अयोध्या-बाबरी विवाद: हिंदूओं की तरफ से एक दर्जन दावेदार, पक्ष में अगर आ भी गया फैसला, तो किसे मिलेगी जमीन ? 

अयोध्या की विवादित जमीन पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है और अगले दो दिनों में दलीलें पूरी होने वाली हैं। लेकिन बड़ा सवाल खड़ा हो गया है कि अगर फैसला हिंदू पक्ष में भी आया तो भी किसे मिलेगा स्वामित्व, क्योंकि हिंदू पक्ष की तरफ से एक दर्जन दावेदार हैं।

फोटो : Getty Images
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ऐशलिन मैथ्यू

सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या विवाद की बीते करीब 39 दिनों से सुनवाई चल रही है। मंगलवार (14 अक्टूबर) को सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील राजीव धवन ने कहा कि पूरी सुनवाई के दौरान मुस्लिम पक्ष एक ही है, जबकि हिंदू पक्ष में अब तक 12 पार्टियां सामने आ चुकी हैं, जबकि इस मामले के शुरु में सिर्फ निर्मोही अखाड़ा ही पक्षकार था।

धवन ने इस तथ्य को सामने रखते हुए सवाल किया कि अयोध्या विवाद में अब चूंकि इतने ज्यादा पक्षकार हैं, ऐसे में कौन सा पक्ष जमीन का स्वामित्व हासिल करना चाहता है और इनमें से कौन सा पक्ष मंदिर निर्माण करना चाहता है? अदालत में यह भी बताया गया कि विश्व परिषद द्वारा बनाए गए राम जन्मभूमि न्यास ने सारी विवादित भूमि पर स्वामित्व का दावा पेश किया है, जबकि न्यास तो सिर्फ एक ऐसे मामले में बचाव पक्ष है जो काफी बाद में दायर किया गया था।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में इस समय 4 मामलों पर सुनवाई हो रही है। पहला केस हिंदू महासभा के सदस्य गोपाल सिंह विषारद द्वारा 16 जनवरी 1950 को दायर किया गया था। इस केस में मांग की गई थी कि उन्हें ‘अस्थान जन्म भूमि’ पर देव पूजा करने की अनुमति दी जाए।

दूसरा केस 5 दिसंबर 1950 को परमहंस राम चंद्र दास ने दायर किया था। इस केस में स्वामित्व की अनुमति मांगी गई थी। लेकिन परमहंस चंद्र दास का देहांत हो गया है, इसलिए इस केस की सुनवाई नहीं हो रही है। रामचंद्र दास दिगंबर अखाड़ा के सदस्य थे और लालकृष्ण आडवाणी और कई अन्य को अपना सहयोगी बताते थे।

तीसरा केस निर्मोही अखाड़ा के महंत रघुनाथ ने दायर किया था, जिसमें मंदिर प्रबंधन देखने वाले म्यूनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन प्रियदत्त राम को हटाकर मंदिर प्रबंधन का जिम्मा उन्हें देने की अपील की गई थी। निर्मोही अखाड़ा का न्यास, आरएसएस या विश्व हिंदू परिषद से कुछ लेना देना नहीं है। साथ ही अखड़ा मामले में बचाव पक्ष के तौर पर न्यास को शामिल करने के खिलाफ भी रहा है।

जब सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने देखा कि हिंदुओं की तरफ से एक के बाद एक मुकदमे दायर किए जा रहे हैं, तो उन्होंने विषारद की अपील के खिलाफ मामला दायर किया और मस्जिद और कब्रिस्तान की जमीन पर कब्जे के साथ ही मूर्तियों को हटाने की भी अपील की।

इस तरह हिंदुओं की तरफ से दायर दो और वक्फ बोर्ड की तरफ से दायर एक मुकदमा ही विवाद के मुख्य केस बन गए हैं।


यहां तक पूरे मामले में आरएसएस या विश्व हिंदू परिषद की कोई भूमिका नहीं थी। लेकिन 1989 में, हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज डीएन अग्रवाल, जो विश्व हिंदू परिषद के उपाध्यक्ष थे, उन्होंने केस नंबर पांच दायर कर विवाद भूमि के स्वामित्व का दावा किया और पुरानी इमारत की जगह नई इमारत बनाने की अनुमति मांगी। इस केस के बाद से आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद ने इस केस में अपनी भूमिक बनाई।

डीएन अग्रवाल राम 1985 में स्थापिक जन्मभूमि न्यास के संस्थापकों में से एक थे। दरअसल अग्रवाल की याचिका में मांग की गई थी कि उन्हें राम लला और रामजन्म भूमि के मित्र के तौर पर पेश होने की अनुमति दी जाए। इस तरह संघ परिवार ने भूमि के विवाद को आस्था के मामले में बदलने की कोशिश की।

रामजन्म भूमि न्यास ने दावा किया कि गिराई गई बाबरी मस्जिद के बगल की जगह का स्वामित्व उसके पास है। लेकिन रोचक है कि न्यास क पास इस भूमि की लीज़ डीड मार्च 1992 की है, जो कि अदालत में केस दायर होने के बहुत बाद का मामला है।

जहां बाबरी मस्जिद थी, उस जमीन पर रामजन्म भूमि न्यास के दावे पर दूसरे हिंदू पक्षों ने सवाल उठाया। यह हिंदू पक्ष थे निर्मोही अखाड़ा और हिंदू महासभा। लेकिन सभी हिंदू पक्षों में भी केस को लेकर मतभेद हैं।

निर्मोही अखाड़ा खुद को भूमि का असली स्वामी बताता है। उनका दावा है कि उन्होंने इस मामले में पहला केस 1885 में दायर किया था और बाबरी मस्जिद के बाहरी प्रांगण में मंदिर निर्माण की अनुमति मांगी थी, लेकिन इसे खारिज कर दिया गया था। केस में कहा गया था कि निर्मोही अखाड़ा बाहरी प्रांगण में राम चबूतरे पर पूजा करता रहा है। लेकिन वह कभी भी भीतरी प्रांगण में नहीं गए।

लेकिन अब निर्मोही अखाड़ा भीतरी प्रांगण पर भी दावा कर रहा है। दरअसल निर्मोही अखाड़ा पर बाबरी मस्जिद के केंद्रीय गुंबद के नीचे मूर्तियां रखने के लिए आपराधिक मुकदमा भी 1949 में हुआ था। 22 दिसंबर 1949 को दायर केस के बाद जिला मजिस्ट्रेट ने इस जगह सरकार के अधीन कर दिया था।

पर, निर्मोही अखाड़े में ही दो धड़े हैं, जो खुद को असली दावेदार बताते हैं। एक है राम चबूतरे पर पूजा आयोजित करने वाला पंच रामानीं निर्मोही अखाड़ा, अयोध्या और दूसरा है अयोध्या के एक अन्य मंदिर हनुमान गद्दी पर काबिज निर्मोही निर्वाणी।

निर्मोही अखाड़ा, अयोध्या की अगुवाई करने वाले दिनेंद्र दास साफ कहते हैं कि इस मामले में असली पक्षकार वे ही हैं।

जबकि निर्मोही निर्वाणी के प्रमुख धर्मदास हैं, जिनपर विवाद स्थल से 1982 में दस्तावेज़ चुराने का आरोप है। लेकिन उन्होंने भी केस नंबर 5 दायर कर दिया है। और, धवन ने इन्हीं की मौजूदगी के खिलाफ दलील दी हैं कि यह तो सिर्फ केस नंबर पांच में बचाव पक्ष हैं।

सूत्र बताते हैं कि दरअसल एक और अखाड़ा है, दिगंबर अखाड़ा जो निर्मोही अखाड़े पर कब्जे के लिए संघर्ष कर रहा है, लेकिन निर्मोही अखाड़ा इससे इनकार करता है। अदालत में दिगंबर अखाड़े की तरफ से कोई अर्जी या याचिका नहीं है।

उधर अखिल भारत हिंदू महासभा में भी आपसी संघर्ष चल रहा है और इनमें से कुछ को आरएसएस ने बढ़ावा दिया है ताकि रामजन्मभूमि पर उनके कब्जे का दावा बना रहे। कुल मिलाकर 6 धड़े हैं जो खुद को हिंदू महासभा का अगुवा बताते हैं, लेकिन इनमें से सिर्फ 4 ही अयोध्या भूमि विवाद में याचिकाकर्ता हैं।

पहली याचिकाकर्ता हैं राजश्री चौधरी, जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पड़पोती हैं। उनकी तरफ से रवि रंजन सिंह अदालत में पेश हो रहे हैं। उनका दावा है कि वे अखिल भारत हिंदू महासभा की असली प्रतिनिधि हैं। उनका कहना है कि आरएसएस से उनका कुछ लेना-देना नहीं है।

इसके बाद चंद्र प्रकाश कौशिक हैं, जो हिंदू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने का दावा करते हैं। वे अपनी तरफ से खुद ही बहस कर रहे हैं और आरएसएस से उनकी नजदीकियां मानी जाती हैं।

हिंदू महासभा की तरफ से तीसरे याचिकाकर्ता हैं स्वामी चक्रपाणि, जिनके बीजेपी और कांग्रेस दोनों से अच्छे रिश्ते माने जाते हैं। चौथे याचिकाकर्ता हैं बाबा नंद किशोर मिश्रा, जो खुद को अखिल भारत हिंदू महासभा का प्रमुख बताते हैं। वे बीजेपी के समर्थक हैं और पूर्व में बाबा रामदेव के भी समर्थक रहे हैं।


दरअसल अखिल भारत हिंदू महासभा के अध्यक्ष पद की दावेदारी पर फैसले के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में एक मुकदमा दायर किया गया था। सुनवाई के दौरान नंद किशोर मिश्रा कोई दस्तावेज पेश नहीं कर पाए कि वे कोई पदाधिकारी हैं। इसके अलावा कई और जवाबी दावे भी सामने आ गए, जिसके बाद हाईकोर्ट ने फैसला दि. कि न तो चक्रपाणि और न ही कौशिक को महासभा का कोई पदाधिकारी माना जा सकता है।

बात यहीं खत्म नहीं हुई। निर्मोही अखाड़े ने सुप्रीम कोर्ट में राम लला की तरफ से दायर याचिका का विरोध भी यह कहते हुए किया था कि वे वे मंदिर के कर्ताधर्ता होने के नाते वे ही राम लला के केयरटेकर हैं, न कि रामजन्म भूमि न्यास।

इन सभी याचिकाओं के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2010 को दिए अपने फैसले में अयोध्या की विवादित 2.77 एकड़ जमीन को तीन बराबर हिस्सों में बांटने का आदेश दिया था। इनमें से सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला विराजमान के बीच भूमि का बंटवारा किया गया था।

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Published: 16 Oct 2019, 6:59 AM