'ढाई आखर प्रेम' : एक अनूठी सांस्कृतिक यात्रा

संस्कृतिकर्मियों-सहित्यकारों-कलाकारों की पहल पर देश के विभिन्न राज्यों में चल रही ‘ढाई आखर प्रेम’ यात्रा अब एक शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, प्रेम, सद्भाव, बंधुता का आंदोलन बन चुकी है। इस यात्रा का समापन 30 जनवरी, 2024 को दिल्ली में होगा

फोटो सौजन्य : नासिरुद्दीन
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नासिरुद्दीन

इन दिनों देश में एक खास जत्था घूम रहा है- ढाई आखर प्रेम राष्ट्रीय सांस्कृतिक जत्था। यह राष्ट्रीय स्तर का सांस्कृतिक नवजागरण जत्था है। शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, प्रेम, सद्भाव, बंधुता का आंदोलन है। इसमें संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार, पत्रकार, बुद्धिजीवी, नौजवान शामिल हैं। भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) की पहल पर निकाले जा रहे इस जत्थे के साझीदार अनेक संगठन हैं।

इसकी शुरुआत भगत सिंह की जयंती 28 सितंबर, 2023 को राजस्थान के अलवर से हुई। समापन महात्मा गांधी की शहादत के दिन, यानी 30 जनवरी, 2024 को दिल्ली में होगा। यह जत्था पिछले साल लगभग डेढ़ महीनों की ‘ढाई आखर प्रेम’ यात्रा की अगली कड़ी है। तब यह यात्रा पांच हिन्दी भाषी राज्यों तक सीमित थी जिसकी कामयाबी देखते और सामाजिक-राजनीतिक जरूरत को समझते हुए इस बार यह जत्था देशव्यापी है और कई मायने में अलग है।

यह जत्था क्यों

झूठ, नफरत के बरअक्स प्रेम की बात ही इस सांस्कृतिक यात्रा के केन्द्र में है। आज हमारे आसपास जिस तरह झूठ का बोलबाला है और नफरत चारों तरफ से अपना घेरा मजबूत कर रही है, सत्य और प्रेम की अहमियत काफी बढ़ जाती है। कबीर की वाणी का एक टुकड़ा... ढाई आखर प्रेम… इसीलिए इसके केन्द्र में है। प्रेम जिसके बिना सामाजिक ताना-बाना मुमकिन नहीं। साझापन असंभव है। प्रेम शब्द के ढाई अक्षर एक बड़ी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति हैं। ढाई अक्षर के मूल्य और दर्शन ही इस यात्रा के केन्द्र में है।

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लगभग आठ दशक पहले भी संस्कृतिकर्मियों ने एक ऐसा ही जत्था निकाला था। मुद्दा था, बंगाल का अकाल और देश की आजादी। देश पर आई विपदा के बारे में लोगों को जागरूक करने और अकाल पीड़ितों की मदद के लिए कलाकार पूरे देश में घूमे थे। उन्होंने अपने गीतों-नाटकों-नृत्यों से लोगों को अकाल के भयानक असर को जनता के सामने पेश किया। पूरे देश में इस मानव निर्मित अकाल के खिलाफ माहौल बना। लोगों ने पीड़ितों के लिए भरपूर मदद की। इप्टा की नींव में ऐसी ही जन जागृति पैदा करने वाली सांस्कृतिक यात्राएं हैं। यह यात्रा उसी विरासत को आगे ले जाने की मुहिम है। 

आज जब देश में आजादी, समता, समानता, इंसाफ, बंधुता जैसे संवैधानिक मूल्य अपने मायने खो रहे हैं, तब इनकी अहमियत बताए जाने और इन्हें बचाने की सख्त जरूरत है। इन मूल्यों पर विभाजनकारी, झूठ और नफरत की राजनीति का सीधा हमला है। झूठ और नफरत समाज को हिंसक मर्दानगी की तरफ ढकेल रही है। आमजन को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है। ढाई आखर प्रेम यात्रा इसी सब के खिलाफ है। 

इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और मशहूर रंगकर्मी प्रसन्ना का कहना है कि इसीलिए हमने कबीर के प्यार को चुना है। हमने हाथ के श्रम के प्रतीक गमछा का चुनाव किया है। यह कबीर की वाणी का प्रतीक है। एकता का प्रतीक है। यही हमारी यात्रा का दर्शन और ताकत है। 


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वहीं, इप्टा के कार्यवाहक अध्यक्ष राकेश वेदा कहते हैं, ‘यात्रा का मतलब ही है गतिशीलता लेकिन इतिहास में कुछ लोग समाज को अतीत के पतनशील गर्त में धकेलने की यात्रा में जुटे रहते हैं। अतीत, राष्ट्र, सैन्य शक्ति, धर्म और अपनी अस्मिता पर गर्व दूसरों के प्रति नफरत और हिकारत को जन्म देता आया है। इसकी परिणति घृणा और हिंसा में होती है। हमारा मानना है कि नफरत और हिंसा का जवाब उसी भाषा में देने से उस प्रक्रिया को और बढ़ावा ही मिलेगा, इसलिए हमने बुद्ध, कबीर, रैदास, नानक, गांधी, भगत सिंह, डॉ. आंबेडकर की सहिष्णुता, प्रेम, सद्भाव, बदलाव और सामाजिक न्याय की परंपरा को और आगे बढ़ाने के लिए आम लोगों से सांस्कृतिक संवाद की शुरुआत ‘ढाई आखर प्रेम’ सांस्कृतिक यात्रा से की।’ इस यात्रा में जहां एक ओर प्रेम का संदेश है, वहीं दूसरी ओर कबीर के ‘गमछे’ के प्रतीक के रूप में मानवीय श्रम की गरिमा, पर्यावरण संतुलन और सामाजिक न्याय को भी रेखांकित करने की कोशिश है। स्पष्ट ही है कि भारतीय संविधान इन सभी मूल्यों को समेटने वाला एक जीवंत दस्तावेज है जो इस समय सर्वाधिक निशाने पर है। प्रेम की यात्रा एक सतत संवाद की यात्रा है।' 

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कई संगठन साझीदार

इस ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण राष्ट्रीय सांस्कृतिक अभियान में देश के नामचीन प्रगतिशील सांस्कृतिक-साहित्यिक संगठन शामिल हैं। इनमें राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के साथ जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, दलित लेखक संघ, जन नाट्य मंच, प्रगतिशील लेखक संघ हैं। हर राज्य में जैसी भागीदारी मिली है, उत्तर से दक्षिण, पश्चिम से पूरब तक सौ से ऊपर संगठन इसके साझीदार बन चुके हैं।  

प्रमुख संगठनों ने अपनी अपील में बताया है कि ‘यह जत्था आपसी प्रेम, शांति और सौहार्द्र का उत्सव है। यह दुनिया में व्याप्त नफरत और अविश्वास की भावना के जवाब में हम संस्कृतिकर्मियों और जिम्मेदार नागरिकों की एक ज़रूरी पहल है।’ यही नहीं, यात्रा के लिए अंजन श्रीवास्तव, मनोज वाजपेयी, बाबिल खान, सुतापा सिकदर, अनुराग कश्यप, अनामिका हकसर, तुषार गांधी, सुलभा आर्या, राजेन्द्र गुप्ता, तिगमांशु धुलिया, प्रोबिर गुहा, स्वानंदर किरकिरे जैसे कलाकार और बुद्धिजीवियों ने अपने संदेश दिए। रघुबीर यादव ने गीत गाए। इसके साथ ही अनेक कवि कविताएं  लिख रहे हैं। चित्रकार पोस्टर और चित्र बना रहे हैं। देखा जाए तो यह सही मायने में हर विधा के कलाकारों की यात्रा बन चुकी है। यही इसकी ताकत है।  


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यात्रा कहां-कहां 

ढाई आखर प्रेम यात्रा देशभर में निकल रही है। यह कोई एक जत्था नहीं है बल्कि अनेक जत्थे अलग-अलग राज्यों में निकल रहे हैं, यानी हर राज्य का अपना विशिष्ट सांस्कृतिक जत्था है। यही नहीं, कई राज्यों में तो एक से ज्यादा जत्थे अलग-अलग क्षेत्रों में हैं। अब तक यह राजस्थान, बिहार, पंजाब, उत्तराखंड, ओडिशा, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, झारखंड, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल में लोगों के बीच जा चुका है। राज्यों में इस पैदल यात्रा का रास्ता चुनते वक्त खास खयाल रखा गया है। यों ही किसी रास्ते पर कोई यात्रा नहीं निकल पड़ी बल्कि हर रास्ते का एक अर्थ है।

बिहार में यह जत्था महात्मा गांधी के बिहार से रिश्ते को तलाश रहा। जिस चंपारण सत्याग्रह ने गांधी को सत्याग्रही गांधी के रूप में स्थापित किया, उस जगह पर यात्रा गांव-गांव घूमी। गांधी से जुड़ी जगहों पर गई। लोगों के बीच गांधी की स्मृति को तलाशा और गांधी के सत्य और प्रेम से फिर एक बार जोड़ने का काम किया। 

तो उत्तर प्रदेश में यह यात्रा बुंदेलखंड की साझी विरासत और साझी संस्कृति से रूबरू हुई। उन जगहों से जुड़ने की कोशिश की जिनका रिश्ता गंगा-जमुनी तहजीब से है। साझी विरासत, साझी संस्कृति से है। उन महान सांस्कृतिक लोगों से जुड़ने की कोशिश की जिन्होंने समाज में शांति, प्रेम, सद्भाव का संदेश दिया। आजादी के उन सिपाहियों की जगहों से भी जुड़ने की कोशिश यात्रा में दिखती है जिन्होंने देश के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। इस तरह यह यात्रा सांस्कृतिक नवजागरण जैसी है।     

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यात्रा पैदल

सबसे खास बात है कि इसमें शामिल लोग पैदल ही चल रहे हैं। पैदल चलने के पीछे दर्शन है कि आम जन से सीधा संपर्क बने। लोगों की बात सुनी जाए। उनसे संवाद किया जाए। गीत सुने और सुनाए जाएं। नाटक दिखाए जाएं। संतों, स्वतंत्रता सेनानियों की कर्मस्थली की मिट्टी की खुशबू महसूस की जाए, उससे प्रेरणा ली जाए। इसलिए मिट्टी के बीच, मिट्टी के साथ चला जाए।

गमछा है आकर्षण

यात्रा प्रेम के साथ-साथ श्रम की अहमियत भी बताती है। हाथ के श्रम को फिर से सम्मानित करने और उसे उत्पादन में महत्वपूर्ण भागीदार बनाने की बात करती है। इसलिए इस यात्रा में ‘गमछा’ श्रम का एक मजबूत प्रतीक बनकर उभरा है। गमछा हमारी ग्रामीण जिंदगी का एक अहम हिस्सा है। यह भारत के हर कोने में अनेक रूपों में इस्तेमाल होता है। यात्रा में हाथ से तैयार गमछा आकर्षण का केन्द्र बना है। जत्था में शामिल संस्कृतिकर्मी खुद भी स्थानीय कलाकारों के हाथ के बने गमछे पहनते और लोगों को भी पहनाते हैं। कई जगहों फैशन शो की तरह गमछे के शो भी आयोजित हुए। गमछे ने श्रम की महत्ता पर होने वाली बहस को इस यात्रा के जरिए केन्द्र में ला दिया है।


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यात्रियों के अनुभव

बिहार जत्थे के समापन पर साहित्यकार और यात्री सत्येन्द्र कुमार लिखते हैं,  ‘इस ‘ढाई आखर प्रेम’ सांस्कृतिक यात्रा ने सभी पदयात्रियों को तमाम नई सीखें दीं। यह अपने देश को समझने, उसके बहुसांस्कृतिक, बहुभाषिक रूपों को देखने और समझने में मददगार है। हमारा समाज विभिन्न परिस्थितियों में कैसे जीता है, कैसे कठिन से कठिन समय में भी अपनी एकता बनाए रखता है, यह सीखने को मिला।’ वह लिखते हैं, ‘यह जत्था आपसी प्रेम, शांति और सौहार्द्र का उत्सव है जो दुनिया में व्याप्त नफरत और अविश्वास की भावना के जवाब में संस्कृतिकर्मियों और जिम्मेदार नागरिकों की एक जिम्मेदार पहल है।’

संस्कृतिकर्मी हरिओम राजोरिया मध्य प्रदेश की यात्रा का अनुभव इस तरह साझा करते हैं- ‘कम-से-कम संसाधनों में आपसी सहकार से यह सांस्कृतिक यात्रा निकाली गई। इंदौर से बड़वानी के बीच नर्मदा किनारे के और उसके पास के अनेक गांवों और कस्बों में हम गए। यात्रा में उजाड़ और पुनर्वास दोनों ही देखे। बहुत लोगों को सुना और वे हमे सुनते रहे। जब आंदोलनों में स्त्रियां भी बराबरी से हिस्सेदारी करती हैं तो उनकी निडरता, सजगता, आत्मविश्वास और अभिव्यक्ति देखते ही बनती है। आंदोलनों से अर्जित व्यावहारिक शिक्षा के उदाहरण भी हमारे सामने आए।’ 

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ढाई आखर सांस्कृतिक पदयात्रा की शुरुआत राजस्थान से हुई। यह पदयात्रा अलवर शहर और आसपास के ऐतिहासिक गांवों से गुजरी। अर्पिता बताती हैं कि राजस्थान की यात्रा मिसाल रही। इसे आधार बनाकर और जगहों पर यात्रा को और विस्तार देने की कोशिश की गई। ढाई आखर यात्रा के मूल में सभी को जोड़ने, संवाद करने की जो बात है, अलवर में उसकी झलक दिखी। सभी जगह गांव वालों ने मिलजुल कर यात्रियों के लिए व्यवस्था की थी। यही नहीं, यात्रा में सांप्रदायिक सद्भाव के कई जरूरी स्थानीय संत-महात्मा और संस्कृति के दर्शन हुए।

इप्टा के महासचिव तनवीर अख्तर का कहना है, ‘यह सांस्कृतिक जत्था कई मायनों में अनूठा है। यह संस्कृतिकर्मियों को तो जोड़ने का काम कर ही रहा है, उनका आमजन के साथ जीवंत रिश्ता बना रहा है। संस्कृतिकर्मी जनता के पास जा रहे हैं। यात्रा में एक खास बात हर जगह देखने को मिली। सारे इंतजाम स्थानीय लोगों ने किए हैं। यात्रियों के ठहरने, खाने-पीने की व्यवस्था ग्रामीणों ने की है। इसमें बड़ी संख्या में लड़कियां और छोटी उम्र के कलाकार भी हिस्सेदार बन रहे हैं। यह जत्था भारतीय सांस्कृतिक जगत में एक नई इबारत लिखने जा रहा है।’

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