गोरखपुर-फूलपुर उपचुनाव: पहली बार बीजेपी विरोधी वोटों का ध्रुवीकरण, 2019 के नए समीकरणों का संकेत

गोरखपुर और फूलपुर का उपचुनाव यूपी में नए जातीय गठबंधन के परीक्षण का चुनाव है। यह परीक्षण सफल होता है तो 2019 के चुनाव में नए चुनावी समीकरण बनेंगे जो बीजेपी के सामने कठिन चुनौती पेश करेंगे।

फोटो : सोशल मीडिया
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मनोज सिंह

चार मार्च को बीएसपी ने जब गोरखपुर और फूलपुर में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को समर्थन देने का ऐलान किया, इसके बाद से दोनों उपचुनाव का परिदृश्य एकदम बदल गया है। चुनाव विश्लेषकों से लेकर तक की रूचि अचानक इस चुनाव में बढ़ गई। यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की सीट कठिन चुनावी चक्रव्यूह में फंस गई है?

गोरखपुर सीट पर तीन दशक बाद पहली बार गोरखनाथ मंदिर से जुड़ा कोई व्यक्ति चुनाव मैदान में नहीं है। यहां पर बीजेपी ने अपने एक पुराने कार्यकर्ता उपेन्द्र दत्त शुक्ल को उम्मीदवार बनाया है। गोरखपुर सीट 1989 से लगातार गोरखनाथ मंदिर के पास है। 1989 से 1998 तक योगी आदित्यनाथ के गुरू महंत अवेद्यनाथ यहां के सांसद रहे। इस दौरान वह लगातार तीन चुनाव जीते। उसके बाद से योगी आदित्यनाथ लगातार पांच बार से चुनाव जीतते रहे।

गोरखनाथ मंदिर के महंत देश की आजादी के बाद से चुनावी राजनीति में सक्रिय रहे हैं। महंत दिग्विजयनाथ 1952 और 1957 के चुनाव में हिन्दू महासभा के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान में उतरे, लेकिन कांग्रेस के सिंहासन सिंह से हारे। तीसरी बार उन्हें 1967 में जीत मिली। दो वर्ष बाद उनका निधन हो गया और 1969 में उपचुनाव हुआ, जिसमें महंत अवेद्यनाथ जीते। लेकिन, 1970 के चुनाव में वह कांग्रेस प्रत्याशी नरसिंह नारायण पांडेय से हार गए। इसके बाद वह चुनावी राजनीति से दूर हो गए। राम मंदिर की राजनीति शुरू होने पर वह फिर से 1989 में राजनीति में लौटे।

1989 से 2014 के आठ चुनावों के नतीजों का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि सिर्फ दो बार, 1998 और 1999 में योगी आदित्यनाथ को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। वह 1998 का चुनाव 26,206 और 1999 का चुनाव सिर्फ 7,339 वोटों से जीते थे। दोनों बार समाजवादी पार्टी प्रत्याशी जमुना निषाद ने उन्हें टक्कर दी। इन दोनों चुनावों में बीएसपी प्रत्याशी को क्रमशः 15.23 और 13.54 फीसदी वोट लिया, नहीं तो चुनाव नतीजा कुछ और हो सकता था।

वर्ष 1998 में बेहद नजदीकी मुकाबले में जीत के बाद योगी आदित्यनाथ ने हिन्दू युवा वाहिनी का गठन किया। इसके बाद गोरखपुर और आस-पास का इलाका साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं से झुलस गया। इसका चुनावी फायदा योगी आदित्यनाथ को हुआ और 1998 के बाद वर्ष 2004, 2009 और 2014 में उनकी जीत का अंतर बढ़ता गया। वर्ष 2014 का चुनाव वह 51.80 फीसदी वोट हासिल कर 3,12,783 वोटों के अंतर से जीते। पिछले तीन चुनावों से समाजवादी पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस के सम्मिलित वोट से भी अधिक वोट योगी आदित्यनाथ को मिलते रहे हैं।
इस हिसाब से देखें तो बीजेपी प्रत्याशी को कोई चुनौती पेश नहीं आ रही है, लेकिन इन चुनावों में पिछड़ों और अल्पसंख्यक मतों में विभाजन होता रहा जिसका फायदा योगी आदित्यनाथ को होता रहा है। मुकाबला हमेशा त्रिकोणीय रहा। कांग्रेस यहां पर पिछले छह चुनावों से अपनी कोई हैसियत नहीं बना पाई है और छह बार से उसकी जमानत जब्त होती रही है। उसका वोट प्रतिशत 2.60 से 4.85 फीसदी के बीच रहा है। इस बार कांग्रेस ने डा. सुरहिता करीम के रूप में एक बेहतर प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारा है, लेकिन समाजवादी पार्टी और बीजेपी के बीच वोटों के ध्रुवीकरण के कारण इस बार भी कांग्रेस की हालत पिछले चुनावों से बेहतर होने की उम्मीद नहीं लग रही है।

बीएसपी के समर्थन के कारण इस चुनाव में बीजेपी का सपा प्रत्याशी से सीधा मुकाबला होता लग रहा है। निषाद, यादव, दलित और मुसलमान मतदाताओं का रुझान समाजवादी पार्टी प्रत्याशी के पक्ष में दिख रहा है, लेकिन सवाल यही है कि क्या बीएसपी का मुकम्मल दलित वोट और निषाद पार्टी के कारण मुकम्मल निषाद वोट समाजवादी पार्टी के पक्ष में जाएगा या नहीं। यदि ऐसा होता है तो समाजवादी पार्टी का मुसलमान और यादव मत मिलकर जिताउ समीकरण बना सकते हैं।

वर्ष 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में दलित और पिछड़े मतों का कुछ हिस्सा बीजेपी के साथ गया था, इसलिए उसे दोनों चुनाव में बड़ी सफलता मिली थी, लेकिन केंद्र और प्रदेश में बीजेपी सरकार बनने के बाद से दलितों और पिछड़ों का बीजेपी से तेजी मोहभंग हुआ है। देश के अन्य हिस्सों के अलावा यूपी में सहरानपुर में दलितों पर हिंसा और भीम आर्मी के संस्थापक चन्द्रशेखर आजाद रावण की गिरफ्तारी, उनको जमानत मिलने के बावजूद रासुका लगाकर जेल के अंदर रखने जैसी बातें हैं, जिनसे दलितों में भारी नाराजगी है और वे आंदोलनों के जरिए अपने आक्रोश का इजहार भी कर रहे हैं।

इलाहबाद में दलित युवक की पीट-पीट कर हत्या और होली पर देवरिया और गोरखपुर में अम्बेडकर प्रतिमा क्षतिग्रस्त करने की घटनाएं हुईं। इन घटनाओं से दलितों में यह विश्वास पुख्ता होता जा रहा है कि बीजेपी दलितों की विरोधी है।

इसी तरह कानून व्यवस्था ठीक करने के नाम पर प्रदेश में मुठभेड़ों के नाम पर जो नौजवान मारे गए, उनमें अधिकतर मुसलमान और पिछड़े वर्ग के हैं। गिरफ्तार लोगों में भी पिछड़ी जातियों की संख्या अधिक है। बातचीत में पिछड़ी जातियों के लोग इस बात की शिकायत कर रहे हैं कि बीजेपी शासन में उनका उत्पीड़न किया जा रहा है। यही नहीं जो जातीय पार्टियां जैसे सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और अन्य बीजेपी के साथ आए उनकी शिकायत है कि उन्हें महत्वहीन मंत्रालय दिए गए हैं और अफसर उनकी सुनते भी नहीं हैं। इससे इनका बीजेपी से मोहभंग हुआ है।

इस स्थिति ने अति पिछड़ी जातियों को बीजेपी मके अलावा दूसरा ठौर देखने को विवश किया है। समाजवादी पार्टी ने इसका फायदा उठाया और निषाद पार्टी और पसमांदा मुसलमानों की पार्टी पीस पार्टी से गठबंधन कर लिया। पासी समाज के दो बड़े नेताओं आर के चैधरी और इन्द्रजीत सरोज को समाजवादी पार्टी अपनी पार्टी में ले आयी। यही नहीं उसने बीएसपी से उपचुनाव, विधान परिषद और राज्यसभा चुनाव के लिए ‘शार्ट टर्म’ गठबंधन कर बढ़त बनाने की कोशिश की। यादवों के अलावा अन्य पिछड़ी जातियों को पार्टी से जोड़ने की मुहिम के तहत ही फूलपुर से पटेल बिरादरी और गोरखपुर से निषाद बिरादरी के व्यक्ति को उम्मीदवार बनाकर समाजवादी पार्टी ने बड़ा दांव खेल दिया। गोरखपुर में सात मार्च की सभा में अखिलेश यादव ने निषाद पार्टी को समाजवादी पार्टी का छोटा भाई बतााया।

छोटे दलों से गठबंधन की कोशिशें विधानसभा चुनाव के दौरान भी हुर्ह थी। विशेषकर पीस पार्टी के अध्यक्ष डा.अयूब ने तो अखबारों में इश्तहार देकर बिहार की तर्ज पर पर महागठबंधन बनाने की वकालत की थी, लेकिन तब समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। चुनाव परिणामों ने साफ किया कि यदि इन छोटे दलों को साथ लिया गया होता तो बीजेपी विरोधी मतों का बिखराव रोका जा सकता था और चुनाव परिणाम इतने बुरे नहीं होते।

7 मार्च को गोरखपुर में हुई एक सभा में निषाद पार्टी के अध्यक्ष डा संजय कुमार निषाद ने ठीक यही बात कही। उन्होंने कहा कि आज भी बीजेपीं विरोधी मत 60 से 70 फीसदी हैं लेकिन यह विभिन्न दलों में बंटा हुए हैं। बीजेपी दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यक मतों के विभाजन से मजबूत हुई है न कि अपनी मजबूती से। इस उपचुनाव में पहली बार बीजेपी विरोधी मतों का ध्रुवीकरण हुआ है जो यूपी की राजनीति में नए बदलाव का संकेत देगा।

असल में गोरखपुर और फूलपुर का उपचुनाव यूपी में नए जातीय गठबंधन के परीक्षण का चुनाव है। यह परीक्षण सफल होता है तो 2019 के चुनाव में नए चुनावी समीकरण बनेंगे जो बीजेपी के सामने कठिन चुनौती पेश करेंगे।

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