उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता का ऐलान, हकीकत कम और बीजेपी का फसाना ज्यादा

डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि किसी को यह नहीं मानना चाहिए कि अगर राज्य के पास शक्ति है तो वह इसे तुरंत ही लागू कर देगा। संभव है कि कोई भी समुदाय राज्य को मिली शक्ति को आपत्तिजनक मान सकता है। मुझे लगता है कि ऐसा करने वाली कोई पागल सरकार ही होगी।

फोटोः सोशल मीडिया
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जयसिंह रावत

उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी की कैबिनेट ने अपनी पहली ही बैठक में पहला प्रस्ताव पारित कर राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने का ऐलान कर दिया। यह वायदा मुख्यमंत्री ने विधानसभा चुनाव के दौरान प्रदेश की जनता से किया था। इसके पीछे तर्क यह है कि गोवा राज्य में पहले से ही समान नागरिक संहिता लागू है और संविधान का अनुच्छेद 44 भी सरकार को निर्देश देता है। नये कानून का मजमून तैयार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश की अध्यक्षता में कमेटी गठित करने का निर्णय लिया गया है।

यह बेहद जटिल विषय राज्य सरकार का न होने के कारण इसे उत्तराखंड सरकार का महज खयाली पुलाव ही कहा जा सकता है। लेकिन इससे केन्द्र की मोदी सरकार पर दबाव अवश्य पड़ेगा, क्योंकि यह जनसंघ के जमाने से ही बीजेपी का मूल विषय रहा है और सुप्रीम कोर्ट भी अनेकों बार भारत सरकार से इसकी अपेक्षा कर चुका है। इसलिए उन कारणों को जानना भी जरूरी है कि जो मोदी-शाह की जोड़ी धारा 370 को हटाने जैसा असंभव सा लगने वाला कदम उठा सकती है, वह इतनी चाहतों के बाद भी क्यों नहीं समान नागरिक संहिता लागू करा सकी!

धारा 370 हटाने वाले भी नहीं ला पाए समान नागरिक संहिता

अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 को हटाना और देश में समान नागरिक संहिता लागू कराना न केवल बीजेपी का अपितु इसके पैतृक संगठन जनसंघ के मुख्य राजनीतिक मुद्दे रहे हैं। लेकिन सारे देश के लिए अगर एक समान नागरिक संहिता की व्यवस्था करना इतना आसान होता तो वर्ष 2014 से केन्द्र में सत्ताधारी मोदी सरकार कभी के यह व्यवस्था लागू कर देती। धारा 370 को हटाने और सीएए जैसे कानूनों पर तो भारी विवाद रहा है। जबकि इस मामले में तो सुप्रीम कोर्ट भी कम से कम चार बार सरकार का ध्यान अनुच्छेद 44 की ओर आकर्षित कर संविधान निर्माताओं की भावनाओं के अनुरूप आदर्श राज्य की अवधारणा की ओर बढ़ने की अपेक्षा कर चुका है।

यह मुद्दा संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के तहत अनुच्छेद 44 में शामिल है, लेकिन न तो अदालत नीति निर्देशक तत्वों का पालन करने के लिए आदेश दे सकती है और ना ही कोई नागरिक इनको लागू कराने के लिए अदालत जा सकता है। इस अनुच्छेद में प्रयुक्त अंग्रेजी के ‘‘स्टेट’’ शब्द की भी गलत व्याख्या करने का प्रयास किया गया है, जबकि इस शब्द का मंतव्य राज्य सरकार से न होकर भारत की सरकार से है। यह संविधान संशोधन का विषय है जो कि संसद के अधिकर क्षेत्र में है।


गोवा में लागू है पुर्तगालियों की समान नागरिक संहिता

समान नागरिक संहिता के लिए अक्सर गोवा राज्य का उदाहरण दिया जाता रहा है। जबकि हकीकत यह है कि वहां यह व्यवस्था पिछले 155 सालों से लागू है। गोवा के भारत संघ में विलय के बाद भारत की संसद ने इसे जारी रखा है। यह व्यवस्था गोवा के साथ ही दमन और दियू द्वीप समूहों में भी लागू है। विदित है कि गोवा पुर्तगाल का उपनिवेश रहा है और वहां लागू समान नागरिक संहिता वाला पुर्तगाली कानून सन् 1867 से ही ‘‘द पोर्टगीज सिविल कोड 1867’’ के नाम से लागू था।

भारत की आजादी के बाद पूर्तगाल सरकार की आनाकानी के बाद 19 दिसंबर 1961 को भारतीय सेना ने गोवा, दमन और दीव के भारतीय संघ में विलय के लिए ऑपरेशन विजय के साथ सैन्य संचालन किया और इसके परिणाम स्वरूप गोवा, दमन और दीव भारत का एक केन्द्र प्रशासित क्षेत्र बना। 30 मई 1987 को इस केंद्र शासित प्रदेश को विभाजित कर गोवा भारत का पच्चीसवां राज्य बनाया गया। जबकि दमन और दीव केंद्र शासित प्रदेश ही रहे।

गोवा के अधिग्रहण के साथ ही उसके प्रशासन के लिए भारत की संसद के द्वारा ‘‘द गोवा, दमन एण्ड दियू (प्रशासन) अधिनियम 1962 बना, जिसकी धारा 5 में व्यवस्था दी गई है कि वहां निर्धारित तिथि (अप्वाइंटेड डे) से पूर्व के वे सभी कानून तब तक जारी रहेंगे जब तक उन्हें सक्षम विधायिका द्वारा निरस्त या संशोधित नहीं किया जाता। प्रकार इसमें राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं रही।

समानता और धार्मिक स्वतंत्रता में टकराव का मामला

वास्तव में नीति निर्देशक तत्वों के तहत एक देश, एक कानून, केवल आदर्श राज्य (देश) की अवधारणा मात्र नहीं बल्कि यह समानता के मौलिक अधिकार का मामला भी है। संविधान में अनुच्छेद 14 से लेकर 18 तक समानता के मौलिक अधिकार की विभिन्न परिस्थितियों का विवरण दिया गया है। इन प्रावधानों में कहा गया है कि भारत ‘राज्य’ क्षेत्र में राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल, वंश, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। इन प्रावधानों में कानूनी समानता, सामाजिक समानता और अवसरों की समानता की गारंटी भी है। लेकिन इन्हीं मौलिक अधिकारों में धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार भी है जिसका वर्णन अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक में किया गया है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता, धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का सामान अधिकार होगा। यह अधिकार नागरिकों और गैर-नागरिकों के लिए भी उपलब्ध है। देखा जाए तो नागरिक संहिता के मार्ग में धर्म की स्वतंत्रता और समानता के मौलिक अधिकारों में टकराव ही असली बाधा है। संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन की व्यवस्था तो है मगर मौलिक अधिकारों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत से ही किया जा सकता है। बशर्ते वे परिवर्तन संविधान की मूल अवधारणा के विरूद्ध न हों, वरना भारत का सर्वोच्च न्यायालय उसे खारिज कर सकता है।


विधि आयोग भी पक्ष में नहीं था

अगस्त 2018 में, भारत के विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा था कि देश में एक समान नागरिक संहिता आज की स्थिति में न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है। इसने यह भी कहा था कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता बहुलता के विपरीत नहीं हो सकती।’’ डा. भीमराव अम्बेडकर ने भी संविधान निर्माण के समय कहा था कि समान नागरिक संहिता अपेक्षित है, लेकिन फिलहाल इसे विभिन्न धर्मावलंबियों की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए और उम्मीद की गई कि जब राष्ट्र एकमत हो जाएगा तो समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आ जाएगा। इसलिए इस मुद्दे को नीति निर्देशक तत्वों के तहत अनुच्छेद 44 में रख दिया गया।

आम्बेडकर ने कानून थोपने को पागलपन कहा था

भारत में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध एक के अंतर्गत आते हैं, जबकि मुस्लिम और ईसाइयों के अपने कानून हैं। मुस्लिमों का कानून शरीअत पर आधारित है। जहां तक विवाह का सवाल है तो यह नागरिक कानून पारसियों, हिन्दुओं, जैनियों, सिखों और बौद्धों के लिए कोडिफाई कर दिया गया है। लेकिन समान कानून समर्थकों का मानना है कि जिस तरह भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) और दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) भारत के सभी नागरिकों के लिए एक हैं उसी तरह नागरिक संहिता भी एक होनी चाहिए। लेकिन इसे थोपने के बजाय इसके लिए सभी को सहमत किया जाना चाहिए।

डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में दिए गए एक भाषण में कहा था, "किसी को यह नहीं मानना चाहिए कि अगर राज्य के पास शक्ति है तो वह इसे तुरंत ही लागू कर देगा... संभव है कि मुसलमान या इसाई या कोई अन्य समुदाय राज्य को इस संदर्भ में दी गई शक्ति को आपत्तिजनक मान सकता है। मुझे लगता है कि ऐसा करने वाली कोई पागल सरकार ही होगी।"

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