सैलानी: यूरोपीय और एशियाई संस्कृति का संगम है इस्तांबुल का आया सोफिया

हमने आपको कल इस्तांबुल के कुमकापी इलाके की सैर कराई थी। आज हम आपको इस ऐतिहासिक शहर की कुछ ऐतिहासिक इमारतों और वहां की संस्कृति से रू-बरू कराएंगे।

फोटो : सैयद खुर्रम रज़ा
फोटो : सैयद खुर्रम रज़ा

नाश्ते में उबले अंडे, ब्रेड, कई तरह की सलाद, जूस और कॉफी आदि लेने के बाद हमने तय किया के आज टोकापी पैलेस, आया सोफिया, ब्लू मॉस्क (नीली मस्जिद) और सुलेमान स्क्वायर घूमा जाए। जीपीएस पर इन जगहों की दूरी देखी तो पता चला कि हमारे होटल से एक किलोमीटर के दायरे में यह सारी ऐतिहासिक इमारते हैं और एक-दूसरे के नजदीक हैं। इसलिए हमने टैक्सी के बिना पैदल की जाने के फैसला लिया।

सैलानी: यूरोपीय और एशियाई संस्कृति का संगम है इस्तांबुल का आया सोफिया

हमने पैदल ही चलना शुरु किया, लेकिन पहले ही मोड़ पर जो चढ़ाई वाली सड़क मिली, उसने हमारी हालत खराब कर दी। दरअसल इस इलाके की ज्यादातर सड़के चढ़ाई और ढलान वाली हैं। इसी तरह की चढ़ाई वाली सड़कों को नापते आखिर हमें ढलान वाली सड़क दिखाई दी और कुछ राहत मिली। बहरहाल हम करीब 40 मिनट में सुलेमान स्क्वायर पहुंच गए।

करीब दो किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस इलाके में कई ऐतिहासिल क इमारते हैं, लेकिन यहां सैकड़ों साल का इतिहास मौजूद है। हमने सबसे पहले टोकापी पैलेस जाने का तय किया। इस पैलेस में जाने का टिकट लगता है और प्रति व्यक्ति 60 लीरा चुकाने होते हैं। अच्छी बात है कि यहां स्थानीय और विदेशी दोनों पर्यटकों के लिए टिकट की कीमत एक ही है, हमारे यहां जैसा नहीं है।

टिकट लेकर हम पैलेस में दाखिल हुए और सबसे पहले तुर्की बादशाहों के किचन का जायज़ा लिया। यहां तमाम बर्तन, खाना खाने और खाना बनाने के मौजूद थे, जिससे अंदाज़ा होता हैकि तुर्की बादशाह न सिर्फ व्यंजनों के शौकीन थे, बल्कि उन्हें किस तरह पकाया जाना है किन बर्तनों में खाना है इसका भी ध्यान रखते थे।


सैलानी: यूरोपीय और एशियाई संस्कृति का संगम है इस्तांबुल का आया सोफिया

इन बर्तनों की बनावट और उनकी धातु से अंदाज़ा होता है कि बादशाहों के शौक कितने आला रहे होंगे। किचन से होते हुए बाहर आए तो दीवारों पर मौजूद साजो-सामान देखकर अनुमान हुआ कि आखिर क्यों तुर्की के बादशाह सुल्तान क्यों अपने समय में सबसे शक्तिशाली माने जाते थे। यहां उस दौर के हथियारों, अस्त्र-शस्त्र की तस्वीरें थीं। इसके बाद एक ऑडिएंस रूम था जिसे बताया गया कि लोग इस जगह आकर बादशाह को तोहफे पेश करते थे।


इसके आगे एक लाइब्रेरी है, जिसके दरवाजे पर ही लिखा है, ‘मेरे दोस्त, तालीम को बहुत गंभीरता से लें और ऐलान कर दें... मेरे मालिक मेरे इल्म (ज्ञान) में इजाफा कर दे।’ इस पंक्ति से हमें यह अंदाज़ा लगता है कि तुर्की में शिक्षा और ज्ञान को कितना महत्व दिया जाता था।

सैलानी: यूरोपीय और एशियाई संस्कृति का संगम है इस्तांबुल का आया सोफिया

लाइब्रेरी के बाद हम एक ऐसे कमरे की तरफ बढ़ा, जहां अंदर जाने के लिए कतार लगी हुई थी। करीब आधा घंटा इंतज़ार के बाद हमें इस कमरे में जाने का मौका मिला। खास बात यह थी कि वहां मौजूद गार्ड्स लोगों से फोटो न खींचने का आग्रह कर रहे थे। लेकिन मोबाइल फोन कैमरे के जमाने में ऐसे निर्देश कौन सुनता है।


इस कमरे में पहुंचकर हमें इस्लामी दौर की बहुत सी चीज़ों के दर्शन हुए। इनमें हज़रत मूसा का असा, आखिरी नबी की तलवार, कमार, पानी पीने का कटोरा, दंदान मुबारक, मुहरे नबुव्वत, दाढ़ी का बाल और उनकी बेटी हज़रत फातिमा और उनके नाती हज़रत हुसैन के कपड़े आदि देखने को मिले। इस कमरे से कोई बाहर आना नहीं चाहता था, लेकिन चूंकि बाहर काफी लंबी कतार थी, बहरहाल हमें बाहर आना ही पड़ा।


यहां से बाहर आकर हम भव्य सभागार में पहुंचे। यहां जो भी सामान आदि था उसे देखकर अंदाज़ा लगा कि सुल्तान अहमद बादशाह जरूर थे, लेकिन वे बिना राय-मशविरा किए अपनी हुकूमत नहीं चलाते थे।

गौरतलब है कि टोकापी पैलेस उस्मानी बादशाहों का निवास तो था ही, लेकिन साथ ही साम्राज्य का शैक्षिक और प्रशासनिक केंद्र भी था जिसका निर्माण 1460 में हुआ था। 19वीं सदी तक यह उस्मान साम्राज्य का केंद्र रहा। 1922 में जब उस्मानी साम्राज्य का अंत हुआ और मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने सरकार की बागडोर अपने हाथ में ली तो 3 अप्रैल 1924 को इस पैलेस को म्यूज़ियम में बदल दिया गया।


टोकापी पैलेस से बाहर निकलते-निकलते हम काफी थक चुके थे। लेकिन फिर भी हम नजदीक ही आया सोफिया देखने के लिए पहुंच गए। यहां का टिकट भी 60 लीरा का था। आया सोफिया में अंदर जाते ही हमें तुर्की की वास्तुकला के दर्शन हुए। पूर्ववी रोमन सरकार ने यह भव्य ऐताहिक चर्च बनवाया था, जहां सभी बादशाहों की ताजपोशी (राज्याभिषेक) होती थी।

यह चर्च इतिहास के कई दौर का गवाह रहा है और म्यूजियम के बाहर लगी पट्टिका पर इसका जिक्र भी है। इसमें लिखा है इस इमारत को 916 साल तक चर्च के तौर पर इस्तेमाल किया गया। इसके बाद 482 साल तक इसे मस्जिद के तौर पर इस्तेमाल किया गया। इस मिश्रित संस्कृति की झलक हमें इस इमारत में अंदर दाखिल होते ही महसूस हुई। अंदर जुमे की नमाज के लिए खुतबे का मेंबर (जहां से इमाम नमाज पढ़ने आने वालों को संबोधित करते हैं) मौजूद है। छत पर अल्लाह, मुहम्मद और उनके साथियों के नाम अरबी भाषा में लिखे हुए हैं। ठीक बीच में ईसा मसीह की तस्वीर है। फिलहाल यह एक म्यूजियम है, लेकिन साफ था कि यहां ईसाई और मुस्लिम दोनों ही धर्मों का सम्मान है। हमारे देश के लिए यह तस्वीर एक बड़ा संदेश दे सकती है। दरअसल आया सोफिया इस्तांबुल के असली तस्वीर पेश करता है जो यूरोप और एशिया का संगम है।


इस्तांबुल शहर को दुनिया की दो संस्कृतियों का केंद्र कहा जा सकता है। आया सोफिया केबाद ब्लू मॉस्क (नीली मस्जिद) जाने की हिम्मत नहीं हुई। देर भी बहुत हो गई थी और हम दिन में करीब 10 किलोमीटर पैदल चलकर थक भी चुके थे। वापसी में डिनर लेते हुए हम होटल पहुंचे, और कब सो गए पता नहीं चला।

कल देखते हैं इस शहर का कौन सा रूप हमें नजर आता है।

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