विश्व रेडियो दिवसः झारखंड के आदिवासियों की अनोखी मुहिम, भाषा-संस्कृति को बचाने के लिए शुरू किया अपना रेडियो

झारखंड में आदिवासियों ने अपनी भाषा-संस्कृति को बचाने की मुहिम की शुरुआत असुर रेडियो से की है। इसका पहला प्रसारण नेतरहाट के साप्ताहिक बाजार में हुआ। भारत में यह पहला मौका है जब किसी विलुप्त प्राय आदिवासी समुदाय ने अपनी भाषा में अपने रेडियो की शुरुआत की है।

फोटोः सोशल मीडिया
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रवि प्रकाश

नेतरहाट के पास की एक साप्ताहिक हटिया में कुछ लोगों की भीड़ जमा होने लगी है। वहां मुर्गा, बकरा-सूअर, साग-सब्जियां, दाल-चावल, बीड़ी-सिगरेट, हड़िया (देसी शराब), टोकड़ियां, फल, बिंदी-चूड़ी, सिंदूर, लूंगी-साड़ी, खुरपी-कुल्हाड़ी, मूढ़ी-घुघनी, पाउडर-क्रीम, माश्चाराइजर-शैंपू- साबुन, चप्पलें, आयुर्वेदिक दवाएं और फलों की कई दुकानें सज गई हैं। तभी कुछ लोग एक टेम्पो (ऑटो रिक्शा) से पहुंचते हैं। उनसे साउंड सिस्टम उतारा जाता है। थोड़ी भीड़ जमा होती है। फिर पेन ड्राइव में सहेज कर लाई गई एक साउंड क्लिप से आदिवासी संगीत बजना शुरू होता है।

ढोल-मांदर और दूसरे वाद्य यंत्रों से निकली आवाज शानदार संगीत का अहसास कराती है। इस संगीत के बीच कुछ महिलाओं की सामूहिक आवाज आने लगती है। वे कह रही हैंः दाहां-दाहां तुर्ररर..दांग तिनातंग तुर्ररर...नोआ हाके असुर अखड़ा रेडियो एनेगाबु डेगेआबु सिरिंगाबु उर्ररर...। मतलब, आओ..गाओ.. नाचो..बोलो.. ये है असुर अखड़ा रेडियो। इसके बाद मोबाइल रेडियो का प्रसारण शुरू हो जाता है।

विश्व रेडियो दिवसः झारखंड के आदिवासियों की अनोखी मुहिम, भाषा-संस्कृति को बचाने के लिए शुरू किया अपना रेडियो

करीब आधे घंटे के प्रसारण के दौरान कुछ गीत बजाए जाते हैं। कुछ संदेश हैं और समाचार भी। इसके उद्घोषक अपनी भाषा और संस्कृति को बचाने की बातें करते हैं, तो लोग तालियां बजाने और नाचने लगते हैं। यह दृश्य दरअसल उस क्रांति का सर्टिफिकेट है, जिसकी शुरुआत झारखंड के आदिवासियों ने असुर रेडियो से की है। भारत में यह पहला मौका है जब किसी विलुप्त प्राय आदिवासी समुदाय ने अपनी भाषा में अपने रेडियो की शुरुआत की है।

पिछले 19 जनवरी को इसका पहला प्रसारण नेतरहाट के पास कोटेया साप्ताहिक बाजार में किया गया। यह लातेहार जिले के चैनपुर प्रखंड का एक गांव है। तब वहां इतवारी हटिया लगी थी। उसके बाद से अलग-अलग बाजारों में इसके कई प्रसारण हो चुके हैं। चर्चित कवयित्री सुषमा असुर के साथ मनिता असुर, अजय असुर, रोशनी और विवेकानंद जैसे लोगों ने इसके शुरुआती कार्यक्रम बनाए हैं।

विश्व रेडियो दिवसः झारखंड के आदिवासियों की अनोखी मुहिम, भाषा-संस्कृति को बचाने के लिए शुरू किया अपना रेडियो

झारखंड भाषा, साहित्य, संस्कृति अखड़ा की महासचिव और जानी-मानी कवयित्री और लेखिका वंदना टेटे ने बताया कि अपनी भाषा के विलुप्त होने के खतरे के बीच हम लोगों ने रेडियो शुरू करने का निर्णय लिया। प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन ने इसमें भूमिका निभाई और जोभीपाट के सेवानिवृत प्राचार्य चैत टोप्पो, घाघरा के प्रोफेसर महेश अगुस्टीन कुजूर जैसे लोगों ने इसकी रूपरेखा तैयार करने में मदद की। उन्होंने कहा कि यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यूनेस्को द्वारा पिछले सालों में जारी वर्ल्ड स्पेसिफिक डेंजर लैंग्वेजेज की सूची में हमारी असुर भाषा भी है। बकौल वंदना टेटे, हम इसे किसी कीमत पर मरते नहीं देख सकते।

इस रेडियो की उद्घोषक सुषमा असुर ने बताया कि भारतीय फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान, पुणे के रंजीत उरांव ने इसके तकनीकी पक्ष को संभाला और कृष्ण मोहन सिंह मुंडा और अश्विनी कुमार पंकज ने कार्यक्रम बनाने और उसके लिए जरूरी सामान की व्यवस्था कराई। प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन इसमें सपोर्ट कर रहा है। हम अपने कार्यक्रम सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर भी डाल रहे हैं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग हमारे बारे में जान सकें।

उन्होंने बताया कि जंगलों में हमने अपनी रिकाॅर्डिंग की है। इसलिए कार्यक्रम के दौरान मुर्गे की बांग और बकरियों-चिड़ियों आदि की आवाज भी सुनाई देती है। इस रेडियो की शुरुआत के पीछे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जाने-माने लेखक अश्विनी कुमार पंकज ने बताया कि न केवल असुरों, बल्कि समूचे आदिवासी समाज के बारे में लोगों को बहुत कम बताया गया है। जरुरत है कि समाज को सही जानकारी दी जाए। इतिहास और समाजशास्त्र के लेखक आदिवासियों के साथ न्याय करें।

अश्विनी कुमार ये भी कहते हैं कि कम से कम वे बातें तो नहीं लिखें, जो गलत हैं या हिंदू धर्मग्रंथों में किदवंतियों के बतौर शामिल हैं। लोग यह भी तो जानें कि महिषासुर दरअसल असुरों के नायक हैं। असुर उनकी पूजा करते हैं। इन्हीं सब वजहों और अपनी संस्कृति, भाषा, परंपरा, साहित्य, गीत-संगीत, पर्व-त्योहार की रक्षा और उससे दुनिया को परिचित कराने के लिए असुरों ने इस रेडियो की शुरुआत की है। हम लोग उसे वैचारिक स्तर पर सपोर्ट कर रहे हैं।


कौन हैं ये

असुर आदिवासी झारखंड के लातेहार, गुमला और कुछ दूसरी जगहों पर निवास करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक, अब इनकी संख्या दस हजार से भी कम हो चुकी है। कहा जाता है कि असुरों ने ही दुनिया को लोहा गलाने की तकनीक सिखाई। इनके द्वारा गलाए और पाॅलिश किए गए लोहे पर कभी जंग नहीं लगती है। मान्यता है कि कुतुबमीनार के पास स्थित लौह स्तंभ का लोहा भी इन्हीं असुरों ने बनाया था।

झारखंड के एक शिव मंदिर में सैकड़ों साल से रखे त्रिशूल पर आज तक जंग नहीं लगी। गुमला जिले में स्थित इस शिवलिंग का लोहा भी असुरों ने तैयार किया था। आज भी यह समुदाय लोहा गलाने का काम करता है। लातेहार जिले के नेतरहाट की पहाड़ियों पर इनकी बहुतायत आबादी है। इस इलाके में स्थित बाॅक्साइट खदानों से खनन के कारण इस समुदाय ने विस्थापन की मार झेली है। इस कारण ये बाॅक्साइट खनन का विरोध करते हैं।

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Published: 13 Feb 2020, 4:04 PM