एक तिहाई सीटों पर पहले दो दौर में कम  मतदान और विपक्ष की मजबूती ने तय कर दी है मोदी की विदाई

लोकसभा चुनाव के दो चरणों में वोटिंग प्रतिशत कम रहना बताता है कि बीजेपी के लिए इस बार सरकार बनाने लायक बहुमत का आंकड़ा जुटा पाना लगभग असंभव है। इसके अलावा अलगद-अलग राज्यों में बने विपक्षी गठबंधनों से एनडीए के लिए एक-एक सीट निकालना मुश्किल दिख रहा है।

फोटोः सोशल मीडिया
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सुधांशु गुप्त

प्रमुख समाजशास्त्रियों और चुनाव विश्लेषकों की राय है कि इस बार बीजेपी के लिए सरकार बनाने लायक बहुमत की संख्या जुटाना लगभग असंभव है। इसकी दो खास वजहें हैं। पहली- पहले फेज में वोटिंग का कम रहना और यही ट्रेंड जारी रहा, तो बीजेपी और उसके सहयोगी दलों की सीट कम होनी तय है। दूसरा, अलग-अलग राज्यों में बने विपक्षी गठबंधनों ने रास्ता इतना कठिन कर दिया है कि एनडीए के लिए एक-एक सीट निकालना भी इस बार मुश्किल हो रहा है।

सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटीज (सीएसडीएस) के प्रो अभय कुमार दुबे 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में तीन बुनियादी फर्क बताते हैं- पहला, जनता में उस समय कांग्रेस विरोधी नाराजगी थी। कांग्रेस दस साल शासन में रह चुकी थी। इसलिए एंटी इनकम्बेंसी बड़ा फैक्टर था। दूसरा, नरेंद्र मोदी नया चहरा थे। वह हर बात को अलग अंदाज में पश करते थे। नवीनता का पहलू उनके साथ जुड़ा था जो लोगों को आकर्षक लगा। तीसरा, बीजेपी विरोधी मतों की एकता का इंडेक्स शून्य था यानी वह बुरी तरह बंटे हुए थे।

लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में ये तीनों ही बातें नहीं हैं। अभय दुबे कहते हैं कि इस बार बीजेपी विरोधी दलों की एकता का इंडेक्स पहले के मुकाबले काफी मजबूत है। हर राज्य में इसे अलग-अलग स्तरों पर देखा जा सकता है। यह बीजेपी के लिए सबसे बड़ी रुकावट बन गई है। दुबे का कहना है कि बीजेपी को 2014 में लगभग 31 फीसदी मिले थे। इस दफा उतने ही मत मिले, तब भी वर्तमान राजनीतिक समीकरण बताते हैं कि उन्हें 282 सीट नहीं मिल रही है, क्योंकि विपक्ष में राज्यों के स्तर पर लगभग एकता है।

इसी वजह से पिछले पांच-छह महीने से बीजेपी अपने पिछले वोटों को बचाने की कोशिश कर रही है- चाहे ऊंची जातियों को दस फीसदी आरक्षण हो, किसानों को हर साल 2000 रुपए दे ने का वादा हो या 5 लाख से ऊपर वालों की आमदनी पर टैक्स माफी हो। बीजेपी लगातार इस सोच में रही है कि अतिरिक्त वोट कहां से आएगा और यही उम्मीद उसे पुलवामा मामले और नरेंद्र मोदी की शख्सियत से है।

लेकिन अभय दुबे कहते हैं कि यह देखना बहुत अहम होगा कि जनता सरकार के पांच साल के कामकाज पर वोट देती है या पुलवामा और बालाकोट पर। वह कहते हैं, “कश्मीर में सरकार, राज्यपाल और सैन्य बल सब कुछ केंद्र सरकार के पास था। केंद्र सरकार अपनी ही कश्मीर नीति पर काम कर रही थी। तो पुलवामा की जिम्मेवार तो सरकार ही है। लेकिन विडंबना देखिए कि जो इसके लिए जिम्मेदार है, वही राष्ट्रीय मंच पर खड़े होकर कहता है, मैं देश नहीं झुकने दूंगा, मैं देश नहीं मिटन दूंगा। भारत का मतदाता मंडल इस विडंबना का सामना कैसे करता है, यह आने वाले कुछ दिन बताएंगे।”

सीएसडीएस के निदशक प्रो संजय कुमार का स्पष्ट मानना है कि कम वोटिंग बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी कर रही है। उनका कहना है कि हमारा अध्ययन बताता है कि कम वोटिंग से बीजेपी को हमेशा घाटा होता है क्योंकि बीजेपी का वोटर आमतौर पर वोकल और आक्रामक होता है। लेकिन इस बार के चुनावों में वह आक्रामकता दिखाई नहीं पड़ रही है- कम से कम पहले चरण में तो बिल्कुल नहीं दिखी। वह कहते हैं कि पश्चिमी यूपी के साथ अन्य कई राज्यों में भी यही ट्रेंड दिखाई पड़ा। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में तो पहले फेज में 8 फीसदी कम वोटिंग हुई। साफ संकेत है कि बीजेपी फिलहाल बैकफुट पर है। अगर अगले चरणों में भी यही ट्रेंड रहता है तो बीजेपी को इससे नुकसान होगा।

प्रो संजय कुमार और अभय दुबे दोनों ही दो और बात कहते हैं। पहली, बीजेपी इस बार अपनी परफॉर्मेंस पर चुनाव नहीं लड़ रही। इस बार बीजेपी पुलवामा, बालाकोट एयर स्ट्राइक को आधार बनाकर राष्ट्रवाद और मजबूत लीडरशिप जैस मुद्दे चुनाव में ला रही है। दूसरा, 2014 में जिस तरह मोदी जी के प्रति पूरे देश में लहर दिखाई पड़ रही थी, वह लहर अब अंतर्ध्यान हो चुकी है।

दुबे कहते हैं कि मोदी की शख्सियत से नवीनता का पहलू गायब हो चुका है। बीजेपी की कोशिश है कि मोदी की शख्सियत के ईर्द-गिर्द ही इस चुनाव को एक जनमत संग्रह में बदल दिया जाए। उनका पर्सनैलिटी कल्ट है जिसे पिछले पांच सालों में प्रौद्योगिकी की मदद से बढ़ाया गया है, जिसके पीछे मकसद है कि चुनाव उसी के ईर्द गिर्द हों। उनकी कोशिश है कि पुलवामा की घटना और उसके बाद वायुसेना द्वारा बालाकोट हमले का लाभ उठाकर देशभक्ति और राष्ट्रवाद का जज्बा पैदा किया जाए और वोटरों को अपनी ओर खींचा जाए।

अभय दुबे कहते हैं कि अभी की परिस्थितियां बताती हैं कि इस वक्त न तो सरकार विरोधी कोई लहर है, न ही सरकार समर्थक। न तो यह कह सकते हैं कि मोदी विरोधी लहर चल रही है और न ही मोदी के समर्थन में कोई लहर है। दुबे कहते हैं कि इसीलिए बीजेपी पिछले छह महीने से मुद्दों की तलाश कर रही है जिन पर चुनाव लड़ा जा सके। इसलिए जो भी मुद्दा मिलता है वे उठा लेते हैं। राम मंदिर के मुद्दे पर चुनाव लड़ने पर मोदी तैयार नहीं हुए। एक जनवरी को उन्होंने साफ कह दिया कि हम राम मंदिर पर कोई कानून नहीं लाएंगे। अचानक बीजेपी को पुलवामा और बालाकोट एयर स्ट्राइक का मुद्दा मिल गया। अब वह इसी मुद्दे पर सवार होकर वैसी लहर पैदा करना चाहते हैं जो 2014 में थी। लेकिन यह मुद्दा भी सिर्फ शहरों में ही कहीं-कहीं सुनाई-दिखाई पड़ रहा है। जो लोग ग्रामीण इलाकों में घूम रह हैं, उन्हें इस तरह की कोई लहर दिखाई नहीं पड़ रही।

(नवजीवन के लिए सुधांशु गुप्त)

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