मुजफ्फरनगर: कवाल के माथे पर अब भी लगा है 5 साल पहले हुए उस दंगे का कलंक, जो वहां हुआ ही नहीं

मुजफ्फरनगर में हुए 2013 के दंगे को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के माथे पर बदनुमा दाग माना जाता है। 5 साल पहले इलाके के कवाल गांव में हुई तीन हत्याओं ने अगले दिन यानी 28 अगस्त को भीषण दंगे का रूप ले लिया था। 5 साल बाद हमने पड़ताल की कि आखिर मुजफ्फरनगर दंगे का कितना गुनाहगार है कवाल गांव।

फोटो : आस मोहम्मद कैफ
फोटो : आस मोहम्मद कैफ
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आस मोहम्मद कैफ

दंगे की आग ने किसी के राजनीतिक जीवन में भविष्य की लौ जलाई तो किसी की जिंदगी खाक हो गई। यह सार है मुजफ्फरनगर दंगे के 5 साल, जिसने 2013 में करीब 100 लोगों की जान ले ली, दर्जनों घर राख कर दिए, अनगिनत महिलाओं की अस्मत लूटी गई और हजारों लोग बेघर हो गए। इस दंगे का कलंक अगर किसी के माथे पर लगा तो वह है कवाल गांव, जहां दंगा हुआ ही नहीं था। हां, दंगे की बुनियाद समझी जाने वाली हत्याओं का गवाह जरूर रहा यह गांव।

27 अगस्त 2013, यह वह तारीख है जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर के माथे पर एक दाग की तरह दर्ज है। मुजफ्फरनगर के ही एक गांव कवाल में इस दिन तीन कत्ल हुए थे। मारे गए लोगों में एक मुसलमान था और दो हिंदू जाट। मुज़फ्फरनगर और इस इलाके के लिए यह कोई ऐसी घटना नहीं थीं, जिसके बाद दंगे भड़क जाते। इस इलाके में इस किस्म की आपराधिक घटनाएं पहले से ही आम थीं। हुआ यह था कि कवाल गांव में दो युवकों की साइकिल टकरा गई थी। बहसा-बहसी हुई और एक युवक ने दूसरे को चुनौती दी थी, कि मां का दूध पिया है तो यहीं रहना, अभी सबक सिखाऊंगा। युवक वहीं जमा रहा। दूसरा युवक चला गया और अपने एक साथी के साथ वापस आकर उसने चाकू से इस पहले युवक की हत्या कर दी। हत्या के बाद फैली अफरा-तफरी में जब ये दोनों भाग रहे थे, तो भीड़ ने उनका पीछा किया और पीट-पीट कर उनकी जान ले ली।

मुजफ्फरनगर: कवाल के माथे पर अब भी लगा है 5 साल पहले हुए उस दंगे का कलंक, जो वहां हुआ ही नहीं

यह एक आपराधिक घटना थी। लेकिन देखते-देखते इसे सांप्रदायिक रंग दे दिया गया और कवाल गांव से इतर दंगा भड़क उठा। करीब दो सप्ताह तक हिंसा का तांडव पूरे इलाके में हुआ। 100 से ज्यादा लोग मारे गए (सरकार के हिसाब से 68, लेकिन बाद में लापता लोगों को भी मृतक मान लिया गया)। दर्जनों महिलाओं से बलात्कार हुआ, कई धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुंचाया गया और हजारों लोग बेघर हो गए।

कवाल गांव के माथे पर इस दंगे का कलंक लगा। यह कलंक का बोझ आज भी लोग सीने में महसूस करते हैं।

मुज़फ्फरनगर शहर से जानसठ कस्बे की तरफ जाने वाले रास्ते पर करीब 8 हजार की आबादी वाला गांव है कवाल। मुस्लिम बहुल इस गांव में कुरैशी बिरादरी के लोग ज्यादा है, जिनकी तादाद करीब 3 हजार होगी। कुरैशी आम तौर पर मांस का कारोबार करते हैं। इस वजह से कई बार उन पर गौकशी का भी आरोप लगता रहता है। इलाके के दूसरे समुदाय के लोग इन्हें क्रूर समझते हैं और हिकारत की नजर से भी देखते हैं।

मुजफ्फरनगर: कवाल के माथे पर अब भी लगा है 5 साल पहले हुए उस दंगे का कलंक, जो वहां हुआ ही नहीं

27 अगस्त, 2013 को जिस शहनवाज़ का क़त्ल करके गौरव और सचिन भाग रहे थे, वो शहनवाज़ भी कुरैशी बिरादरी से ही था। लेकिन जिस भीड़ ने गौरव और सचिन को पीट-पीट कर मारा, उसमें सभी कुरैशी नही थे। गौरव और सचिन की हत्या शहनवाज़ के घर से करीब 100 मीटर दूर एक चौराहे पर हुई थी। इस चौराहे की रौनक अब फिर से लौटने लगी है। यहीं मिठाई की दुकान चलाने वाले आफताब कवाल के माथे पर लगे इस कलंक का दुखड़ा सुनाते हैं। वे कहते हैं, ‘कवाल में लोगो ने बेटी देना कम कर दिया है अब रिश्तों में परेशानी होती है। जबकि कवाल में दंगा ही नहीं हुआ। झगड़े में तीन लोगों की जान गई, जिसका आज भी दुःख है। लेकिन इस घटना का राजनीतिकरण हुआ और अमन में आग लग गयी।‘

आफताब बताते हैं कि, “दंगों की आग में हवन कर कई नेता बन गए। रासुका में जेल में बंद रहे विक्रम सैनी विधायक बन गए। मगर गाँव में मुस्लिमो के साथ भी उनका अच्छा बर्ताव है।बाहर वो कैसे भी हो !”

जिन विक्रम सैनी की बात आफ़ताब कर रहे हैं, वो और मुफ़्ती मुकर्रम दोनों को दंगे का दोषी मानते हुए रासुका में निरुद्ध किया गया था। गांव में हमने कई लोगो से यह जानने की कोशिश की कि विक्रम सैनी की गलती क्या थी, उन पर रासुका क्यों लगी? लेकिन सैनी अब विधायक बन चुके हैं, इसलिए उनके कोई खुलकर नहीं बोलता।

इसी गांव के मोहम्मद आजम जरूर कहते हैं कि, “इस झगड़े में तो विक्रम सैनी और मुफ़्ती मुकर्रम की कोई गलती नहीं थी, लेकिन पुलिस ने इन दोनों को ही जिम्मेदार माना था। मुफ़्ती मुकर्रम जेल में रहकर बर्बाद हो गए और दंगे ने विक्रम सैनी को आबाद कर दिया। पहले वो जिला पंचायत सदस्य बने और अब विधायक हैं। पिछले चुनाव में बीजेपी ने उन्हें खतौली विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाया था।

वैसे विक्रम सैनी अक्सर अपने बयानों को लेकर विवादों में रहते है। दंगे के समय वो गांव के प्रधान थे। बताया जाता है कि इस घटना को पहला साम्प्रदायिक रंग उन्होंने ही दिया था। इसके बाद में वो जिला पंचायत सदस्य बने, और फिर बीजेपी के विधायक बन गए।

शुरु के दो-एक साल कवाल गांव के पास मलिकपुरा में गौरव और सचिन की बरसी पर भीड़ जुटती रही है। मलिकपुरा में इन दोनों की प्रतिमा भी लगी है और इन्हें शहीद माना जाता है। लेकिन 5 साल में पहली बार ऐसा हुआ कि इस बार गौरव और सचिन की बरसी पर यहां कोई भीड़ नहीं जुटी। मलिकपुरा गांव कवाल से ही सटा हुआ एक छोटा सा गांव है, जिसका रास्ता कवाल के बीच से गुजरता था, लेकिन दंगे के बाद इसका रास्ता अलग कर दिया गया है।

2013 में जब दंगा भड़का था तो मीडिया में प्रमुखता से यह बात बताई गई थी कि हत्याएं छेड़छाड़ को लेकर हुईं थीं। लेकिन गौरव के पिता और इस मामले के पक्षकार रवींद्र ही इसे गलत बताते हैं। गौरव के पिता ने जानसठ कोतवाली में जो तहरीर दी थी, उसमें लिखा था कि उनके पुत्र गौरव और शाहनवाज़ की साइकिल टकराने से विवाद हुआ था और उसके बाद हत्या कर दी गई। इस मामले में एफआईआर संख्या 403/13 दर्ज की गई थी।

यहां के लोगों का मानना है कि जिन लोगों ने इस झगड़े को हिंदू लड़की से छेड़छाड़ का मामला बताया, दरअसल उन्होंने ही दंगे की इबारत लिखी थी। यहां तक कि पाकिस्तान के एक वीडियो को कवाल का बताकर सोशल मीडिया पर शेयर किया गया। इसका आरोप बीजेपी विधायक संगीत सोम पर भी लगा था, और उन पर रासुका भी लगी थी। लोकल पुलिस ने फेसबुक से इस वीडियो का सोर्स मांगा था, जो पुलिस को आजतक नहीं मिला है।

मुजफ्फरनगर: कवाल के माथे पर अब भी लगा है 5 साल पहले हुए उस दंगे का कलंक, जो वहां हुआ ही नहीं

इस घटना में मारे गए शाहनवाज़ के पिता मीडिया से बात नहीं करते हैं। लेकिन शाहनवाज के ताया नसीम अहमद भी झगड़े का कारण साइकिल की टक्कर ही बताते हैं। नसीम अहमद बताते है कि पांच साल से उनके बेटे जेल में है, जमानत पर सुनवाई तक नहीं हुई है। इनमें से मुजम्मिल विकलांग है। शाहनवाज़ की हत्या के आरोप में शामिल बाकी लोगों को पुलिस ने जांच के बाद निर्दोष मानते हुए उन्हें छोड़ दिया था। लेकिन गौरव और सचिन की हत्या के आरोप में उनके बच्चों को जेल में डाल दिया गया।

27 अगस्त 2013 की कहानी में कई और कहानियां भी हैं। मसलन पहले शहनवाज़ का कत्ल हुआ, और उसके 10 मिनट बाद गौरव और सचिन को भीड़ ने पीट-पीट कर मार दिया। ऐसे में शहनवाज़ की हत्या की एफआईआर पहले लिखी जानी चाहिए थी। लेकिन,गौरव और सचिन की हत्या की एफआईआर पहले लिखी गयी और फिर करीब आधे दिन के बाद शहनवाज़ की हत्या की एफआईआर दर्ज हुई।

कवाल के सुब्हानी कुरैशी हमें बताते हैं, “जिस सरकार पर मुसलमानों की हिमायती होने की बात कही जा रही थी, उसने तो मक़तूल के पिता की तहरीर तक नहीं ली थी। कवाल के ही चाँद मोहम्मद कहते हैं कि इस घटना के बाद डीएम और एसएसपी ने गांव में आकर जिस तरह एक समुदाय के लोगों को निशाना बनाया और बेगुनाहों को गिरफ्तार कर लिया गया था, तो उसके बाद किसी की भी थाने जाने की हिम्मत नहीं हुई थी।”

दंगे के वक्त जानसठ में पुलिस क्षेत्राधिकारी रहे जगतराम जोशी अब रिटायर हो चुके हैं। उनका कहना है कि, "हम इंतज़ार कर रहे थे, लेकिन शाहनवाज़ पक्ष के लोग थाने ही नहीं आये। पहले जो पक्ष आया, उसकी रिपोर्ट लिख दी गयी।” उनके इस दावे को जानसठ के नौशाद गलत बताते हुए कहते हैं कि घटना के बाद कोतवाली पर भारी भीड़ जमा हो गयी थी। कवाल गांव के पूर्व प्रधान सज्जाद भी कहते हैं कि, “डीएम और एसएसपी जज्बात में बह गए थे। वो शहनवाज़ पक्ष की रिपोर्ट नही लिख रहे थे। जब वो हटे तब शहनवाज़ का मुकदमा दर्ज हुआ। लेकिन यह बात किसी मीडिया और नेता की जानकारी तक नही पहुंची।“

कवाल में लोगों के बीच रिश्तों अब सुधर रहे हैं। आपस में प्रेम और भाईचारा कायम हो रहा है। लेकिन दंगे का कलंक बाहर के लोगों को साफ नजर आता है। गांव के पूर्व प्रधान महेंद्र सैनी कहते हैं कि, “लोगो का बर्ताव अच्छा है। लेकिन जब बाहर जाते हैं तो कवाल के लोग हिकारत से देखे जाते हैं। यह हमारी बदकिस्मती है कि गाँव में 5 साल से पीएसी तैनात है।” वहीं गांव के ही तैयब अली कहते हैं, “उसके बाद ऐसे दर्जनों मौके आए जब हिन्दुओं ने मुसलमानों की मदद की और मुसलमानों ने हिन्दुओ की, लेकिन एक वो बुरा दिन सब अच्छे दिनों पर भारी हो गया।

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