असम: ‘सिर्फ कानून से नहीं, सामाजिक जागरूकता से खत्म होगी डायन प्रथा’

असम के डायन विरोधी कानून को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई है। लेकिन क्या असम में भी इस कानून का हाल झारखंड जैसा ही होगा? भारत के कुछ राज्यों में यह कुरीति बड़ी गहरी जड़ें जमाए हुए है।

फोटो: सोशल मीडिया 
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देश के विभिन्न राज्यों में डायन प्रथा के खिलाफ कानून होने के बावजूद अब तक इस सामाजिक कुरीति पर अंकुश नहीं लग सका है। असम सरकार का दावा है कि इस कानून के प्रावधान दूसरे राज्यों के ऐसे कानूनों के मुकाबले कठोर हैं। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि महज कानून बना कर सदियों पुरानी इस कुप्रथा को खत्म करना संभव नहीं है। इसके लिए बड़े पैमाने पर सामाजिक जागरूकता जरूरी है

देश में डायन प्रथा कब से शुरू हुई, इसका कोई प्रामाणिक इतिहास तो नहीं मिलता लेकिन यह सदियों पुरानी है। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में डाकन या डायन प्रथा कोई 6-7 सौ साल पहले से चलन में थी। इसके तहत अपनी जादुई ताकतों के कथित इस्तेमाल से बच्चों को मारने के आरोप में महिलाओं की पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती थी। उस दौर में वहां हजारों औरतें इस कुप्रथा का शिकार हुई थीं। राजपूत रियासतों ने 16वीं सदी में कानून बना कर इस प्रथा पर रोक लगा दी थी। साल 1553 में उदयपुर में पहली बार इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया था। बावजूद इसके यह बेरोक-टोक जारी रही।

कुछ जानकारों के मुताबिक, यह प्रथा असम के मोरीगांव जिले में फली-फूली। इस जिले को अब काले जादू की भारतीय राजधानी कहा जाता है। दूर-दराज से लोग काला जादू सीखने यहां आते हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2000 से 2016 के बीच देश के विभिन्न राज्यों में डायन करार देकर 2,500 से ज्यादा लोगों को मार दिया गया। उनमें ज्यादातर महिलाएं थीं। इस मामले में झारखंड का नाम सबसे ऊपर है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में साल 2001 से 2014 के बीच डायन होने के आरोप में 464 महिलाओं की हत्या कर दी गई। उनमें से ज्यादातर आदिवासी तबके की थीं। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं का दावा है कि एनसीआरबी के आंकड़े तस्वीर का असली रूप सामने नहीं लाते। डायन के नाम पर होने वाली हत्याओं की तादाद इससे कई गुनी ज्यादा है। लेकिन ग्रामीण इलाकों में डायन के खिलाफ लोगों की एकजुटता की वजह से ज्यादातर मामले पुलिस तक नहीं पहुंच पाते।

आखिर किसी को डायन करार देने का पैमाना क्या है? सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि ग्रामीण और खासकर आदिवासी लोग किसी प्राकृतिक विपदा या बच्चों की मौत किसी गंभीर बीमारी के फैलने की स्थिति में लोग पहले नीम हकीमों और ओझाओं की शरण में जाते हैं। जब उन झोला छाप डॉक्टरों और ओझाओं से कुछ नहीं हो पाता तो वह पास-पड़ोस की किसी महिला को इसके लिए जिम्मेदार बताते हुए उसे डायन करार दे देते है। मौजूदा दौर में भी गांवों में स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर नहीं होने की वजह से ऐसे डॉक्टर और ओझा ही लोगों का सबसे बड़ा सहारा है। ओझा की ओर से डायन करार दी गई महिला का उत्पीड़न शुरू होता है जो उसकी जान के साथ ही खत्म होता है। ओझा के मुंह से निकला एक शब्द ही गांव के लोगों के लिए ब्रह्मवाक्य बन जाता है और लोग कानून हाथों में लेकर उस कथित डायन को उसके कर्मों की सजा दे देते हैं। ऐसी महिलाएं अक्सर किसी छोटी जाति की होती हैं। ग्रामीण इलाकों में संपत्ति हड़पने या आपसी रंजिश के लिए भी इस कुप्रथा की आड़ ली जाती है। खासकर किसी विधवा को डायन करार देकर मारने के बाद उसकी संपत्ति हड़पना आसान है। ऐसे मामलों में पुलिस या जिला प्रशासन भी खास कुछ नहीं कर पाता।

झारखंड में आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले अजिथा सुशान जार्ज कहते हैं, “डायन प्रथा में ओझाओं की भूमिका सबसे अहम है। अगर वह किसी का इलाज करने में नाकाम रहते हैं तो इसका ठीकरा किसी महिला पर फोड़ते हुए उसे डायन बता देते हैं।” एक और कार्यकर्ता जेवियर दास कहते हैं, “झारखंड में तो यह कुप्रथा इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी हैं किसी प्राकृतिक विपदा या महामारी के फैलते ही लोग ओझाओं की मदद से डायन की तलाश में जुट जाते हैं।” दिल्ली स्थित संगठन पार्टनर्सस फार ला इन डेवलपमेंट नामक एक संगठन ने अपने हालिया शोध में कहा है, “डायन प्रथा की जड़ें पितृसत्तात्मक मानसिकता, आर्थिक झगड़ों, अंधविश्वास और दूसरी निजी और सामाजिक संघर्ष में छिपी हैं। ज्यादातर मामले पुलिस के पास ही नहीं पहुंचते। ऐसे में सरकारी आंकड़े इस भयावह समस्या की सही तस्वीर नहीं दिखाते।”

अधिकतर आदिवासी समुदायों में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में जमीन पर ज्यादा अधिकार प्राप्त होते हैं। इस संपत्ति पर अधिकार जमाने के लिए उन्हें डायन साबित करने की कवायद शुरू की जाती है खासकर उन महिलाओं को निशाने पर रखा जाता है जिनके परिवार में कोई नहीं होता। एक गैर-सरकारी संगठन सिटीजन फाउंडेशन के प्रमुख गणेश रेड्डी कहते हैं, “स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच नहीं होने की वजह से आदिवासी गांवों में अंधविश्वास की जड़ें काफी गहरी हैं। इसके साथ ही साक्षरता दर भी बहुत कम है।”

सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि महज कानून बना देने से सदियों पुरानी इस कुप्रथा को जड़ से मिटाना या इस पर अंकुश लगाना मुमकिन नहीं है। रेड्डी इस मामले में झारखंड का हवाला देते हैं जहां बरसों पहले डायन प्रथा के खिलाफ कानून बनने के बावजूद डायन के नाम पर होने वाली हत्याओं में कोई कमी नहीं आ है। असम में डायन प्रथा के विरोध में लंबे अरसे से सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता दिब्यज्योति सैकिया कहते हैं, “असम में इस मुद्दे पर बना कानून दूसरे राज्यों के कानूनों के मुकाबले बेहतर है। लेकिन महज कानून बना कर समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी इस कुप्रथा का खात्मा संभव नहीं है।”

असम में अपने गैर-सरकारी संगठन मिशन बीरूबाला के जरिए इस कुप्रथा के खिलाफ लंबे अरसे से अभियान चलाने वाली बीरबाला राभा कहती हैं, “असम में ऐसा कानून का बनना एक अहम कदम है। लेकिन इस कानून को कड़ाई से लागू करने और खासकर ग्रामीण इलाकों में सामाजिक जागरूकता फैलाने पर जोर देना होगा।” कई बार बीरूबाला को भी डायन करार देकर उनकी हत्या के प्रयास किए गए हैं। राज्य में बीते 16 वर्षों के दौरान 114 महिलाओं समेत 193 लोगों को डायन करार देकर उनकी हत्या कर दी गई थी। जाने-माने फिल्मकार सीतानाथ लहकर कहते हैं, “महज कानूनों के जरिए सदियों से जारी इस कुप्रथा को खत्म करना संभव नहीं है। इसके लिए बहुआयामी उपाय करने होंगे।” वह कहते हैं कि सरकार को गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिल कर जागरूकता अभियान तो चलाना ही होगा, ग्रामीण इलाकों तक शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं भी पहुंचानी होंगी।

अखिल असम छात्र संघ (आसू) के महासचिव लुरिनज्योति गोगोई कहते हैं, “21वीं सदी में भी ऐसी कुप्रथा का जारी रहना शर्मनाक है। कोई भी कानून सदियों पुरानी किसी प्रथा को खत्म नहीं कर सकता। सरकार को इसके लिए शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना होगा और जागरूकता फैलानी होगी।”

(भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों के देखते हुए कहा जा सकता है कि महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) ने हर राज्य के अपराध दर के अनुसार इन्हें महिलाओं के लिए यह रैंक दी है।)

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