एक्यूआई की फूहड़ता के साथ जिंदा रहने की कवायद
प्रदूषण रोकने या कम करने के समाधान भी ऐसे सुझाए जाते हैं जिनकी मियाद खत्म हो चुकी है और वे भी जो किसी दूसरे ग्रह से आए लगते हैं।

अब यह सालाना रीति-रिवाज की तरह ही हो गया है। हर साल जब सर्दियां दस्तक देती हैं और दिल्ली में एक्यूआई विमर्श शुरू हो जाता है। खबरों से लेकर टेलीविजन तक हर जगह दिल्ली की जहरीली हो रही हवा पर चिंता जताई जाने लगती है। तमाम तरह के नए-नए समाधान सुझाए जाने लगते हैं। वे समाधान भी जिनकी मियाद खत्म हो चुकी है और वे भी जो किसी दूसरे ग्रह से आए लगते हैं। हालांकि यह सभी जानते हैं कि इनसे कुछ होना-जाना नहीं है। दिल्ली के लोग इसी हवा में जीने के लिए अभिशप्त हैं। हालात कितने गंभीर हैं, इसे हम एक एक्स यूजर के ट्वीट से समझ सकते हैं- ‘अब हम सांस नहीं लेते, हर रोज हम मौत को अंदर खींचते हैं।’।
दिल्ली का यह प्रदूषण कितना खराब हो चुका है, इसे समझने के लिए हमें सुनना होगा ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज के पूर्व निदेशक डॉक्टर रणदीप गुलेरिया को। उनका कहना है कि कोविड-19 ने जितने लोगों की जान ली थी, दिल्ली का प्रदूषण इस समय उससे कहीं ज्यादा लोगों की जान ले रहा है।
कोविड और प्रदूषण के एक और संबंध की चर्चा सुप्रीम कोर्ट ने भी की है। दिल्ली के प्रदूषण पर सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने पूछा था कि कोविड-19 के दौर में भी पराली जल रही थी, लेकिन तब आसमान नीला क्यों दिखने लगा था?

क्या इसका जवाब कोविड के दौर वाला लॉकडाउन ही है? बेशक वह लॉकडाउन एक अति था, लेकिन अब कोविड की चर्चा यह बता रही है कि छोटे-मोटे उपायों से मौजूदा समस्या का समधान नहीं होने वाला।
वैसे प्रदूषण से मुक्ति के मामले में लोगों की उम्मीद अब सुप्रीम कोर्ट पर ही टिकी है। केन्द्र और राज्य सरकार साफ हवा उपलब्ध करा सकती हैं, यह अब कोई सोचता भी नहीं। पिछले करीब 38 साल में दिल्ली के प्रदूषण का मामला किसी न किसी रूप में सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। पर अभी तक दिल्ली को कोई बड़ी राहत नहीं मिली है। 1987 में राजधानी के वकील एमसी मेहता ने पहली बार महानगर के बढ़ते प्रदूषण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डाली थी। उसके बाद से कोर्ट में कई याचिकाएं डाली गईं, कई फैसले भी हुए। लेकिन प्रदूषण लगातार बढ़ता ही गया- खतरनाक स्तर से भयानक स्तर तक।
सुप्रीम कोर्ट ने 1998 में एक ऐसा बड़ा फैसला जरूर किया था जिसका साफ असर दिखाई दिया था। तब अदालत ने दिल्ली के डीजल पर चलने वाले सार्वजनिक परिवहन को पूरी तरह सीएनजी पर चलाने का फैसला सुनाया था। जब यह फैसला सुनाया गया, दिल्ली की सभी बसों, टैक्सियों और तिपहिया वाहनों को सीएनजी पर चलाने की बात उस समय लगभग नामुमकिन लगती थी। यह एक ऐसा बदलाव था जो इसके पहले दुनिया के किसी भी महानगर में नहीं हुआ था। काफी बड़ा हंगामा भी हुआ। धरने, प्रदर्शन, हड़ताल सब हुए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट टस से मस नहीं हुआ। यह काम आसान भी नहीं था। लेकिन जब यह हुआ, तो दिल्ली के पर्यावरण पर इसका असर भी साफ दिखाई दिया।

पूर्वी दिल्ली से सांसद रहे संदीप दीक्षित का कहना है कि अगर कोई नतीजा चाहिए तो सरकार को इतने बड़े फैसले ही करने होंगे। इसके लिए बड़ी राजनीतिक इच्छा शक्ति चाहिए, जो अभी तक दिखाई नहीं दे रही। वह भी तब जब केन्द्र के साथ ही दिल्ली और उसके आस-पास के राज्यों में बीजेपी की ही सरकारें हैं।
यह सच है कि तब जो कोशिश की गई थीं, अब उससे कहीं बड़ी कोशिश की जरूरत है। लेकिन फिलहाल कोई शुरुआत नहीं दिखाई दे रही। अभी सरकार के पास ग्रैप यानी गेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान जैसे जो उपाय हैं, वे समधान कम, नौकरशाही वाली कवायद ज्यादा हैं जिनका असर होते कभी देखा नहीं गया। अरविंद केजरीवाल की सरकार ने कुछ समय के लिए ऑड-ईवन नंबर की गाड़ियां चलाने का जो नियम बनाया था, उसका भी ज्यादा असर नहीं दिखाई दिया।
उनकी सरकार ने लंबे समय तक क्लाउड सीडिंग से दिल्ली में बारिश करवा कर प्रदूषण खत्म करने की बात की, लेकिन इसे आजमाया रेखा गुप्ता की सरकार ने। आरटीआई कार्यकर्ता अजय बोस से मिली जानकारी के अनुसार, आईआईटी कानपुर से करवाई गई क्लाउड सीडिंग पर 38 लाख रुपये खर्च हुए। प्रदूषण दूर करने वाली घनघोर बारिश तो दूर दिल्ली में चंद बूंदे भी नहीं गिरीं।
एंटी स्मॉग टॉवर और एंटी स्मॉग स्प्रे गन जैसे प्रयोगों की फेहरिस्त बहुत लंबी है जो एक के बाद एक लागातर नाकाम साबित होते रहे हैं। सरकार को एक चीज में थोड़ी कामयाबी जरूर मिली है- एक्यूआई के आंकड़ों में हेराफेरी करने और उन्हें छुपाने या दबाने में। सोशल मीडिया में ऐसे बहुत से वीडियो मिल जाएंगे जिनमें एक्यूआई दर्ज करने वाले केन्द्रों के बाहर प्रदूषण कम करने के लिए ट्रकों से पानी की बौछार चल रही है। लेकिन दिल्ली का प्रदूषण ऐसी चीज भी नहीं जिसे छुपाया जा सके।
एक के बाद एक सारे लक्ष्य पीछे छूट चुके हैं। 2019 में एक नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम बनाया गया था। तब यह लक्ष्य था कि 2024 तक दिल्ली में पीएम 2.5 का स्तर 20 से 30 प्रतिशत तक कम कर दिया जाएगा। उस लक्ष्य को भी एक साल बीत चुका है। पीएम 2.5 का स्तर कई गुना बढ़ चुका है।
पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को साफ हवा उपलब्ध कराने में सरकार ही नाकाम नहीं रही। समाज भी अपने स्तर पर इसके समाधान खोजने में नाकाम रहा। दुनिया भर के कई शहरों में प्रदूषण से बचने के लिए कार पूलिंग तरीके अपनाए जाते हैं। दिल्ली में कार रखने की हैसियत वालों को ये कभी पसंद नहीं आए। कुछ समय पहले तक उबर और ओला जैसी टैक्सी एग्रीगेटर कंपनियां शेयरिंग कैब की सुविधा देती थीं। अब यह सुविधा भी बंद है।
भारत धीरे-धीरे एक ऐसे समाज के रूप में विकसित हो चुका है जहां सार्वजनिक समस्याओं के निजी समाधान खोज लिए जाते हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा ठीक नहीं है, तो निजी अस्पताल में जाओ, सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था में कमी दिखे, तो बच्चों को निजी स्कूलों में भेजो, साफ पानी की सप्लाई नहीं हो रही तो आरओ लगा लो। जाहिर है अगर हवा साफ नहीं है, तो एयर प्योरीफायर लगाओ।
दिल्ली में साफ हवा अब एक विलासिता है। जिसके पास पैसे हैं, वह उसे खरीद सकता है। बाकी के लिए ‘स्वच्छ हवा के अधिकार’ की बात अब कोई नहीं करता। ‘हेपाफिल्टर’ जैसे शब्द अब मध्यवर्ग की बातचीत का हिस्सा बन चुके हैं।
इसलिए जब यह खबर आई कि दिल्ली के सार्वजनिक निर्माण विभाग ने 5.5 लाख रुपये की कीमत पर 15 ‘स्मार्ट एयर प्योरीफायर’ खरीदे, तो किसी को हैरत नहीं हुई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता की अपने आगंतुकों से मिलने की जो तस्वीरें मीडिया में आती हैं, उनमें भी अक्सर किसी कोने से एयर प्योरीफायर झांकता दिखाई दे जाता है।
यह बात अलग है कि एयर प्योरीफायर वालों को भी बाहर आना पड़ता है जहां हर बार बढ़ा हुआ एक्यूआई उनका इंतजार कर रहा होता है। आप बाहर आने की अवधि को कम कर सकते हैं लेकिन एक्यूआई के कहर से पूरी तरह नहीं बच सकते।
यह एक्यूआई अब लोगों के दिमाग में डोपामाइन हारमोन पैदा करने लगा है। लोग गिनाते हैं कि ज्यादा एक्यूआई से क्या-क्या नुकसान हो सकते हैं। एक्यूआई पर चुटकले बनने लगे हैं। वाट्सएप मैसेज शेयर होने लगे हैं। अब हम तापमान नहीं, शाम को खबरों में देखते हैं कि किस शहर का एक्यूआई कितना रहा। इस खतरनाक हवा ने हमें सिर्फ ‘एक्यूआई की अश्लीलता’ ही नहीं परोसी, हमारी फेंटेसीज़ को भी बदल दिया है। अब हम किसी समुद्र तट पर छुट्टी बिताने की नहीं सोचते, ऐसे शहर में घूमने की योजना बनाते हैं जहां हवा सांस लेने लायक हो। सांसों के जरिये शरीर में पहुंचने वाली जहरीली हवा को तो हम रोक नहीं सकते, इसी में कुछ पल का आनंद खोज लेने में हर्ज ही क्या है।
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