समय अजीब माहौल है। कोई शरजील ‘देशद्रोह’ पर गिरफ्तार हो जाता है तो कुछ स्कूली बच्चों पर देशद्रोह का आरोप लगाया जाता है। आज हालात यह है कि लोगों से बात नहीं की जा सकती। सब अपने-अपने कोनों में अपने-अपने स्वार्थों के साथ महफूज महसूस करने की कोशिश में जुटे हैं। और देशद्रोह ना हो गया मूंगफली हो गयी। जो चाहे चबा ले। शाहीन बाग़ ने तो अपनी मौजूदगी दर्ज करा ही ली है। शाहीन बाग की महिलाएं वो चबेना हैं जो सरकार से ना निगलते बन रहा है ना उगलते। खैर, बात वसंत पंचमी की है, जो हमारे सामूहिक मानस में आजादी और प्रेम के प्रतीक के तौर पर अंकित है।

आज दोनों ही संकट में हैं। ना प्रेम आज़ाद है और ना ही आज़ादी के ख्याल से हुक्मरानों को कोई ख़ास लगाव है। आखिर ऐसा देशप्रेम भी क्या जिसे घड़ी- घड़ी साबित करने की ज़रुरत हो।


हर बात देशद्रोह हो जाती है। देशद्रोह सरकारी हलकों में काफी फैशनबल शब्द हो गया है। ऐसे घुटन भरे माहौल में वसंत पंचमी और प्रेम का उत्सव कोई कैसे मना सकता है? जब शब्दों और त्यौहारों के मायने खांचों में बांटने शुरू कर दिए जाएं तो काहे का वसंत? ये वसंत ही तो था जिसने सभी धर्म और सम्प्रदायों को खुद से परे जाना सिखाया था। दूसरे तक प्रेम से पहुंचना सिखाया था, खुद के भीतर छिपे अगाध प्रेम को महसूस करने की प्रेरणा दी थी।

सजन मिलावरा इस आंगन मा।
सजन, सजन तन सजन मिलावरा।
इस आंगन में उस आंगन में।
अरे इस आंगन में वो तो, उस आंगन में।
अरे वो तो जहां देखो मोरे संग है री।
आज रंग है ए मां रंग है री।

आज कैसा वसंत? आज सिर्फ घुटन है, चौकन्नापन है और असुरक्षा। मिलन का उत्सव विरह की सी टीस लिए हुए है। ऐसे में कोई कैसे वसंत पंचमी मनाये?

सब चुनरिन में चुनर मोरी मैली,
क्यों चुनरी नहीं रंगते?
बहुत दिन बीते।
खुसरो निजाम के बलि-बलि जइए,
क्यों दरस नहीं देते?
बहुत दिन बीते।

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