राजस्थान चुनाव: राजनीतिक सरगर्मियों के बीच बीजेपी का सेल्फ गोल और खुद वसुंधरा राजे चौराहे पर

राजस्थान समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है। लेकिन राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को लेकर बीजेपी नेता ही किनारे करने की कोशिशों में लगे हैं। केंद्रीय नेतृत्व भी उनसे बहुस सहज नजर नहीं आता।

यह तस्वीर मार्च 2018 की है, उस समय वसुंधरा राजे राजस्थान की मुख्यमंत्री थीं (फोटो : Getty Images)
यह तस्वीर मार्च 2018 की है, उस समय वसुंधरा राजे राजस्थान की मुख्यमंत्री थीं (फोटो : Getty Images)
user

शरद गुप्ता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2 अक्टूबर को राजस्थान में रैली में भाषण दे रहे थे। हर तरीके से, उन्होंने अपने ही पाले में दो गोल कर लिए। असामान्य तरीके से उन्होंने कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की दी गई गारंटियों और योजनाओं की प्रशंसा की और घोषणा की कि अगली बीजेपी सरकार उन्हें बनाए रखेगी। इस बारे में स्पष्टीकरण पाने में बीजेपी नेता मुश्किल में थे कि प्रधानमंत्री ने दूसरा सेल्फ गोल भी कर डाला। उन्होंने कहा कि इन चुनावों में वह किसी चेहरे की खोज नहीं करें। मतदाताओं को कमल वाला बटन दबाना चाहिए। वैसे, बीजेपी पर निगाह रखने वाले लोगों ने इसे इस तरह समझा-बताया कि पार्टी ने पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री-पद के उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट करने की संभावना खत्म कर दी है। पार्टी विधानसभा चुनाव में सामूहिक नेतृत्व के प्रयोग को दोहरा रही है।

अक्टूबर के अंत और सितंबर के शुरुआती दिनों में दिल्ली में राजस्थान बीजेपी को लेकर काफी गतिविधियां रहीं। राजे को राजधानी बुलाया गया और उनकी केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह समेत कई वरिष्ठ बीजेपी नेताओं से मुलाकात हुई। तब इस संभावना को फिर बल मिला कि या तो उन्हें मुख्यमंत्री-पद के प्रत्याशी के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाएगा या उन्हें अपने समर्थकों को पार्टी उम्मीदवारों के बारे में फैसले करने की अनुमति दे दी जाएगी। लेकिन खबरें आईं कि शाह के साथ उनकी मुलाकात वस्तुतः तनाव भरी रही। शाह ने उन्हें अपने कम्फर्ट जोन से बाहर आने और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ चुनाव लड़ने को कहा।

बीजेपी के अंदरूनी सूत्रों ने दावा किया कि देर रात करीब 40 मिनट तक चली इस बैठक से राजे का यह भ्रम दूर हो गया कि पार्टी नेतृत्व की उनके बारे में क्या राय है। पार्टी कार्यक्रमों में हिस्सेदारी न करने और इनमें सक्रिय भागीदारी न करने को लेकर भी उनसे अपना रुख साफ करने को कहा गया। वह 2003 से झालरापाटन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। उन्हें इसकी जगह गहलोत के चुनाव क्षेत्र- सरदारपुरा से लड़ने को कहा गया। बात बहुत साफ है। गहलोत को उनके चुनाव क्षेत्र में हराना किसी के लिए भी मुश्किल ही है। वसुंधरा और गहलोत भले ही राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हों, बीजेपी नेता मानते हैं कि राजे ने गहलोत के साथ व्यक्तिगत संबंध अच्छे रखे हुए हैं। दोनों की एक साथ फोटो भी हाल के दिनों में वायरल हुई थी।

वैसे, बीजेपी को लेकर नरम रुख रखने वाले लोग भी इसे पार्टी नेतृत्व की गलती मानते हैं। उनका कहना है कि वसुंधरा के बिना चुनावों में उतरना पार्टी के लिए ज्यादा मुश्किल भरा होगा। माना जाता है कि पार्टी ने जिस तरह मध्य प्रदेश में केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को मैदान में उतारा है, वह राजस्थान में भी ऐसा ही करेगी। बीजेपी के लोग मानते हैं कि राजे को राज्य में पार्टी कार्यकर्ताओं के एक बड़े वर्ग का जिस किस्म का समर्थन हासिल है, वैसा किसी अन्य नेता का नहीं। उनका कहना है कि इस अर्थ में राजे की तुलना में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, केंद्रीय मंत्री गजेन्द्र शेखावत या अर्जुन राम मेघवाल कहीं नहीं टिकते।


वे यह भी ध्यान दिलाते हैं कि भले ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह को यकीन हो कि 200 सदस्यीय विधानसभा में वसुंधरा के बिना भी पार्टी 110 सीटें जीत सकती है, लेकिन टाइम्स नाउ के हाल में किए गए सर्वे में कांग्रेस को 104 और बीजेपी को 90 सीटें मिलने की संभावना जताई गई है। उनका मानना है कि जमीनी स्थिति तो वास्तव में और भी खराब है। प्रधानमंत्री ने अभी हाल में जिस तरह सेल्फ गोल किए हैं, वास्तव में उससे तो गहलोत की मुस्कान बढ़ ही गई होगी- आखिर, बीजेपी के सबसे बड़े चेहरे प्रधानमंत्री मोदी तक को उनकी प्रशंसा करनी पड़ी है।

प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि यह 'मोदी की गारंटी' है कि गहलोत द्वारा शुरू की गई योजनाएं जारी रहेंगी। पर्यवेक्षकों का कहना है कि लोग मोदी की बातों को ऐसे में कितनी गंभीरता से लेंगे जो हाल तक इन योजनाओं को 'रेवड़ी' बताते रहे हैं। ऐसे में मोदी की कथित पुरानी गारंटियों के बारे में भी तो सवाल उठेंगे- जैसे, काले धन पर अंकुश, किसानों की आमदनी दोगुना करना या 2 करोड़ युवाओं को रोजगार।

राजस्थान में आम तौर पर यह राय है कि गहलोत ने अच्छा काम किया है। और 'जादूगर' माने जाने वाले गहलोत ने तो 'चतुर' कहे जाने वाले मोदी को ही फंसा लिया। गहलोत ने चुनौती दी थी कि मोदी कहें कि अगर बीजेपी जीती, तो वह उनकी शुरू योजनाओं को जारी रखने की गारंटी दे रहे हैं। मोदी ने इसीलिए यह गारंटी तो दी लेकिन इस तरह उन्होंने गहलोत की योजनाओं की प्रशंसा ही कर दी।

दोनों ही दलों में उम्मीदवारों का चयन मुश्किल भरा है लेकिन पर्यवेक्षकों का कहना है कि बीजेपी प्रत्याशियों से ही तय होगा कि क्या वसुंधरा को किनारे कर दिया गया है या वह निष्पक्ष रहेंगी। जनता से कनेक्ट बनाए रखने के लिए वसुंधरा अपना तीन परिचय देती हैं कि वह जाटों की बहू, राजपूतों की बेटी और गुज्जरों की समधन हैं।

अभी हाल में कांग्रेस संचालन समिति की उदयपुर में बैठक हुई थी। इसका नेतृत्व सांसद गौरव गोगाई कर रहे थे। संयोगवश वे नेता जब वहां एयरपोर्ट पहुंचे, तो वीआईपी लॉन्ज में उनकी मुलाकात वसुंधरा से हो गई। इसकी फोटो वायरल हो गई। हालांकि दोनों ही पक्षों ने सार्वजनिक तौर पर इसे अहमियत नहीं दी लेकिन दोनों ही पार्टियों से जुड़े कई लोगों ने यह याद दिलाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी कि गहलोत ने अपनी ही पार्टी के असंतुष्टों से उन्हें उबारने में वसुंधरा की भूमिका की सार्वजनिक तौर पर याद की थी।

पार्टी नेतृत्व को अपनी अहमियत बताने के खयाल से ही वसुंधरा ने जयपुर से करीब 200 किलोमीटर दूर चुरु जिले के सालासार धाम में अपने 70वें जन्म दिन पर रैली का आयोजन किया था। इसमें 73 बीजेपी विधायकों में से 57, राजस्थान से 25 लोकसभा सदस्यों में से 14, राज्यसभा के एक सदस्य और 118 पूर्व विधायकों ने शिरकत की थी। हालांकि उनका जन्मदिन 8 मार्च है, पर उस दिन होली थी इसलिए उन्होंने इसका आयोजन पहले ही कर लिया था। किसी भी केंद्रीय नेता ने इसमें हिस्सा नहीं लिया था।


वैसे, नरेंद्र मोदी वसुंधरा को सब दिन अपने लिए चुनौती मानते रहे हैं। इसके प्रमाण भी हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने निहाल चंद को राज्यमंत्री बना लिया। उन पर बलात्कार का आरोप तो था ही, वह वसुंधरा विरोधी भी माने जाते रहे हैं। हालांकि 2018 में विधानसभा चुनावों से पहले वसुंधरा कई दफा मोदी और शाह के साथ मंचों पर रहीं, लेकिन इनके बीच संबंधों में असहजता साफ-साफ दिखती रही। मंचों पर वे सब एकसाथ बैठे तो, लेकिन कई बार एक-दूसरे की ओर देखा भी नहीं।

पार्टी में उनके प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले ओम बिरला, गजेन्द्र सिंह शेखावत, अर्जुन राम मेघवाल, सतीश पूनिया, किरोड़ी लाल मीना और राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को तो केंद्रीय नेतृत्व ने तवज्जो दी, पर वसुंधरा को किनारे किया जाता रहा। उन्हें जेपी नड्डा की टीम में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया है। वैसे, नड्डा राजनीतिक जीवन में उनसे काफी जूनियर हैं। वसुंधरा ज्यादातर अपने विधानसभा क्षेत्र में ही सक्रिय रहती हैं। उन्होंने खुद या अपने किसी समर्थक को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने की कई बार कोशिश की, लेकिन पहले तो गुलाब सिंह कटारिया को यह पद दे दिया गया और फिर, जब कटारिया को असम का राज्यपाल बनाया गया, तो इस पद पर राजेन्द्र राठौड़ आ गए।

वसुंधरा ने पिछले पांच साल के दौरान नौ उपचुनावों में किसी में भी प्रचार में हिस्सा नहीं लिया। बीजेपी को इनमें से एक पर ही जीत मिली। अभी हो रही परिवर्तन यात्राओं में भी वह शिरकत नहीं कर रहीं- अपने गृह क्षेत्रों- झालावाड़ और कोटा में भी वह नहीं दिखीं। पिछले साल 'वसुंधरा राजे समर्थक मंच राजस्थान' का गठन किया गया था। इसकी मांग थी कि वसुंधरा को मुख्यमंत्री-पद का उम्मीदवार बनाया जाए। इसके उत्तर में सतीश पूनिया समर्थकों ने इसी तरह मंच बनाकर अपने नेता का नाम आगे बढ़ा दिया।

राजस्थान में बीजेपी के अपने ही घर में मारामारी मची दिखती है। अगर वसुंधरा को किनारे ही किया जाता रहता है या उन्हें गहलोत के खिलाफ चुनाव लड़ने को बाध्य किया जाता है, तो देखने वाली बात होगी कि पार्टी का या खुद उनका क्या भविष्य रहता है।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia