असम: एनआरसी बिल के मसौदे से 40 लाख लोगों के नाम गायब होने के बाद विपक्ष सरकार पर हमलावर, राज्यसभा में हंगामा

पूर्वोत्तर राज्य असम में दशकों से रह रहे 40 लाख बांग्लाभाषियों के नाम नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) के अंतिम मसौदे में शामिल नहीं हैं। इसमें 3.29 करोड़ आवदेकों में से 2.89 करोड़ लोगों के ही नाम हैं।

फोटो: DW
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नवजीवन डेस्क

राज्य में फैले आतंक और भय के माहौल और भारी सुरक्षा के बीच 30 जुलाई की सुबह गुवाहाटी में एनआरसी का अंतिम मसौदा जारी किया गया। इससे पहले राज्य के कई संवदेनशील जिलों में धारा 144 लागू कर दी गई थी। एनआरसी का पहला मसौदा बीते साल 31 दिसंबर को जारी किया गया था जिसमें 1.90 करोड़ लोगों के नाम थे। असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने मसौदा जारी होने के बाद पैदा हालात पर गुवाहाटी में तमाम राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के साथ एक बैठक की है। उन्होंने लोगों से इस मुद्दे पर भड़काऊ बयानों से बचने की अपील की है।

सुबह जैसे ही राज्यसभा की कार्यवाही शुरू हुई, विपक्षी दलों ने असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण (एनआरसी) का मुद्दा उठाया, जिसका अंतिम ड्राफ्ट तैयार हो गया है और इसमें लगभग 40 लाख लोगों को भारतीय नागरिकता नहीं मिली है। विपक्षी सांसदों ने इसे अमानवीय करार दिया।

तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ ब्रायन इस मुद्दे को उठाना चाहते थे लेकिन हंगामा जारी रहने के कारण ऐसा नहीं कर सकें। तृणमूल कांग्रेस द्वारा उठाए गए इस मुद्दे का कांग्रेस और अन्य विपक्षी नेताओं ने भी समर्थन किया।

उधर, असम एनआरसी ड्रफ्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा, “कई लोग ऐसे हैं जिनके पास अधार कार्ड और पासपोर्ट हैं, बावजूद इसके उनके नाम सूची में नहीं हैं। सरनेम देखकर लोगों के नाम एनआरसी ड्राफ्ट से बाहर कर दिए गए हैं।”

गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि असम एनआसरी में जिनके नाम शामिल नहीं हैं, उनके खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई नहीं होगी। उन्होंने कहा कि सूची में जिन लोगों के नाम शामिल नहीं हैं, वे प्रवासी अधिकरण में दोबारा संपर्क कर सकते हैं।

एनआरसी में पंजीकरण के लिए कुल 3.9 करोड़ लोगों ने आवेदन किया था। देश के विभाजन के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले अवैध आप्रवासियों की पहचान के लिए राज्य में वर्ष 1951 में पहली बार एनआरसी को अपडेट किया गया था। उसके बाद भी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ लगातार जारी रही। खासकर साल 1971 के बाद यहां इतनी भारी तादाद में शरणार्थी पहुंचे कि राज्य में आबादी का स्वरूप ही बदलने लगा। उसी वजह से अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने अस्सी के दशक की शुरुआत में असम आंदोलन शुरू किया था। लगभग छह साल तक चले इस आंदोलन के बाद वर्ष 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे।

उस समझौते में अवैध आप्रवासियों की पहचान के लिए एनआरसी को अपडेट करने का प्रावधान था। लेकिन किसी न किसी वजह से यह मामला लटका रहा। बाद में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और उसकी देख-रेख में साल 2015 में यह काम शुरू हुआ। एनआरसी के संयोजक प्रतीक हाजेला ने बताया कि एनआरसी के तहत 2 करोड़ 89 लाख 677 लोगों को भारतीय नागरिक पाया गया है। इनके नाम मसौदे में शामिल हैं। उन्होंने कहा कि जिन लगभग 40 लाख लोगों के नाम इस सूची में शामिल नहीं हैं उनको भी अपना दावा और आपत्ति पेश करने का पर्याप्त मौका दिया जाएगा।

संदिग्ध वोटरों की सूची में शामिल नामों और विदेशी घोषित लोगों के नाम इस सूची में शामिल नहीं हैं। असम समझौते में कहा गया था कि 25 मार्च 1971 के बाद से राज्य में अवैध रूप से रहने वालों के नाम एनआरसी में शामिल नहीं किए जाएंगे। एनआरसी में शामिल होने के लिए तमाम नागरिकों को अपने समर्थन में इस बात का दस्तावेजी सबूत पेश करना था कि वह या उनके पूर्वज वर्ष 1951 की एनआरसी या उसके बाद बनने वाली मतदाता सूचियों में शामिल थे। एनआरसी का अंतिम मसौदा जारी करने से पहले राज्य के तमाम इलाकों के अलावा पड़ोसी राज्यों में भी भारी सुरक्षा का भारी इंतजाम किया गया था। केंद्र ने इसके लिए सुरक्षा बलों की 220 कंपनियों को इलाके में भेजा है।

एनआरसी में 40 लाख लोगों के नाम नहीं होने की वजह से राज्य के कई अल्पसंख्यक परिवारों के बिखरने का खतरा पैदा हो गया है। मिसाल के तौर पर सिलचर के करीमगंज इलाके की रहने वाली परवीन खातून और उनकी पुत्रियों के नाम तो इस सूची में हैं लेकिन उनके 70 साल के पति मोहम्मद हफीज का नाम इसमें नहीं हैं। इससे उनके सामने भारी असमंजस की हालत पैदा हो गई है।

वह सवाल करती हैं, “अब क्या होगा? कहीं मेरे पति को बांग्लादेशी घोषित कर जेल में तो नहीं डाल दिया जाएगा? या फिर उनको बांग्लादेश तो नहीं भेज दिया जाएगा?” पति ही उनके परिवार के एकमात्र कमाऊ सदस्य हैं। परवीन जैसे लाखों परिवारों के सामने यही खतरा मंडराने लगा है। सूची में नाम नहीं होने के बाद पुलिस की धर-पकड़ के डर से कई लोग अपने घर छोड़ कर फरार हो गए हैं।

केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह और मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल के भरोसे के बावजूद लोगों को इस बात का भरोसा नहीं हो रहा है कि भविष्य में उनके साथ कैसा सलूक किया जाएगा। दोनों नेता हालांकि बार-बार कहते रहे हैं कि जिनके नाम सूची में नहीं होंगे उनको तत्काल न तो जेल में डाला जाएगा और न ही बांग्लादेश भेजा जाएगा।

एनआरसी के संयोजक प्रतीक हाजेला ने भी इसी बात को दोहराया। उन्होंने कहा कि जिन लोगों के नाम इस सूची में शामिल नहीं हैं, वे एक अगस्त से 28 सितंबर के बीच अपने दावे और आपत्तियां जमा कर सकते हैं। 28 सितंबर के बाद उन पर विचार किया जाएगा। हाजेला के मुताबिक, संबंधित लोगों को यह भी बता दिया जाएगा कि आखिर उनका दावा क्यों नहीं माना गया है। उनका कहना है कि तमाम दावों को निपटाने के बाद ही अंतिम सूची जारी की जाएगी।

एनआरसी का अंतिम मसौदा जारी होने के बाद पैदा हालात पर विचार करने के लिए मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने सोमवार को गुवाहाटी में एक सर्वदलीय बैठक की। इस बैठक में तमाम दलों ने लोगों से शांति और सद्भाव बनाए रखने की अपील की। इसमें कहा गया कि फिलहाल 40 लाख लोगों में किसी को न तो जेल में डाला जाएगा और न ही बांग्लादेश भेजा जाएगा। मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल कहते हैं, “किसी भी व्यक्ति या संगठन को इस मुद्दे पर भड़काऊ बयान देने से बचना चाहिए। इससे परिस्थिति और उलझ सकती है।” मुख्यमंत्री ने कहा कि एनआरसी की कवायद असम समझौते के प्रावधानों को लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर उसकी देख-रेख में चलाई गई है। इससे आतंकित होने की जरूरत नहीं है।

लेकिन कई संगठनों ने इसे अल्पसंख्यकों के खिलाफ साजिश करार दिया है। एक अल्पसंख्यक संगठन के नेता शेख अब्दुल कहते हैं, “इतने लंबे समय से असम में रहने वाले 40 लाख से ज्यादा लोगों को सरकार ने एनआरसी के नाम पर अवैध आप्रवासी करार दे दिया। इससे उनका भविष्य खतरे में पड़ गया है। यह साजिश नहीं तो क्या है?”

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि एनआरसी का मसौदा प्रकाशित होने के बाद अब असम के हालात से निपटना मुख्यमंत्री सोनोवाल और केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार के लिए एक कड़ी चुनौती बन सकता है।

(DW और आईएएनएस के इनपुट के साथ)

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